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अनुरूपित शिक्षण की विशेषताएँ तथा सिद्धान्त

अनुरूपित शिक्षण की विशेषताएँ तथा सिद्धान्त
अनुरूपित शिक्षण की विशेषताएँ तथा सिद्धान्त

अनुरूपित शिक्षण की विशेषताएँ तथा सिद्धान्त (Characteristics and Principles of Simulated Teaching)

अनुकरणीय शिक्षण शिक्षक शिक्षा में एक अभिनय प्रयोग है। इसके द्वारा ही छात्राध्यापक को रुचिपूर्ण विधि से वास्तविक शिक्षण प्रक्रिया के समीप लाया जाता है इसकी प्रमुख विशेषताएँ अग्रलिखित हैं-

1. अभिनय से सम्बन्धित (Related to Role Play)— अनुरूपित शिक्षण की प्रमुख विशेषता यह है कि इसमें छात्राध्यापक को भिन्न-भिन्न रूपों में अपनी भूमिका का निर्वाह करना पड़ता है; जैसे—एक छात्राध्यापक शिक्षक के रूप में अपनी भूमिका का निर्वाह करता है तथा छात्र के रूप में भी अपनी भूमिका का निर्वाह करता है। इस प्रकार वह दोनों स्थितियों का अनुभव करता है।

2. विश्लेषण से सम्बन्धित (Related to Analysis)– अनुकरणीय शिक्षण में विश्लेषण की क्रिया सम्पन्न होती है। इसमें छात्र विभिन्न प्रकार के प्रश्न पूछकर विषय-वस्तु का विश्लेषण करता है। शिक्षक भी आवश्यकतानुसार प्रश्न पूछकर विषय-वस्तु का विश्लेषण करता है। इस प्रकार दोनों पक्षों द्वारा विश्लेषणात्मक प्रवृत्ति को अपनाया जाता है।

3. संश्लेषण से सम्बन्धित (Related to Synthesis)– अनुकरणीय शिक्षण में विभिन्न प्रकार के कथनों, नियमों एवं पदों को जोड़कर सिद्धान्तों की रचना की जाती है। संश्लेषण का कार्य शिक्षक द्वारा सम्पन्न होता है। इसमें शिक्षक विभिन्न प्रकार की बिखरी हुई एवं अव्यवस्थित सामग्री को एक सूत्र में पिरोकर उसे सार्थक रूप में प्रस्तुत करता है।

4. मूल्यांकन की प्रक्रिया (Process of Evaluation) – अनुकरणीय शिक्षण में मूल्यांकन की प्रक्रिया सम्पन्न होती है । यह प्रत्येक छात्राध्यापक को अपने क्रम के अनुसार करनी पड़ती है। जब छात्राध्यापक पर्यवेक्षक के रूप में अपनी भूमिका का निर्वाह करता है तो उसको उस समय मूल्यांकन का कार्य करना पड़ता है। इस प्रकार इसमें मूल्यांकन कार्य भी साथ-साथ सम्पन्न होता है। शिक्षक भी मूल्यांकन का कार्य प्रश्न पूछकर कर सकता है।

5. सामाजिक कौशलों से सम्बन्धित (Related to Social Skill) — अनुरूपित Skill)-3 शिक्षण का प्रमुख सम्बन्ध सामाजिक कौशलों से होता है। इसके द्वारा सामाजिक कौशलों का विकास सरलतापूर्वक किया जा सकता है। सामाजिक अभिनय शिक्षण का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। अतः समाज एवं समाज से सम्बन्धित कुशलताओं के विकास के लिए अनुकरणीय शिक्षण महत्त्वपूर्ण है।

6. रुचिपूर्ण (Interestful) – अनुरूपित शिक्षण में छात्राध्यापकों को प्रशिक्षित करने में किसी प्रकार की कठिनाई का अनुभव नहीं होता है क्योंकि यह सम्पूर्ण प्रक्रिया सामान्य वातावरण में रुचिपूर्ण ढंग से सम्पन्न होता है। इसमें प्रत्येक छात्राध्यापक को प्रत्येक उत्तरदायित्व एवं प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है जो कि छात्राध्यापक के लिए रुचि एवं महत्त्व का विषय होता है । अतः अनुकरणीय शिक्षण रुचिपूर्ण शिक्षण है।

अनुरूपित शिक्षण के सिद्धान्त

अनुरूपित या अनुकरणीय शिक्षण की प्रक्रिया को समझने से पूर्व उसके सिद्धान्तों को समझना अनिवार्य है क्योंकि सिद्धान्तों के आधार पर यह निश्चित किया जाता है कि इसके प्रमुख महत्त्वपूर्ण तथ्य कौन-कौन से हैं? अतः अनुरूपित शिक्षण के सिद्धान्तों को निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है-

1. स्वअनुभव का सिद्धान्त (Principles of self experience) — अनुरूपित शिक्षण में स्वतंत्र अनुभव के सिद्धान्त को आधार माना गया है। इस सिद्धान्त के अनुसार, छात्राध्यापक शिक्षण से सम्बन्धित सभी प्रक्रियाओं का अनुभव जबतक स्वयं नहीं करता, तब तक उसके ज्ञान में वृद्धि नहीं हो सकती है। स्वअनुभव के आधार पर ज्ञान का स्वायित्व होता है और अध्ययन प्रक्रिया में रुचि बनी रहती है। अनुरूपित शिक्षण के माध्यम से छात्राध्यापक को प्रत्येक परिस्थिति का ज्ञान कराया जाता है। इस प्रकार यह समस्त परिस्थितियों का स्वयं अनुभव करता है जो कि उसके ज्ञान को स्थायी बनाने में तथा शिक्षण करने में प्रमुख भूमिका का निर्वाह करती है।

