पौधों में प्रजनन
(REPRODUCTION OF PLANTS)
पौधों में प्रजनन एवं उनके प्रकार – पौधों के द्वारा अपने जैसे नये पौधों को उत्पन्न करना प्रजनन कहलाता है। सभी जीव चाहे वह पादप हो या जन्तु है। अपनी ही जैसी दूसरी संतानों की उत्पत्ति कर उनकी संख्या में निरन्तर वृद्धि करते रहते हैं। अपनी ही जैसी दूसरी संतानों की उत्पत्ति कर पाना ये एक प्राकृतिक जीवों का सर्वप्रथम लक्षण है। अतः “जिस प्रक्रम द्वारा जीव अपनी संख्या में वृद्धि करते हैं उसे जनन (reproduction) कहते हैं।” अतः जनन से ही जीवों में सततता सुनिश्चित होती है।
पौधों में प्रजनन मुख्यत. पाँच प्रकार का होता है-
- अलैंगिक जनन
- लैंगिक जनन
अलैंगिक जनन
(ASEXUAL REPRODUCTION)
इस प्रकार के जनन में नर तथा मादा लिगों की आवश्यकता नहीं होती. इसमें जीव या पादप स्वयं गुणित होता है।
मुख्यत. पाँच प्रकार का होता है-
1. मुकुलन (Budding)-
यीस्ट में मुकुलन होता है। यीस्ट की एक कोशिका में और भी छोटी-छोटी कलिका निकलने लगती है जो टूटकर पितृ कोशिका से अलग हो जाती है और एक नये पौधे को जन्म देती है। ये एक कोशिकीय पौधों में पाया जाता है।
इस प्रकार का अलैंगिक जनन एक कोशिकीय जीव जैसे यीस्ट के शरीर में धरातल से कलिका फूटने या प्रवर्ध निकलने के फलस्वरूप होता है। इस कलिका को मुकुल या बड कहते हैं। इसके साथ ही केन्द्रक का दो केन्द्रकों में विभाजन हो जाता है। इनमें एक केन्द्रक मुकुल में पहुँच जाता है। केन्द्रक युक्त मुकुल फिर अपने जनक के शरीर से विलग होकर नये जीव के रूप में जीवन यापन करता है जो अपने में परिपूर्ण होती है।
2. बीजाणु जनन (Sporogenesis)-
बीजाणु जनन में सामान्यतः सूक्ष्म थैली जैसी बीजाणु-धानियों के भीतर छोटी-छोटी गोल रचनाओं का निर्माण होता है जिन्हें बीजाणु (Spore) कहते हैं । बीजाणु के चारों ओर मोटा कड़ा आवरण होता है जिसमें प्रतिकूल परिस्थितियों में भी कोई हानि नहीं होती है। ये इतने हल्के होते हैं कि वायु द्वारा इनका प्रकीर्णन दूर-दूर तक होता है। अनुकूल परिस्थितियों में बहाल होने पर बीजाणुओं की ऊपरी कवच फट जाती है तथा उसके भीतर की कोशिकीय रचनाएँ बाहर निकलकर वृद्धि कर वयस्क बनकर फिर से जनन कार्यों में रत हो जाती हैं।
3. खण्टन (Pragmentation)-
स्पाइरोगाइरा (रिबन जैसा) में खण्डन दिखाई देता है। जब इनका शरीर किसी कारण से दो या दो से अधिक टुकड़ों में खण्डित हो जाता है. कृत्रिम रूप से भी – तब प्रत्येक खण्ड अपने खोए हुए भागों का- अर्थात् जो भाग अनुपस्थित होते हैं का विकास कर पूर्ण नये जीव (sparogyra) में बदल जाता है और सामान्य जीवन यापन करता है। वास्तव में इस प्रकार का अलैंगिक जनन पुनरुद्भवन (regeneration) कहलाता है। मुनरुद्भवन वह गुण है जिसके द्वारा जीव अपने खोए हुए भागों को फिर से प्राप्त करते हैं।
4. विखण्डन (Fission)-
एक कोशिकीय जीवों में विखण्डन जनन की सामान्य विधि है, जैसे- जीवाणु, एककोशिकीय शैवाल व अन्य एककोशिकीय जीव, जैसे—अमीबा, पैरामीशियम, युग्लीना आदि। यही एक कोशिकीय जीव अपनी वंश वृद्धि कर विभिन्न रोग फैलाते हैं। विखण्डन सामान्यतः दो प्रकार से होता है-
