आदिकालीन साहित्य प्रवृत्तियाँ और उपलब्धियाँ | वीरगाथा काल के साहित्य की विशेषतायें
आदिकालीन साहित्य प्रवृत्तियाँ और उपलब्धियाँ – हिन्दी का आदिकालीन साहित्य अपनी विविधता में अकेला है। उसमें तत्कालीन परिस्थितियों से प्रेरित और पोषित होकर जो प्रवृत्तियाँ उभरी हैं, वे इस काल के साहित्य की प्रमुख उपलब्धियाँ हैं। इसका विवेचन इस प्रकार है-
1. सामन्तों की स्तुति गान किन्तु व्यापक राष्ट्रीयता का अभाव-
इस समय के सभी रचनाकार अपने आपको दिल्ली दरबार के कवि बनाना चाहते थे। वे अपने आश्रयदाता को दिल्लीश्वर के रूप में देखना चाहते थे। उस समय का कोई भी रचनाकार ऐसा नहीं मिलता है जो सम्पूर्ण भातर के भविष्य पर सोचता रहा हो। उन्हें अपने आश्रयदाता और स्वयं के स्वार्थ के अतिरिक्त किसी से कोई लेना-देना नहीं था। इस तरह सम्पूर्ण चारण साहित्य में व्यापक राष्ट्रीयता का अभाव दृष्टिगोचर होता है।
2.वीर का पोषक श्रृंगार-
इन वीर गाथाओं में दो रसों की प्रमुखता मिलती है एक वीर की और दूसरी श्रृंगार की। ये रचनाकार पहले राजकुमारियों के सौन्दर्य का वर्णन करते थे और आश्रयदाता की कामेच्छा को जागृत करते थे तथा आश्रयदाता शूरता के साथ-साथ उस राजकन्या के वर्णन का प्रयत्न करता था। पृथ्वीराज रासो में पृथ्वीराज ने लगभग 14 विवाह किये। प्रत्येक राजकन्या की सुन्दरता का कवि ने प्रथमतः उल्लेख किया और बाद में प्रत्येक के लिए पृथ्वीराज ने युद्ध किया, तत्पश्चात् वरण किया। इस प्रकार इन रचनाओं में श्रृंगार रस वीर रस का पोषक बनकर आया है।
3. इतिहास कम कल्पना अधिक
वीरगाथा काल की सभी रचनाओं पर विचार करने से यह स्पष्ट होता है कि वे सभी या तो अप्रामाणिक हैं या अर्द्धप्रमाणिक। पृथ्वीराज रासो के सम्बन्ध में अब तक द्वन्द्व चल रहा है। मोहनलाल विष्णुलाल पाण्डया, श्यामसुन्दरदास, जैन मुनि आदि इसे प्रामाणिक मानते हैं तो शुक्ल जी और गौरीशंकर ओझा इसे अप्रामाणिक मानते हैं। यही स्थिति बीसलदेव रासो की है। उसकी कोई घटना बीसलदेव के शिलालेखों से मेल नहीं खाती है। बीसलदेव का विवाह भोज की राजकन्या से रासो की है। उसकी घटना बीसलदेव के शिलालेखों से मेल नहीं खाती है। बीसलदेव का विवाह भोज की राजकन्या से रासो में करवाया गया है। जो उसके राज्यारोहण से 150 वर्ष पहले मर चुका था। इससे तत्कालीन साहित्यकारों की काल्पनिकता प्रमाणित हो जाती है।
4. युद्धों का सजीव वर्णन-
चारण साहित्य की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि चारण न केवल कलम के धनी थे, अपितु तलवार के भी धनी थे। उनकी कर्कश पदावली में, उनकी वीर वचनावली में शस्त्रों की झंकार साफ सुनाई देती है। क्योंकि ये युद्धों के प्रत्यक्षदर्शी थे। अपनी विरता परक शब्दावली के द्वारा वे हतपौरुष सेना में पौरुष क संचार किया करते थे। इसलिए उनका शुद्ध सम्बन्ध साहित्यिक अद्वितीय है। “आल्हाखण्ड” में उनकी सजीवता के अनेक चित्र मिलते हैं-
(i) ‘खटखटाय कर ढेगा चाले छमक छमक चाले तलवार।’
(ii) “सात कोस सौ बढ्यौ पिथौरा, नदी वेतनवा के मैदान।।’
(iii) “बारस बरस लौं कूकर जीये, तेरह लौं जिए सियार।
बरस अट्ठारह क्षत्रिय जीवे आगे जीवण को धिक्कार।”
5. वीरगाथाओं की भाषा का डिंगल होना-
