प्रेम का अर्थ
प्रेम मानव-जीवन का आभूषण है। कबीर का प्रसिद्ध दोहा है-
पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय॥
ग्रन्थ पढ़-पढ़कर कोई ज्ञानी नहीं हो जाता, ज्ञानवान् होने के लिए तो यह ढाई अक्षर का ‘प्रेम’ शब्द अपने जीवन में उतारना होगा। साधारण बोलचाल में जिसे हम प्रेम कहते हैं, वह तो किसी व्यक्ति या वस्तु के लिए तीव्र आकर्षण, मोह अथवा आसक्ति होती है। उसमें अपने प्रेम के विषय (प्रियतम) से प्रतिदान की आशा होती है। वह तो आदान-प्रदान का एक मामला है। जिससे हम प्रेम करते हैं, यदि वह हमारी उपेक्षा करता है या किसी अन्य के प्रति आकर्षित है तो क्षणमात्र में हमारा प्रेम घृणा में बदल जाता है। वास्तव में, वहाँ प्रेम होता ही नहीं। सच्चा प्रेम तो करने में है, देने में है, अपने प्रिय के सुख में ही अपना सुख देखना है; न कि उससे कुछ पाने की इच्छा रखना। प्रेम तो नितान्त नि:स्वार्थ और सार्वभौमिक भाव है। वह तो सर्वजन हिताय है। उसकी सही अभिव्यक्ति परमात्मा के स्वरूप को कण-कण में देखना है और उसे प्रेम करना है। वास्तविक प्रेम स्वभाव से ही निस्सीम होता है। सन्तान के लिए माता का प्रेम ही उसका उदाहरण हो सकता है। हम प्रत्येक प्राणी को अपने समान देखें (आत्मवत् सर्वभूतेषु) और जड़-चेतन सभी के लिए कल्याण की कामना करें, तभी प्रेम हमारे अन्त:करण में अगम-स्रोत बनकर फूटेगा, कल्पतरु बनकर खिलेगा, जिसकी ठण्डी बयार हर उस किसी को शीतलता प्रदान करेगी जो हमारे सम्पर्क में आएगा।
सच तो यह है कि प्रेम आत्मिक अभिव्यक्ति है। आध्यात्मिक जीवन का आदि और अन्त है। यदि अनन्त सत्ता अथवा परमचैतन्य के प्रेम में व्यक्ति डूबेगा, तभी उसे प्रेम की सम्पदा प्राप्त होगी। श्री प्रभात रंजन सरकार का कहना है- “ प्रेम ही प्रथम अक्षर है—प्रेम ही प्रारम्भिक बिन्दु है और प्रेम ही अन्तिम बिन्दु साधना-समय प्रेम का अभय प्रेम में रूपान्तरण है।”
कुछ विचारक कहते हैं कि भय बिना प्रेम नहीं होता किन्तु यह उनका भ्रम है। प्रेम तो सभी बन्धनों, चिन्ताओं और आशंकाओं के पार चले जाना है। परमात्मा से भय कैसा? वह तो सखा हैं। आत्मा के परम प्रियतम हैं। जो धार्मिक ग्रन्थ मनुष्य में स्वर्ग-नरक का भय दिखाकर परमात्मा से प्रेम के लिए प्रेरित करते हैं, वे झूठे हैं। भगवत् सत्ता का प्रेम तो उन सभी को प्राप्त है जो उससे प्रेम करते हैं। भक्ति, प्रेम का ही दूसरा रूप है। प्रत्येक महापुरुष के जीवन को यदि हम देखें तो मिलेगा कि सभी महान् व्यक्तियों में जो सामान्य तथ्य देखने को मिलता है, वह प्रेम ही है। प्रेम मनुष्य में प्रसुप्त है। जो उसे जगाना होता है। एक बार झरना फूटकर ऊपर गया फिर तो वह रोम-रोम को सिक्त कर देता है।
एक आदमी अपने जीवन से बड़ी निराशा महसूस करता था। वह हर समय उदास रहता था। वह स्वयं को अकेला महसूस करता था। उसे लगता था कि कोई उसकी परवाह नहीं करता। वह तो नितान्त अकेला है और कोई उसे प्यार नहीं करता। एक दिन अचानक एक लड़की उसके कमरे में आयी। उसने उसकी उदासी “आप इतने गुमसुम क्यों बैठे है? उदास क्यों हैं?” उस आदमी ने बताया कि वह आला है। कोई जसे अपना नहीं समझता. उसे प्यार नहीं करता।