1. द्विखण्डन विभाजन (Binary Fission)- अलैंगिक जनन की इस विधि द्वारा एक कोशिकीय जीवों में सम्पूर्ण शरीर का ही दो बराबर भागों में विभाजन होता है। सर्वप्रथम एक कोशिका रूपी शरीर वृद्धि कर परिपक्व हो जाता है। इसके बाद केन्द्रक (nucleus) समसूत्री-विभाजन या माइटोसिस (mitosis) द्वारा दो समान संतति केन्द्रकों (daughter nuclei) में बँट जाता है। अंत में कोशिका द्रव्य (cytoplasm) का भी दो बराबर भागों में विभाजन हो जाता है। इस प्रकार दो संतति जीवों (daughter organism) की उत्पत्ति होती है तथा प्रत्येक में एक-एक संतति केन्द्रक भी अवश्य मौजूद होता है। इसी प्रकार सभी एक कोशिकीय जीवों में द्विखण्डन विधि द्वारा अलैंगिक जनन होता है। जैसे— जीवाणु।
2. बहुखण्डन (Multiple Fission)— इस प्रकार के विभाजन या खण्डन को बीजाणुक जनन या स्पारुलेशन (sporulation) अलैंगिक जनन भी कहते हैं। जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियों में एक कोशिकीय जीव अपने पद कोशिकीय रूप को चारों ओर एक कड़ी रचना का निर्माण करते हैं जिसे पुटी या सिस्ट (cyst) कहते हैं। इस पुटी के भीतर केन्द्रक बार-बार विभाजित होता है। इस प्रकार केन्द्रक छोटे-छोटे सतति केन्द्रकों में विभाजित हो जाता है। इसके बाद इन केन्द्रकों के चारों ओर कोशिका द्रव्य का आवरण बन जाता है। इन संतति रचनाओं को बीजाणुक (sporele) कहते हैं। अनुकूल परिस्थिति के लौटने पर पुटी फट जाती है और प्रत्येक बीजाणुक वृद्धि कर अनुजात जीव बनाता है। जैसे— परजीवी प्रोटोजोआ. अमीबा, मलेरियल पैरासाइट इत्यादि में।
5. कायिक प्रवर्धन (Vegetative Propagation)—
कायिक प्रवर्धन अलैंगिक जनन की वह प्रक्रिया है जिसमें विकसित पादप के शरीर का ही कोई भाग उससे विलग एवं परिवर्धित होकर नये पौधे को बनाता है जो अपने जनक पौधे के ही अनुरूप होता है और स्वतन्त्र रूप से जीवन यापन करता है। कायिक प्रवर्धन द्वारा जनन मुख्यतः दो प्रकार का होता है
(I) प्राकृतिक कायिक प्रवर्धन (Natural Vegetative Propagation)—
पौधें के किसी भाग से जब अपने आप कलिका फूटती है और वह परिवर्धित होकर वयस्क पौधा बनकर स्वतन्त्र रूप से जीवन यापन करता है तब उसे प्राकृतिक कायिक प्रवर्धन कहते हैं। इस प्रकार का कायिक प्रवर्धन जड़, तना, पत्ती द्वारा होता है।
(i) जड़ों द्वारा कायिक प्रवर्धन (Vegetative Propagation by Roots)- ऐसे पौधे जो बीज से न उत्पन्न होकर उनकी जड़ों द्वारा नये पौधे में विकसित होते हैं, उन्हें जड़ों का कायिक प्रवर्धन कहते हैं।
कुछ पौधों की अपस्थानिक जड़ें, जैसे— डहेलिया (dahalia), शकरकन्द (sweet potato) में खाद्य पदार्थ के अत्यधिक संचित हो जाने से वे स्थूलित तथा कंदिल (tuberous) हो जाती हैं। ऐसी जड़ों में अनेक अपस्थानिक कलिकाएँ या आँखें (buds) पाई जाती हैं। अनुकूल परिस्थितियों में इन्हीं कलिकाओं (आँखों) से पत्तीयुक्त प्ररोह निकल आता है। जब ऐसी अपस्थानिक जड़ों को भूमि में बो दिया जाता है तब उनसे अनेक नये पौधे उत्पन्न होते हैं।
(ii) तने द्वारा कायिक प्रवर्धन (Vegetative Propagation by Stem) – तनों में कायिक प्रवर्धन मुख्यतः दो प्रकार से होता है-
1.भूपृष्ठीय तनों द्वारा कायिक प्रवर्धन (Vegetative Propagation by Sub Aerial Stems)- कुछ पौधों, जैसे— घास, पुदीना, गुलदाऊदी के तनों से पार्श्व शाखाएँ निकल आती हैं। ये शाखाएँ अपने जनक पौधों से विलग होकर नये पौधों के रूप में विकसित हो जाती हैं। इन पौधों में जब पार्श्व शाखाएँ निकलती हैं तो विभिन्न प्रकार से निकलती हैं। जैसे— स्ट्रोबेरी घास में पृथ्वी के ऊपर-ऊपर तने से पार्श्व शाखा निकलती है और वह अपने कलिका से अपस्थानिक जड़ पृथ्वी के अन्दर तथा वायवीय तना पृथ्वी के ऊपर निकलता है। ऐसे कायिक जनन को उपरिभूस्तारी (runner), पुदीना (mint) और गुलदाऊदी में अंत भूस्तारी (suckers) अर्थात् इनके पौधे में पृथ्वी के अन्दर ही पार्श्व शाखा निकल कर दूसरे पौधे को जन्म देती है।
