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कक्षा-कक्ष में भाषा शिक्षण सिद्धांत

कक्षा-कक्ष में भाषा शिक्षण सिद्धांत
कक्षा-कक्ष में भाषा शिक्षण सिद्धांत

कक्षा-कक्ष में भाषा शिक्षण सिद्धांत (Principles of Language Teaching in Class-Room)

कक्षा-कक्ष में भाषा शिक्षण सिद्धांत- विद्वानों के मतानुसार भाषा शिक्षण की दृष्टि से निम्नलिखित सिद्धांत हो सकते हैं-

1. बोलचाल या अभ्यास का सिद्धांत

विद्यालयों में हिन्दी, अंग्रेजी तथा संस्कृत आदि कई भाषाएँ पढ़ाई जाती हैं। छात्रों को कक्षा-कक्ष में पाठ्य-पुस्तकें पढ़ाकर समझा दिया जाता है। बालक जो भाषा सीखते हैं, उनमें वे कक्षा-कक्ष में वार्तालाप भी करें, इस और कतई ध्यान नहीं दिया जाता है। छात्र कुछ बोलना भी चाहता है, तो उसे डाँट दिया जाता है। मनोवैज्ञानिकों और भाषाशास्त्रियों ने अपने प्रयोगों के आधार पर यह मत व्यक्त किया है कि बोलचाल के द्वारा ही भाषा में प्रवीणता प्राप्त की जा सकती है। कक्षा-कक्ष में छात्रों को बोलने का अधिक-से-अधिक अवसर मिलना चाहिए। प्रश्नोत्तर विधि की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसके द्वारा बोलने का अवसर प्राप्त होता है।

2. व्यक्तिगत भिन्नता का सिद्धांत 

नन (Nunn) ने कहा है- “मैं मैं हूँ और तुम सदा तुम।” इसका अभिप्राय यह है कि एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से भिन्न होता है। विद्यालय में कक्षा-कक्ष में छात्रों में व्यक्तिगत भिन्नताएँ पायी जाती हैं। उनकी योग्यताओं में शारीरिक तथा बौद्धिक क्षमताओं में, सीमाओं में, रुचियों में लागू होती है। उनकी भाषा सम्बन्धी भिन्नताएँ भिन्न-भिन्न होती हैं। कई छात्र लेखन में अधिक प्रवीण होते हैं तो कई छात्र वाचन में महारथ रखते हैं। कुछ छात्र मौखिक अभिव्यक्ति ठीक प्रकार से कर पाते हैं, तो कुछ छात्र लिखित रूप में भाव- प्रकाशन उत्तम ढंग से कर सकते हैं। कुछ छात्र विराम चिह्नों का प्रयोग ठीक प्रकार से नहीं कर पाते है तो कुछ छात्रों में वर्तनी सम्बन्धी अशुद्धियाँ अधिक पायी जाती हैं, जबकि कुछ शुद्ध उच्चारण करने में असमर्थ होते हैं। अतः छात्रों की व्यक्तिगत भिन्नताओं को दृष्टिगत रखकर ही उन्हें शिक्षण प्रदान करना चाहिए। इससे बालकों की कठिनाइयाँ व्यक्तिगत रूप से ठीक होंगी और उनका शिक्षण प्रभावशाली होगा तथा छात्र अविलम्ब ही भाषा में प्रवीणता प्राप्त कर सकेंगे।

3. स्वाभाविकता का सिद्धांत

छात्र-छात्राओं को भाषा की शिक्षा देते समय स्वाभाविकता की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए। परिवार में रहकर बालक पहले पहल अपनी मातृभाषा सीखता है विद्यालय में भी इस बात का प्रयास करना चाहिए कि उसे पहले मातृभाषा में प्रवीण बनाया जाए, फिर उसे अन्य भाषाओं की शिक्षा दी जाए। यदि बालक ‘संज्ञा’ की परिभाषा जानता है तो आंग्ल पढ़ाते समय ‘Noun’ की परिभाषा रटवानी नहीं पड़ेगी। उसे केवल इतना बतलाना ही पर्याप्त होगा कि जो हिन्दी या मराठी में ‘संज्ञा’ है वही आंग्ल में ‘Noun’ है।