2. स्व-कार्य का सिद्धान्त (Principle of Self- Working)— अनुकरणीय शिक्षण में प्रत्येक छात्र क्रियाशील रहता है। यह प्रत्येक परिस्थिति में स्वयं कार्य करता है और उसका अनुभव करता है। छात्र, शिक्षक एवं पर्यवेक्षक के रूप में उसके पृथक्-पृथक् कार्य होते हैं। स्व-कार्य का सिद्धान्त यह स्वीकार करता है जो कार्य छात्र द्वारा स्वयं किया जाता है, उसको छात्र शीघ्र सीख जाता । अतः अनुकरणीय शिक्षण स्व-कार्य के सिद्धान्त पर आधारित है।

3. पूर्व अभ्यास का सिद्धान्त (Principle of pre-practice) – इस सिद्धान्त के अनुसार किसी वास्तविक परिस्थिति में कार्य करने से पूर्व तथा उस परिस्थिति का पूर्व अभ्यास करने से व्यक्ति वास्तविक परिस्थिति में प्रभावी एवं कुशलतापूर्वक कार्य करता है। दूसरे शब्दों में, वास्तविक शिक्षण करने से पूर्व यदि छात्राध्यापक में उचित कौशलों का विकास कर दिया, जो शिक्षण प्रक्रिया से सम्बन्धित है तो छात्र उचित रूप से शिक्षण कार्य सम्पन्न करेगा। अतः अनुकरणीय शिक्षण वास्तविक शिक्षण करने से पूर्व शिक्षण अभ्यास की प्रक्रिया से सम्बन्धित है। पूर्व अभ्यास के सिद्धान्त को आधार मानकर ही अनुरूपित शिक्षण के स्वरूप को निर्धारित किया गया है।

4. पृष्ठ-पोषण का सिद्धान्त (Principle of Feed-back) — अनुरूपित शिक्षण में शिक्षक को पृष्ठपोषण का पूर्ण अवसर प्राप्त होता । प्रत्येक परिस्थिति में पृष्ठ पोषण से अनुकरणीय शिक्षण को सफल बनाया जाता है। इस सिद्धान्त के अनुसार यह माना जाता है कि पृष्ठ-पोषण के अभाव में शिक्षण प्रक्रिया को सार्थक एवं सफल नहीं माना जा सकता। इसी के आधार पर अनुकरणीय शिक्षण में पृष्ठ-पोषण के सिद्धान्त का पालन किया जाता है। इसमें प्रत्येक छात्राध्यापक को पृष्ठपोषण दिया जाता है।

15. कौशल विकास का सिद्धान्त (Principle of Skill Development)— इस सिद्धान्त के अनुसार छात्राध्यापक में कौशलों का विकास अनिवार्य रूप से होना चाहिए । कौशलों के विकास के अभाव में शिक्षण कार्य पूर्ण रूप से सम्भव नहीं होता। कौशलों के विकास के सिद्धान्त को अनुरूपित शिक्षण में व्यावहारिक रूप प्रदान किया गया है। इसमें सामाजिक कौशलों के विकास का पूर्ण प्रयास किया जाता है।

6. रुचि का सिद्धान्त (Principle of Interest) – इस सिद्धान्त के अनुसार शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में छात्र एवं शिक्षण का रुचि लेना अनिवार्य होता है । यदि छात्र एवं शिक्षकों में रुचि का अभाव होगा तो शिक्षण अधिगम प्रक्रिया सफल नहीं होगी । इस सिद्धान्त का अनुकरण अनुकरणीय कौशल में किया गया है। इसमें छात्राध्यापक को एक विभिन्न परिस्थितियों में अभिनय करने में रुचि बनी रहती है अर्थात् प्रत्येक परिस्थिति में छात्राध्यापक इसमें रुचि लेते हैं। अतः अनुरूपित शिक्षण में रुचि के सिद्धान्त का पालन किया गया है।

7. सुधार का सिद्धान्त (Principle of Modification) – इस सिद्धान्त के अनुसार शिक्षण प्रक्रिया होने से पूर्व शिक्षा का व्यवहार परिमार्जित होना चाहिए। वह प्रत्येक परिस्थिति में शिक्षण प्रक्रिया को प्रभावी बना सके, इसके लिए उसके व्यवहार में अपेक्षित सुधार होना चाहिए। एक छात्र के रूप में, शिक्षक के रूप में तथा पर्यवेक्षक के रूप में उसका व्यवहार परिमार्जित एवं शिक्षण प्रक्रिया के अनुसार होना चाहिए। अनुकरणीय शिक्षण में छात्राध्यापक को उपरोक्त तीनों परिस्थितियों में कार्य करना पड़ता है इससे उसका व्यवहार पूर्ण परिमार्जित होता है।

उपरोक्त सिद्धान्तों को ध्यान में रखकर अनुकरणीय शिक्षण व्यवस्था का निर्माण किया गया है। इन आधारों पर अनुरूपित शिक्षण आधारित है। अनुरूपित शिक्षण के माध्यम से एक शिक्षण में सम्पूर्ण योग्यताओं एवं कौशलों के विकास की सम्भावना व्यक्त की जाती है जो कि शिक्षक प्रक्रिया के लिए आवश्यक होते हैं।

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