2. भूमिगत रूपान्तरित तनों द्वारा कायिक प्रवर्धन (Vegetative Propagation by Underground Modified Stems)- तने भूमि के अन्दर रहते हैं व अधिकांशतः भूरे, शल्कीय व भोजन के रूप में खाये जाते हैं।
अनेक पौधों में खाद्य संचय के कारण भूमिगत तने रूपान्तरित हो जाते हैं, जैसे—आलू के कंद, अदरक, केला, हल्दी, केना आदि के प्रकन्द, प्याज, लहसुन, कुमुदनी आदि के शल्क कंद, केसर, कचालू ग्लीडिओलस आदि के घनकंद आदि । उक्त सभी प्रकार के रूपान्तरित तने पत्ती विहीन होकर सुप्तावस्था में पड़े रहते हैं और जनक वार्षिक (perennial) पौधा कुम्हलाकर मर जाता है। अनुकूल परिस्थितियों में इन रूपान्तरित तनों से अनेक वायवीय (aerial) प्ररोह (short) निकल आते हैं। ये प्ररोह फिर वृद्धि कर स्वतन्त्र पौधे बनाते हैं। इस प्रकार रूपान्तरित तनों द्वारा कायिक प्रवर्धन के फलस्वरूप अनेक नये पौधे उत्पन्न हो जाते हैं।
(II) कृत्रिम कायिक प्रवर्धन (Artificial Vegetative Propagation)—
अभी तक आपको प्राकृतिक कायिक प्रवर्धन की जानकारी कराई गई जिसमें मनुष्य के द्वारा न चाहते हुए भी अनुकूल परिस्थितियों में जनक पौधों की जड़ों, तने व पत्ती से नये पौधे विकसित हो ही जाते हैं परन्तु जब बागवानी करने वाले किसान, माली, उद्यान वैज्ञानिक बाग लगाने हेतु पौधों को उत्पन्न करने में अनेक कृत्रिम तरीकों से कायिक प्रवर्धन का प्रयोग करने में कृत्रिम तरीकों से कायिक प्रवर्धन का प्रयोग करते हैं। इस प्रकार के बगीचों और शिशु पौधगृहों या पौधशालायें विकसित करते हैं। कृत्रिम कायिक प्रवर्धन मुख्यतः चार प्रकार के होते हैं-
1. कलम लगाना (Cutting)- कलम लगाना कृत्रिम कायिक प्रवर्धन की सामान्य या सरल विधि है। इस विधि द्वारा जनक पौधे से काटकर अलग किये गये जड़ों, तनों और पत्तियों के टुकड़ों को कलम’ कहते हैं। ये कलमें कुछ इंचों से लेकर एक फुट या इससे भी अधिक लम्बी हो सकती हैं। इन कलमों में कई पर्वसन्धियों पार्श्व कलिकाओं या पत्तियों की उपस्थिति आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है। ऐसे कलमों को जनक पौधे से थोड़ा तिरछा काटते हैं व बालू या श्लभ मृदा (loose soil) में तिरछा गाड़ते हैं। कुछ सप्ताह बाद कलम से अपस्थानिक जड़ें फूटकर निकल आती हैं। इसके बाद पार्श्व कलिकाओं से प्ररोह निकल आते हैं और इस तरह एक कलम बड़ी और विकसित होकर नये पौधों को जन्म देती है। बोगनविलिया, गन्ना, नींबू, नारंगी, अनन्नास आदि। जैसे-गुलाब, कलिकाएँ कॉटे
2. दाब लगाना (Layering) – इस विधि द्वारा कायिक प्रवर्धन में जनक पौधे की ही एक शाखा को नम मिट्टी में दबा देते हैं। जिसे जनक पौधे से अभी अलग नहीं करते हैं। कुछ दिनों बाद शाखा के दबे हुए हिस्से में अपस्थानिक जड़ें आ जाती हैं। तत्पश्चात् इसे जनक पौधे से अलग कर देते हैं और यह एक नये पौधे द्वारा विकसित होता है। दाब प्रवर्धन सामान्यतः चमेली, अंगूर, नींबू, गेंदा में किया जाता है।
