आदिकाल की रचनाएँ एवं रचनाकार
आदिकाल की रचनाएँ एवं रचनाकार – अपभ्रंश (वीरगाथा काल) संवत् 1050-1375 आदिकाल अथवा वीरगाथा काल हिन्दी साहित्य के इतिहास का प्रारंभिक चरण है, जो दसवीं शताब्दी से लेकर चौदहवीं शताब्दी तक माना जाता है। युग गी सामान्य परिस्थितियों की दृष्टि से यह युग विकेन्द्रीकरण की ओर जा रहा था। सम्राट हर्ष की मृत्यु के पश्चात् देश की एकसूत्रता छिन्न-भिन्न हो गई। देश छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त हो गया और राजे-महाराजे आपस में जरा-जरा सी बात पर युद्ध करने लगे। उधर देस पर विदेशियों के निरंतर आक्रमण हो रहे थे। देश का वातावरण भारी हलचल और अशांति से भरा हुआ था। धर्म की जगह तंत्र-मंत्र जादू-टोने ने ली थी। आत्मिक उन्नति की अपेक्षा विलास-वृत्ति का पोषण हो रहा था। बौद्ध धर्म और जैन धर्म का प्रभाव भी बढ़ रहा था। ऐसे राजनीतिक एवं धार्मिक वातावरण के मध्य सामाजिक जीवन की भी दुर्गति हो गई थी। अतः तत्कालीन परिस्थितियों का प्रभाव स्वाभाविक रूप से साहित्य पर भी पड़ा। अपभ्रंशकाल में धार्मिक-सांप्रदायिक साहित्य का सृजन हुआ, वीरगाथा काल में वीरों के अतिशयोक्तिपूर्ण विचार स्पष्ट होने लगे। अतः इस काल को अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से दो उपकालों में विभक्त कर सकते हैं (1) अपभ्रंशकाल, (2) वीरगाथा काल।
अपभ्रंशकाल
इस काल-खण्ड को भी हम दो भागों में विभक्त कर सकते हैं-
1. सिद्ध एवं नाथपंथी साहित्य-
प्राचीन हिन्दी के बौद्ध और सिद्ध या योग साहित्य के सम्बंध में आज से लगभग चौबीस वर्ष पूर्व म.स. हरप्रसाद शास्त्री, डॉ. शहीदुलल्ला, डॉ. प्रमोद चंद्र बागची, राहुल सांकृत्यायन आदि विद्वानों का ध्यान आकर्षित हुआ और गौतम बुद्ध के सिद्धांतों के आधार पर उपदेश देने वाले कुछ सिद्ध कवियों की रचनाओं का परिचय मिला। इन सिद्ध कवियों की परंपरा सातवीं शातब्दी से लेकर तेरहवीं शताब्दी तक मानी जाती है। ऐतिहासिक दृष्टि से इन कवियों उथल-पुथल के की परंपरा बौद्ध धर्म के छिन्न रूप के अन्तर्गत आती हैं। बौद्ध धर्म बहुत दिनों से वज्रयान सम्प्रदाय के रूप मेएं देश के पूर्वी भाग में प्रचलित था। परम्परा के अनुसार सिद्धों की संख्या 84 मानी गई है। इनमें सरहपा, शबरया, लुइपा, विरुपा एवं ण्ड़पा प्रमुख हैं। इस साहित्य की भाषा मगही बोली है जो ‘संद्या भाषा’ के नाम से जानी जाती है। प्रमुख रस शांत है जिसका परिपाक शास्त्रीय रूप में नहीं। है। अधिकांश रचना गीतों में हुई है। दोहा, चौपाई प्रमुख छंद हैं।