परिवार में जब बालक बोलना सीखता है, तो उसका उच्चारण अशुद्ध होता है। वह ‘रोटी’ को ओती’ या ‘लोती’ कहता है। परंतु परिवार के सभी लोग उसके सामने प्रतिदिन ठीक-ठीक उच्चारण करते हैं। फलस्वरूप वह थोड़े समय में ही शुद्ध उच्चारण करता है। विद्यालय में भी इस बात को सामने रखना चाहिए। जब बालक उच्चारण सम्बन्धी अशुद्धियाँ करे तो तुरंत ही उनका निवारण कर उन्हें शुद्ध उच्चारण सिखलाना चाहिए। आमतौर पर विद्यालय में छात्रों को पहले वर्णमाला सिखलाई जाती है, जब वे क्, ख्, ग् आदि निरर्थक ध्वनियों को सीखते हैं। फिर अक्षरों को मिलाकर शब्द सिखलाये जाते हैं । अन्त में शब्दों को मिलाकर वाक्य सिखलाए जाते हैं। यह ढंग बिल्कुल अस्वाभाविक है। परिवार में बालक बोलना सीखता है तो वह पूरे वाक्यों में बोलता है । यह वाक्य एक शब्द का भी हो सकता है। जब शिशु कहता है-‘पानी’ तो तात्पर्य यह है-‘पानी लाओ। इस बात को सामने रखते हुए, मनोवैज्ञानिकों और शिक्षाशास्त्रियों का मत है कि विद्यालय में बालकों को पहले वाक्य सिखलाये जाएँ, फिर शब्द और अन्त में अक्षर यही स्वाभाविक क्रम है।

4. क्रियाशीलता का सिद्धांत

बालक स्वभाव से ही क्रियाशील प्राणी है। वह कभी भी निष्क्रिय नहीं बैठ सकता वह हर समय कुछ-न-कुछ करता ही रहता है । परंतु कक्षा में बालक को निष्क्रिय रूप से बैठने को विवश किया जाता है। भाषा शिक्षण के समय भी इस बात का प्रयास करना चाहिए कि यह क्रियाशीलता बनी रहे । केवल अध्यापक बोलता या लिखता रहे और बालक चुपचाप सुनता रहे यह ढंग ठीक नहीं है।

पढ़ाते समय अध्यापक का प्रश्न पूछना और छात्रों का उत्तर देना, अध्यापक द्वारा बालक को किसी वस्तु या तथ्य का मौखिक वर्णन करने के लिए कहना तथा छात्रों को लिखवाना आदि ऐसे साधन हैं, जिनसे कक्षा में क्रियाशीलता बनी रहती है और विद्यार्थी भाषा का ज्ञान प्राप्त करने में जल्दी ही निपुणता हासिल कर लेते हैं।

5. उत्प्रेरणा या रुचि का सिद्धांत

यदि किसी कार्य को करने के लिए छात्रों को उत्प्रेरित कर दिया जाए तो वे उस कार्य को बड़ी निष्ठा और तत्परता से रुचिपूर्वक से रुचिपूर्वक करेंगे; उदाहरणस्वरूप, यदि खेल के मैदान में कंकर पत्थर हों और छात्रों को इन्हें फेंकने के लिए कहा जाए, तो वे आनाकानी कर सकते हैं परंतु यदि उन्हें कहा जाए कि “देखते हैं कौन सबसे दूर पत्थर फेंकता है” तो बालक उत्प्रेरित हो जायेंगे और इस कार्य को रुचिपूर्वक बड़ी तात्परता से करेंगे।

भाषा – शिक्षण में उत्प्रेरण (Motivation) और रुचि उत्पन्न करने के लिए निम्नलिखित साधन अपनाए जा सकते हैं-

(क) चित्रों का प्रयोग,

(ख) छात्रों के साथ सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार,

(ग) प्रश्नोत्तर विधि अपनाना,

(घ) अच्छा काम करने पर शबाशी और इनाम देना,

(ङ) प्रसंगों और उदाहरणों आदि के द्वारा पाठ को रोचक बनाना,

(च) व्याकरण के पाठ में आगमन विधि का प्रयोग,

(छ) खेल-विधि द्वारा शिक्षण।

6. उपयुक्त क्रम का सिद्धांत

भाषा-शिक्षण प्रदान करते समय उपयुक्त क्रम की ओर विशेष ध्यान दिया जाए। भाषा शिक्षण की दृष्टि से दो बातें बड़ी महत्त्वपूर्ण हैं- (क) अर्थ-ग्राहाता, (ख) भाव प्रकाशन या अभिव्यक्ति।

अर्थ-ग्राह्यता पहली सीढ़ी है और भाव प्रकाशन या अभिव्यक्ति दूसरी सीढ़ी है। छात्रों में अर्थ-ग्राहाता आए, इसके लिए दो बातों का अभ्यास चाहिए-

(i) सुनने का, (ii) पढ़ने का ।

भाव प्रकाशन या अभिव्यक्ति दो प्रकार की हो सकती है- (i) मौखिक भाव प्रकाशन या अभिव्यक्ति, (ii) लिखित रूप से भाव प्रकाशन या अभिव्यक्ति ।

