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सम्पर्क भाषा से क्या अभिप्राय है? सम्पर्क भाषा के रूप में हिन्दी का महत्व

सम्पर्क भाषा से क्या अभिप्राय है? सम्पर्क भाषा के रूप में हिन्दी का महत्व
सम्पर्क भाषा से क्या अभिप्राय है? सम्पर्क भाषा के रूप में हिन्दी का महत्व

सम्पर्क भाषा से क्या अभिप्राय है? सम्पर्क भाषा के रूप में हिन्दी का महत्व अथवा  ‘सम्पर्क भाषा जन-जन को एक सूत्र में बाँधती है’ हिन्दी के सन्दर्भ में इस कथन का परीक्षण करिये?

हिन्दी : एक सम्पर्क भाषा के रूप में

डॉ० मलिक मुहम्मद के शब्दों में- “छुटपुट प्रादेशिक विभेदों के होते हुए भी कश्मीर से कन्याकुमारी और कच्छ से कामरूप तक भारतीय संस्कृति की आत्मा एक रही है और इसी के अनुरूप अखिल भारतीय भाषा का निर्माण भी स्वत: होता आया है। संस्कृत प्राकृत और अपभ्रंश काल तक राष्ट्रभाषा के विकास की यह परम्परा अक्षुण्ण रही।” परवर्ती काल में कई कारणों से यह विशिष्ट गौरव हिन्दी को प्राप्त हुआ।”

भारत के हृदय स्थल में व्यवहत हिन्दी अपनी विभाषाओं और बोलियों के सहयोग से अन्य प्रदेशों से किसी न किसी रूप में सम्बद्ध रहा है और सम्पर्क भाषा के रूप में इसका प्रयोग होता रहा है। हिन्दी के इस व्यापक स्वरूप के पीछे कोई आन्दोलन या अभियान नहीं था। एक सरल स्वाभाविक भाषा होने के कारण यह उपजी, पनपी और विकसित हुई है। राष्ट्रीयता के जागरण और देश स्वातंत्र्य हेतु आन्दोलन ने तो इसे अखिल भारतीय रूप ही प्रदान कर दिया। हिन्दी के दो रूपों से एक क्षेत्रीय बोलियाँ और दूसरा उन सब का व्यापक रूप, जिसे सामान्य हिन्दी कहते हैं, हम परिचित हैं। सार्वजनिक क्षेत्र में अपनी ही भाषा का प्रचलन और सामान्य भाषा का अनादर न केवल अव्यवहारिक और सांस्कृतिकहीनता को जन्म देगा बल्कि ऐसी भाषा से वैज्ञानिक उलझने ही पैदा हो जायेगी, जैसी अफ्रीका और अमेरिका के आदिवासियों में पायी जाती है। शिक्षा प्रसार, यातायात सुविधा, महानगरों का विकास, साहित्य वृद्धि रेडियों और सिनेमा का प्रभाव, सैनिक भर्ती, सरकारी नौकरों का स्थानान्तरण एवं सांस्कृतिक चेतना के कारण क्षेत्रीय बोलियों का स्थान जो सामान्य भाषा ले लेती है उसे सम्पर्क अथवा सामान्य भाषा कहते हैं। हिन्दी किसी जाति विशेष की बोली नहीं है, किसी व्यक्ति विशेष की मातृभाषा नहीं है अपितु ये एक सामान्य भाषा है। युग-युगान्तरों से इसके ढाँचे में परिवर्तन अवश्य हुए हैं, रूप अवश्य बदले हैं किन्तु आत्मा से भारतीयों की राष्ट्रीय भावना के विकास का प्रतीक रही है।

हिन्दी के सम्पर्क भाषा या सार्वदेशिक स्वरूप के विकास को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है (अ) स्वतंत्रता आन्दोलन के पूर्व (ब) स्वतन्त्रता आन्दोलन तथा उसके पश्चात् ।

स्वतन्त्रता आन्दोलन के पूर्व

हिन्दी को विभिन्न प्रदेशों में पहुँचाने का श्रेय प्रमुख रूप से तत्कालीन साँस्कृतिक, सामाजिक और धार्मिक परिस्थितियों को दिया जा सकता है। व्यापार सम्बन्धी सम्पर्क भी प्रमुखतः इसी भाषा में होते रहे हैं।

तीर्थयात्रा-भारत में तीर्थस्थानों का विशेष महत्व है। वे तीर्थस्थान हिन्दी प्रदेशों और अहिन्दी प्रदेशों दोनों स्थानों पर स्थित हैं। इन तीर्थ स्थलों या धार्मिक केन्द्रों में वैचारिक आदान-प्रदान की भाषा प्रमुखतः हिन्दी ही रही है। चारों धामों की यात्रा में भी तीर्थयात्री इसी भाषा के सहारे
अपना काम चलाते हैं।

मत प्रचार-समय-समय पर भारत में अनेक मत-सम्प्रदायों को जन्म मिला है। ये मत प्रवर्तक अपने मत के प्रचार के लिये जन भाषा या लोक भाषा को प्रयोग में लाते थे। विशेष रूप से उत्तर भारत में निर्गुण सन्तों, वैष्णव आचायों तथा सूफी सन्तों ने जनभाषा हिन्दी को चुना। निर्गुण सन्तों ने खड़ी बोली (सधुक्कड़ी भाषा) वैष्णव आचार्यों एवं भक्त कवियों ने ब्रज और अवधी तथा सूफी सन्तों ने अवधी, जो उस युग की हिन्दी की लोक भाषायें थीं-के माध्यम से अपने मत का प्रचार-प्रसार किया। हिन्दी के सार्वदेशिक स्वरूप को ग्रहण करने के पीछे भाषागत सरलता के साथ-साथ साहित्य एवं संगीत की दृष्टि से उसकी सम्पन्नता भी है।