उस लड़की ने कहा- “यह तो बहुत वह उस लड़की ने उस आदमी का हाथ पकड़ा और कहा- “आइये ! तनिक मेरे साथ अपने कमरे से बाहर चलिये। आप देखेंगे कि आपके द्वार पर चारों ओर प्रेम बिखरा पड़ा है। वसन्त का मौसम है और चार ओर खिले हुए फूल अपनी मादक सुगन्ध बिखेर रहे हैं। मन्द हवा के झोंके तुम्हें पुकार रहे हैं।
वह आदमी लड़की के साथ कमरे से बाहर आ गया। आज उसने नयी दृष्टि से अपने चारों ओर के संसार को देखा। उसके जीवन में भी नया वसन्त मानो घटित हो गया। मनुष्य का जीवन तो फूल की भाँति होना चाहिए। फूल के अन्तर में जो बीज है, उसे तो खिलना ही है। उसका (फूल) काम तो सुगन्ध बिखेरना है। वह तो हर किसी के लिए हँसता है। कोई उसे देखे, न देखे–सराहे, न सराहे-प्यार करे, न करे-उसे तो धरा का सौन्दर्य बढ़ाना ही है, वरदान देना ही है। आओ, हम भी अपने अन्तर के पुष्प खिलायें और चारों तरफ अपने सात्विक प्रेम की सुगन्ध फैला दें।
प्रेम में अपार शक्ति है। बुद्ध के जमाने में कौशल देश में अंगुलिमाल नाम का एक भयानक डाकू रहता था। वह लोगों को लूटता था और उनकी हत्या कर देता था। जिनकी हत्या करता था, उनकी अँगुलियाँ काटकर एक माला में पिरो लेता था जिसे वह अपने गले में पहने रखता था, इसीलिए उसका नाम अंगुलिमाल पड़ गया था। कौशल नरेश प्रसेनजित भी उससे परेशान था। लाख प्रयत्न करके भी वे उसे पकड़ नहीं पाये। एक दिन भगवान बुद्ध भ्रमण पर थे। अंगुलिमाल उनके सामने आ निकला। शान्त, सौम्य, करुणामय भगवान् बुद्ध को देखकर वह डाकू क्षणभर के लिए ठिठक गया, किन्तु उसमें फिर दुष्प्रवृत्ति का अहम् जागा। वह बोला—“ठहर भिक्षुक! मैं तुझे मार डालूँगा। मेरा नाम अंगुलिमाल है।” भगवान बुद्ध तनिक भी विचलित नहीं हुए। उसी भाँति सौम्यता से मुस्कराते रहे। उनकी आँखों से प्रेम की वर्षा हो रही थी। उन्होंने कहा—“तो तुम हो अंगुलिमाल! हमें मारकर तुम्हें क्या मिलेगा? मारना ही चाहते हो तो मारने से पहले हमारा एक काम करोगे अंगुलिमाला”
भगवान् बुद्ध ने उससे सामने के वृक्ष से एक पत्ता तोड़कर लाने की इच्छा व्यक्त की। अंगुलिमाल ने अट्टहास किया। उसने मन में सोचा कि क्या कोई जादूगर है ? फिर भी जिज्ञासा तीव्र हो उठी। वह सामने के पेड़ से पत्ता तोड़ लाया कि देखें, अब यह भिक्षुक क्या करता है ?
भगवान् बुद्ध पूर्ववत् मुस्करा रहे थे। उन्होंने कहा- “अंगुलिमाल अब आखिरी काम और कर दो। इस पत्ते को फिर से यथास्थान उसी टहनी पर लगा आओ।” अंगुलिमाल वापस जाने को मुड़ा, किन्तु ठिठका और सोचने लगा कि यह भिक्षुक क्या करने के लिए कह रहा है ? क्या यह सम्भव है कि पत्ता तोड़कर पुनः उसी टहनी पर लगाया जा सके। उसने लौटकर बुद्ध की ओर देखा। भगवान् करुणा से हँस रहे थे और कह रहे थे–“अंगुलिमाल, जिसे तुम जोड़ नहीं सकते, उसे तोड़ने का क्या अधिकार है ?” अंगुलिमाल भगवान् बुद्ध के चरणों में गिर पड़ा और रोने लगा। भगवान् बुद्ध प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरने लगे। एक पल में क्रान्ति घटित हो गयी। अंगुलिमाल के भीतर सोया इन्सान जाग उठा। उसने कहा- “भगवान् ! मुझे अपने चरणों में जगह दे दीजिए।” उसी पल से अंगुलमाल भी दीक्षा लेकर बुद्ध के शिष्यों की टोली में शामिल हो गया-अनन्त पथ का राही बन गया।
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