3. रोपण (Grafting) – दो तनों के आपस में संबन्धन को रोपण या कलम बंधन (grafting) कहते हैं। इसमें एक पौधे के तने में दूसरे पौधे के तने को काटकर फिटकर एक दूसरे से जोड़ देते हैं। निचला भाग जिसकी जड़ें भूमि में भीतर गड़ी रहती हैं उसे स्कंध (stock) कहते हैं। ऊपरी भाग अर्थात् वाछित पौधे का तना अर्थात् उस पौधे का तना जिसका पौधा हमें तैयार करना है जिसे स्कंध में फिट किया जाता है। उसे कलम या सिऑन (scion) कहते हैं। बागवानी करने वाले माली या उद्यान वैज्ञानिक इसी विधि से वांछित और उन्नत किस्म के पौधों (काष्ठीय पौधों) को तैयार करते हैं। इस प्रकार से तैयार किये गये पौधे स्वस्थ और उन्नत किस्म के होते है और अपेक्षाकृत अधिक फल-फूल देते हैं। इस प्रकार का कृत्रिम कायिक प्रवर्धन अधिकांश फलों वाले पौधे या फूलों हेतु किया जाता है।
4. ऊतक संवर्धन (Tissue Culture) – ऊतक प्रवर्धन कायिक जनन का आधुनिक तरीका है। अनेक पौधों; जैसे-गुलदाऊदी, आर्किड, एसपैरगस आदि में कृत्रिम कायिक प्रवर्धन ऊतक द्वारा भी किया जाता है। इस विधि में एक स्वस्थ वाछित पौधे के अग्रिम भाग से ऊतक का एक छोटा टुकड़ा काटकर अलग कर दिया जाता है। फिर इस ऊतक के टुकड़े को किसी पेट्रीडिश में रखे पोषक पदार्थ (nutrient matter) के घोल में रखा जाता है। अनुकूल स्थितियों अर्थात् उचित तापमान, आर्द्रता आदि में वृद्धि कर यह ऊतक का टुकड़ा एक असंगठित पिण्ड बन जाता है जिसे किण्ड या कैलस (Callus) कहते हैं। इस कैलस को फिर भावी विभाजन हेतु प्रयोग में लाया जाता है। कैलस के एक छोटे भाग को पृथक कर अन्य माध्यम में रख दिया जाता है जो पादपक (plantlet) के विभेदन को प्रेरित करता है। इन पादपकों (planlets) को फिर गमले या मिट्टी में प्रतिरोपित कर दिया जाता है। उचित देखभाल करने से कुछ समय बाद ये पादपक वयस्क, स्वतन्त्र पौधों में विकसित हो जाते हैं जो अपने जनक पौधे के ही समान होते हैं।
कायिक प्रवर्धन के विभिन्न लाभ
- बीजहीन पादप उत्पादन (Production of Seed less Plants), जैसे- अंगूर, नींबू ,नारंगी केला, आम, गन्ना, चेरी, बेला, गुलदाऊदी. गुलाब।
- शीघ फूलन एवं फलन।
- पादप उत्पादन का सस्ता साधन।
- समान अनुवांशिकता पादपों की आबादी तैयार करना।
- वांछित गुणों का परिरक्षण।
हानि-विज्ञान वरदान है तो अभिशाप भी है । क्योंकि बार-बार एक ही प्रकार के गुणों के वंशजों में दुहराये जाने से उनमें अपने वातावरण से अनुकूलन की क्षमता धीरे-धीरे सीमित हो जाती है। इससे ये कमजोर होते जाते हैं। उत्पादन क्षमता तथा रोग निरोधी क्षमता भी धीरे-धीरे कम होने लगती है। ये सब बातें इनमें आनुवांशिक विविधता न होने के कारण ही होती है।
लैंगिक जनन
(SEXUAL REPRODUCTION)
लैंगिक जनन, जनन की वह विधि है जिसमें दो भिन्न लिंग अर्थात् नर और मादा भाग लेते हैं। नर एवं मादा द्वारा अलग-अलग प्रकार के युग्मकों (gametes) की उत्पत्ति होती है। ये युग्मक एक कोशिकीय रचनाएँ होती हैं। नर युग्मक सचल और मादा युग्मक अचल होता है। नर युग्मक आकार में काफी छोटा व संख्या में बहुत सारे होते हैं जिन्हें शुक्राणु कहते हैं। किन्तु मादा युग्मक आकार में बड़ा तथा संख्या में एक या दो तथा इन्हें अण्डाणु (ovum) कहते हैं। नर युग्मक का मादा युग्मक से संगलन होता है इस क्रिया को निषेचन (fertilization) कहते हैं। निषेचन के पश्चात् एक कोशिकीय रचना का निर्माण होता है जिसे युग्मनज (zygote) कहते हैं । यही युग्मनज फिर विभाजित होकर वृद्धि फिर वयस्क जीवन में परिवर्तित हो जाते हैं जो स्वतन्त्र रूप से जीवन यापन करते हैं। उच्च पादपों में सामान्यतः लैंगिक जनन ही होता है।
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