व्यापारिक सम्पर्क-मुगल काल से ही अनेक व्यापारिक केन्द्र हिन्दी प्रदेशों में ही स्थित थे- पटना, आगरा, लखनऊ, बनारस, दिल्ली ये बहुत बड़े व्यापारिक केन्द्र थे, जहां देश के विभिन्न भागों से व्यापारी आते थे और वहाँ की जनभाषा हिन्दी का प्रयोग करते थे। दिल्ली की भाषा का प्रभाव सभी प्रदेशों पर पड़ता है। दिल्ली में हिन्दी खड़ी बोली प्रयोग में लाई जाती है
अतएव वह अन्य प्रदेशों में भी जा पहुंची।

स्वतन्त्रता आन्दोलन और उसके पश्चात्

जब भारत में राष्ट्रीय चेतना की लहर उठी और सार्वंदेशिक आन्दोलन को जन्म मिला तब भारत की राष्ट्रीयता के साथ भाषा की अविच्छिन्नता की अवधारणा हुई। इस देश के विचारकों एवं राजनेताओं के मन में यह धारणा दृढ़ हो गई कि आजादी की प्राप्ति के लिए एक सार्वदेशिक भाषा का होना अनिवार्य है और यह स्थान हिन्दी को प्राप्त हो गया।

अहिन्दी भाषियों का योगदान-

सर्वप्रथम श्री केशव चंद्र सेन ने सन् 1873 में कहा था- “इस हिन्दी भाषा को यदि भारतवर्ष की एक मात्र भाषा बनाया जाये तो अनायास ही एकता शीघ्र सम्पन्न हो सकती है।” सन् 1908 में रवीन्द्र नाथ टैगोर ने हिन्दी भाषा का समर्थन इस प्रकार किया है- “यदि हम प्रत्येक भारतीय नैसर्गिक अधिकारों के सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं तो हमें राष्ट्रभाषा के रूप में उस भाषा को स्वीकार करना चाहिये जो देश के सबसे बड़े भाग में बोली जाती है और जिसे स्वीकार करने की सिफारिश महात्मा गाँधी ने हम लोगों से की है। इसी विचार से हमें एक भाषा की भी आवश्यकता है, और वह हिन्दी है।”

इसके अतिरिक्त बंकिम, महात्मा गांधी, दयानन्द सरस्वती, लाला लाजपतराय, सुरेन्द्र नाथ बनर्जी आदि सभी लोगों ने हिन्दी को समर्थन प्रदान किया-आश्चर्य है कि ये सभी महानुभाव अहिन्दी प्रदेशों के थे। जन्म से हिन्दी दिल्ली, मेरठ और उसके आसपास के क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषा थी। फिर यह संतों में पहुँची और कश्मीर से कन्या कुमारी तक और गुजरात से बंगाल तक साध संतों के भक्तों में प्रचलित हुई। सुल्तानों और बादशाहों के दरबार में रही, फिर शहरों में आयी जहाँ व्यापारी, सरकारी कर्मचारी, यात्रियों और पढ़े लिखे लोगों की जुबान पर चढ़ी। तीर्थ, पुरोहितों, पुजारियों की भाषा बनी, दशाब्दियों से रेल के डिब्बों के साथ भारत के कोने-कोने में घूम रही है, सेना में विभिन्न भाषा-भाषी सैनिकों के बीच पारस्परिक विचार विनिमय, सैनिक आदेशों की एक मात्र माध्यम हिन्दी ही है न केवल यही अपितु पिछले दो विश्व युद्धों के दौरान भारतीय सैनिकों के साथ विदेशों में गयी। व्यापारियों के व्यापार विस्तार के साथ ही हिन्दी का भी समुचित विस्तार हुआ है।

जिस देश में अनेक बोलियाँ और भाषाएँ हों वहाँ जन सामान्य को एक सूत्र में पिरोने का कार्य एक सामान्य भाषा ही कर सकती है। हिन्दी बनी बनाई संसर्ग-भाषा होने के कारण भारतीय संघ की सम्पर्क भाषा है। यद्यपि भारत संघ में राष्ट्रीय भाषाएँ अनेक हैं तथापि सर्वसुलभ भाषा हिन्दी ही है। राष्ट्र चेतना के विकास एवं संगठन के पीछे हिन्दी का बहुत बड़ा हाथ रहा है। राष्ट्रव्यापी आंदोलन का माध्यम हिन्दी भाषा ही थी जिसने सारे देश को एक सूत्र में बाँध दिया था। हिन्दी राष्ट्रीय एकता एवं राष्ट्रीय चेतना का साधन बन गयी। इस युग में अनेक बड़ी भाषायें पनपी हैं, छोटी भाषायें बड़ी भाषाओं में लीन हो गयी हैं।

सम्पर्क भाषा शासक और शसित दोनों की ही प्रतिष्ठा के परिचायक होते हैं। शहरी व्यक्ति हिन्दी बोलकर अपनी उदारता एवं अभिजातता का परिचय देना चाहता है और देहात का व्यक्ति जब सभ्य समाज में आता है तो देहाती बोलने में शर्म अनुभव करता है। सामान्य भाषा बोलना सभ्यता, शिक्षा की परिचायक होने के साथ ही भद्र समाज में सम्मान एवं नौकरी, व्यवसाय में सुविधा प्रदान करने वाली होती है, जो जन-जन को सम्पर्क सूत्र में जोड़ती है।

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