नाथ पंथी साहित्य- नाथ साहित्य, सिद्ध साहित्य का विकसित एवं शक्तिशाली स्वरूप हुआ है। बौद्धों की इस वज्रयान शाखा से सम्बन्धित गोरखनाथ का नाथ-पंथ है। भारतीय धर्म-साधना के युग में गोरखनाथ ने भारतीय जीवन को उदबुद्ध करने का व्रत लिया था। नाथों की संख्या प्रधानतः नौ मानी जाती है। नागार्जुन, जड़भारत, हरिश्चन्द्र, सत्यनाथ, गोरखनाथ, चर्पट, जलंधर और मलयार्जुन। यह सम्प्रदाय पंतजलि के योग का सहारा लेकर चला है और सिद्धि की अपआक्ष साधनावादी रहा है। अतः हठ-योग के माध्यम से जीवन को पर जोर दिया गया है। भाषा संस्कृत के अतिरिक्त प्राकृत एवं अपभ्रंश रही है। हिन्दी भाषा में संस्कृत ग्रंथों का अनुवाद हुआ है।
2. जैन साहित्य-
जैन साहित्य की अधिकांश रचनाएँ अपभ्रंश की है। अपभ्रंश से अद्भुत प्राचीन हिन्दी में लिखित जैन साहित्य, धार्मिक दृष्टि से ही नहीं, साहित्यिक और भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से भी बड़ा महत्त्व रखता है। हिन्दी के जैन कवियों में स्वयं भूदेव, आचार्य देव सेन, पुष्पदेव, अभयदेव सूरि, धनपबाल, तथा आचार्य हेमचंद्र प्रमुख है। जैन-साहित्य का वर्ण्य-विषय जीवन के विविध क्षेत्रों से सम्बन्धित हैं। रास, चतुष्पदी, कवित्त तथा दोहा छंद का उपयोग अधिक है।
वीरगाथाकाल
किसी भी समय के आविर्भाव-काल में ही साहित्यिक रचनाएँ नहीं होने लगतीं। उसे साहित्यिक पुष्टता प्राप्त करने में कुछ समय अपेक्षित रहता है। आदिकाल में तो कुछ स्फुट-रचनाएँ हुई हैं।
हिन्दी साहित्य के लगभग प्रारंभिक काल से भारतीय राजनीतिक जीवन के विश्रृंखल होने का इतिहास प्रारंभ होता है। ईसा की सातवीं-आठवीं शताब्दी से बाहरवीं शताब्दी के राजनीतिक घटना-चक्र ने हिन्दी साहित्य को भाषा और भाव दोनों ही दृष्टियों से प्रभावित किया। इस काल
की कविताएँ दो रूपों और दो भाषाओं में लिखी गईं- 1. प्रबंध काव्य और 2. वीर तथा गीत काव्य और 1.अपभ्रंश और 2. देशभाषा में।
प्रबंध काव्य के रूप में पाई जाने वाली रचनाओं में ‘पृथ्वीराज रासो’ का और वीरगानों के रूप में पाई जाने वाली रचनाओं में ‘बीसलदेव रासो’ का स्थान प्रमुख है।
अपभ्रंश की रचनाओं में विजयपाल रासो, हम्मीर रासो, कीर्तिलता और कीर्तिपताका के नाम आते हैं। देशी भाषा के ग्रंथ या प्रबंध काव्य के साहित्यिक रूप में साहित्य-प्रबंध के रूप में सर्वाधिक प्राचीन उपलब्ध ग्रंथ है— चन्दबरदाई कृत– ‘पृथ्वीराज रासो’। वीर गीतों के रूप में हमें सबसे पुरानी पुस्तक ‘बीसलदेव रासो’ मिलती है।
इस युग की अन्य मुख्य रचनाएँ हैं- खुमान रासो, आल्ह-खण्ड, जयचंद्र-प्रकाश, जय मयंक, जस चन्द्रिका, राठौड़री ख्यात तथा रणमल्लछंद, परमाल रासो, खुसरो की पहेलियाँ और विद्यापति की पदावली। अंतिम दो रचनाएँ और वीर-गाथा-काल की स्फुट रचनाओं के अन्तर्गत आती हैं। इन कवियों एवं उनकी रचनाओं की चर्चा करने के पूर्व शुक्लजी ने स्वयं ही स्पष्ट लिख दिया था कि- वीरगाथा काल के समाप्त होते-होते हमें जनता की बहुत कुछ असली बोलचाल और उसके बीच कहे सुने जाने वाले पद्यों की भाषा के बहुत असली रूप का पता चलता है। पता देने वाले हैं दिल्ली के अमीर खुसरो और तिरहुत के विद्यापति।’
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