समावेशी वातावरण के निर्माण (Creating of Inclusive Environment)
भूमिका (Introduction) – बालकों की शिक्षा का उद्देश्य चाहे वे सामान्य हो अथवा विशिष्ट उन्हें सार्थक, लाभदायक एवं खुशहाल जीवन बिताने योग्य बनाना है। संवैधानिक सिद्धान्तों के निर्माण एवं संशोधनों में विशिष्ट आवश्यकताओं के बालकों की शिक्षा का सदैव ध्यान रखा गया है। भारतीय संविधान के 93वें संशोधन में शिक्षा को मौलिक अधिकार के रूप में स्वीकार किया गया है तथा 6-14 वर्ष के सभी बच्चों का विद्यालयों में शिक्षा ग्रहण करना अनिवार्य बना दिया गया है। इस आयु वर्ग के 22 करोड़ बच्चों में से 2 करोड़ से अधिक बच्चे विशिष्ट शिक्षा आवश्यकताओं की श्रेणी में आते हैं। जनगणना आँकड़े प्रदर्शित करते हैं कि इनमें से केवल 45 प्रतिशत बच्चे ही विभिन्न विद्यालयों में शिक्षा पा रहे हैं।
प्रत्येक बालक किसी न किसी तरह से विशिष्ट होता है लेकिन उसकी विशिष्टता का सामान्यतः की कसौटी पर अधिक विचलन न होने के कारण ये बच्चे सामान्य कहलाते हैं तथा सामान्य विद्यालयों में शिक्षा प्राप्त करते हैं लेकिन इसके साथ ही विशिष्ट गुणों तथा अति विशिष्ट आवश्यकताओं के बच्चों के विषय में तथा उनकी शिक्षा के विषय में दृष्टिकोण में परिवर्तन हो रहा है। असमर्थ अथवा अशक्त बालक अब कृपा दृष्टि एवं सहानुभूति के स्थान पर सम्भावनाओं एवं समर्थन की मांग करते हैं चाहे उसका सम्बन्ध उनकी शिक्षा अथवा व्यवसाय से हो अथवा उनके आत्म-सम्मान तथा सामाजिक स्तर एवं प्रतिष्ठा से हो। अपनी अनेक सीमाओं एवं बेवसी के बावजूद भी वे सम्मान से अच्छे सामाजिक जीवन की चाह रखते हैं।
समावेशी वातावरण (Inclusive Environment)
समावेशी वातावरण में शारीरिक या दैहिक, सामाजिक, संवेगात्मक, शैक्षिक एवं व्यावसायिक आदि महत्वपूर्ण है इनका विस्तार से उल्लेख नीचे किया जा रहा है-
1. शारीरिक या दैहिक वातावरण (Physical Environment) – शारीरिक या दैहिक वातावरण के उन बालकों को शामिल किया जाता है जो शरीर किसी अंग के दृष्टि से आशक्त अथवा बाधित होते हैं। यह दैहिक अपंगता, श्रवण, दृष्टि अथवा गत्यात्मक आदि प्रकार की हो सकती है। बाधिता की तीव्रता अति मंद से प्रचण्ड प्रकार की हो सकती है।
2. सामाजिक वातावरण (Social Environment) – सामाजिक वातावरण के अन्तर्गत विशिष्ट की सामाजिक आवश्यकताएँ उनके मान-सम्मान तथा समाज में उनके सकारात्मक पारस्परिक सामाजिक सम्बन्धों के निर्माण, व्यवस्थापन एवं क्रियान्वयन से जुड़ी हुई होती है, सामान्य रूप से जिनकी पूर्ति नहीं होती है।
3. संवेगात्मक वातावरण (Emotional Environment)- जीवन में संवेगों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है इनकी अत्यन्त कमी एवं अधिकता अथवा बालक के व्यवहार में इनका विचलन अथवा अस्थिरता बालक में असामान्य व्यवहार के लक्षण उत्पन्न करने का पर्याप्त कारण बन सकता है। कोई भी शारीरिक दोष समस्या पैदा नहीं करता जब तक वह व्यवहार में असमर्थता उत्पन्न नहीं करता अथवा उससे बालक को मानसिक प्रतिघात नहीं लगता। कम सुनना अथवा एक आँख से देखना अथवा लंगड़ा होना तब तक दोषपूर्ण नहीं जब तक ये दोष बालक को किसी काम को करने में आशक्त नहीं बनाते। ये सभी बातें संवेगात्मक वातावरण के अन्तर्गत आते हैं।
4. शैक्षिक वातावरण (Educational Environment)- विशिष्ट शारीरिक अवस्थाओं के कारण इन बालकों की शैक्षिक वातवरण सामान्य से भिन्न होती है। जैसे- एक दृष्टिहीन बालक को सीखने के लिए ब्रेल लिपि की सहायता लेना पड़ता। श्रवण बाधित बालक को श्रवण सहायक सामग्री की आवश्यकता होती है।
5. व्यावसायिक वातावरण (Occupational Environment) – शैक्षिक तथा व्यावसायिक वातावरण सह-सम्बन्धित होती है। शिक्षा एक तरह से व्यावसायिक जीवन की तैयारी होती है। लेकिन विशिष्ट बालकों की विशिष्टता उनकी सामान्य शारीरिक एवं गत्यात्मक क्रियाओं को सीमित कर देती है।
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