सभी वीरगाथात्मक साहित्य डिंगल भाषा में लिखा गया है। डिंगल भाषा उस भाषा का नाम था जो ग्राम्य, गंवारू या हीनता के दोष से दूषित और व्याकरण के नियमों से रहित थी तथा पिंगल के वीरों से उठ खड़ी हुई थी। डिंगल के कई अर्थ और भि लिए जाते हैं हर प्रसाद शास्त्री का कहना है कि – ‘यह शब्द’ डिम+गल’ से बना है, जिसका अर्थ “डिम-डिम” की ध्वनि निकलना है, लेकिन इन रचनाओं में ऐसी कोई ध्वनि नहीं मिलती है। एक दूसरे विद्वान ‘डगल’ से इसकी उत्पत्ति मानते हैं- जिसका अर्थ है “दर्षेक्तियाँ।” इनका कहना है कि “पिंगल” साम्य के कारण यह शबद “डींगल” से “डिंगल’ हो गया। यह भाषा चारणों में सर्वथा उपयुक्त थी क्योंकि वे उच्च स्वर से अपनी कविता पढ़ा करते थे और इस प्रकार की नाद सम्पन्न भाषा के अभाव में अभीष्ट सिद्धि नहीं हो सकती थी।
6. प्रबन्धात्मकता और मुक्तकात्मकता-
वीरगाथा काल की रचनाओं, के दो मुख्य रूप प्राप्त होते थे, वे हैं- (i) प्रबन्ध (ii) मुक्तक में जीवन के कतिपय महत्त्वपूर्ण अंशों को ही उभार रासों में जीवन के समय आरोहों-अवरोहों का चित्रण है। यह रचना प्रबन्ध की दृष्टि से श्रेष्ठतम रचना है। अतः दोनों ही प्रकार की रचनाएँ की रचनाएँ इस काल में प्राप्त होती हैं।
7. प्रकृति चित्रण-
आलम्बन और उद्दीपन दोनों रूपों में इन रासों ग्रन्थों में प्रकृति निरूपण किया गया है। नदी, वन, पर्वत आदि का वस्तु वर्णन भी शोभनीय है और आकर्षक बन पड़ा है। प्रकृति-चित्रण के स्वतन्त्र-स्थल इन काव्यों में बहुत थोड़े मिलते हैं। अधिकतर उसका उपयोग प्रकृति चित्रण के निर्मित किया गया है। प्रकृति-चित्रण की जिस उदात्त शैली के दर्शन छायावादी युग में होते हैं, इस काल की रचनाओं में नहीं मिलते हैं।
8. रासो ग्रन्थ-
इस साहित्य के सभी ग्रन्थों के नाम के साथ रासो शब्द जुड़ा हुआ है जो कि “काव्य’ शब्द का पर्याय है। कुछ लोग रासो का सम्बन्ध ‘रहस्य’ या “रसायन” शब्द से जोड़ते हैं, किन्तु यह भ्रामक है। मूल रूप से राम एक छन्द है। जिसका प्रयोग अपभ्रंश के सन्देश रासक में मिलता है। बाद इसका प्रयोग गेय रूपक के अर्थ में होने लगा था।
9. छन्दों का बहुआयामी प्रयोग-
इस साहित्य में छन्दों का जितना बहुमुखी प्रयोग किया है उतना इनके पूर्ववर्ती साहित्य में नहीं। दोहा, तोटक, तोमर, गाहा, गाथा, पट्टरि, आर्या, सट्ट, रोला, उल्लाला, कुण्डलियाँ आदि छन्दों का प्रयोग इस साहित्य में बड़ी कलात्मकता के साथ किया है। इस छन्द विपर्यय में अस्वाभाविकता नहीं है। इस साहित्य का ऐतिहासिक तथा साहित्यिक दोनों दृष्टियों से विशेष महत्त्व है। भाषा विज्ञान की दृष्टि से यह साहित्य अत्यन्त उपादेय है। इसमें वीर तथा श्रृंगार का सुन्दर परिपाक बन पड़ा है।
मूल्यांकन
हिन्दी साहित्य का आदिकाल अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। इसमें भाषा रूप और सम्प्रेषण क्षमता, कथ्य और शिल्प की विविधता देखने को मिलती है। यह वह काल है जिसमें जनजीवन की अनुभूतियों को विविधता के साथ चित्रित किया गया है। आदिकाल की सभी साहित्यिक विशेषताएँ इस साल की उपलब्धि हैं। काव्य रचना को दो महत्त्वपूर्ण शैलियों का प्रयोग भी इसी काल में हुआ था, जिन्हें हम डिंगल और पिंगल के नाम से जानते हैं। सारांश यह है कि आदिकालीन हिन्दी साहित्य अपभ्रंश साहित्य के समानान्तर विकसित हुआ है। इस युग में हिन्दी भाषा जनजीवन से रस लेकर आगे बढ़ी है। जीवन के विविध पक्षों का इस साहित्य का चित्रण हुआ है। यही वह साहित्य है, जिसने परवर्ती कालों के लिए अनेक परम्पराएँ डालीं और भविष्य का पथ निर्मित किया।
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