मौखिक अभिव्यक्ति का भाव प्रकाशन प्रथम सोपान है और लिखित अभिव्यक्ति का भाव-प्रकाशन दूसरा सोपान प्रारम्भ में इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि लेखन कार्य से पूर्व मौखिक कार्य करवा दिया जाए।

7. अनुकरण सिद्धांत

बालकों में अनुकरण की प्रवृत्ति कितनी तीव्र मात्रा में पाई जाती है-इस तथ्य से हम सभी भली-भाँति परिचित हैं। भाषा को सीखने में भी यह अनुकरण की प्रवृत्ति बड़ी सहायक है वर्णमाला को सीखना, शब्दों और उनके अर्थों को सीखना तथा पढ़ना एवं लिखना सीखना- इन सभी क्रियाओं में अनुकरण की ही प्रवृत्ति काम करती है।

इस बात का विशेष प्रयास करना चाहिए कि विद्यालय के बालकों को अनुकरण की ठीक दिशा प्राप्त हो । इस सम्बन्ध में सबसे पहले अध्यापक को अपना आदर्श प्रस्तुत करना चाहिए। उसका उच्चारण शुद्ध होना चाहिए तथा उसकी भाषा व्याकरण सम्मत होनी चाहिए। कभी-कभी ऐसे लोगों द्वारा भाषण करवाने चाहिए जो भाषा के पण्डित हों।

8. शिक्षण महावाक्य का शिक्षण सूत्र

शिक्षाविदों और मनोवैज्ञानिकों ने समय-समय पर इस बात पर विचार किया है कि कक्षाध्यापन के लिए किन-किन सिद्धांतों को अपनाया जाए। ऐसे महाकाव्यों या सिद्धांत-सूत्रों का संग्रह सर्वप्रथम हर्बर्ट स्पेन्सर ने किया था। कालान्तर में और भी महावाक्य या सिद्धांत सूत्र, इनके साथ जुड़ते गए। नीचे की पंक्तियों, में इनका संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है-

(1) सरल से कठिन की ओर- इस महावाक्य का यह तात्पर्य है कि अध्यापक सर्वप्रथम विद्यार्थियों के सामने सरल शब्द, सरल वाक्य आदि रखे। फिर धीरे-धीरे अधिकाधिक कठिन करता हुआ अपने कठिनतम उद्देश्य तक पहुँचे।

(2) स्थूल से सूक्ष्म की ओर- व्यक्ति जो भी ज्ञान प्राप्त करता है उसका मूल आधार उसका इन्द्रियजनित अनुभव ही है। इसलिए पहले-पहल बालकों के सामने स्थूल तथ्य प्रस्तुत किए जाएँ। नेत्र-इन्द्रिय, स्पर्श-इन्द्रिय, कर्ण-इन्द्रिय, घ्राण-इन्द्रिय तथा स्वाद-इन्द्रिय से सम्बन्धित पदार्थ, स्थूल पदार्थ, कहलायेंगे। अतः दृश्य-श्रव्य तथा वास्तविक साधनों का प्रयोग करते हुए छात्रों को सूक्ष्म तथ्यों की ओर ले जाना चाहिए।

(3) ज्ञात से अज्ञात की ओर- यदि बालक को दिए जाने वाले नवीन ज्ञान का सम्बन्ध, उसके पूर्ववर्ती ज्ञान के साथ कर दिया जाता है तो वह उसे जल्दी ग्रहण कर लेगा और प्राप्त ज्ञान उसके मस्तिष्क में स्थिर हो जाएगा।

(4) विशेष से सामान्य की ओर- इसका अभिप्राय यह है कि विद्यार्थियों के सामने – पहले विशेष तथ्य रखे जाएँ और फिर उन्हें सामान्य नियमों या सिद्धांतों को प्रस्तुत किया जाए, उदाहरणस्वरूप व्याकरण के पाठों में पहले छात्रों के सामने उदाहरण रखे जाएँ । तत्पश्चात् नियमीकरण या सिद्धांत-निरूपण कराया जाए।

(5) अनिश्चित से निश्चित की ओर – विद्यार्थी जब पाठशाला में आता है तो उसका ज्ञान अनिश्चित या अस्पष्ट होता है। एक कुशल शिक्षक का यह उत्तरदायित्व है कि वह छात्रों के अनिश्चित या अस्पष्ट ज्ञान को निश्चितता तथा स्पष्टता प्रदान करे।

(6) पूर्ण से अंश की ओर- बालक किसी वस्तु को एक पूर्ण इकाई के रूप में देखता है, वह उसे खण्डशः नहीं देखता । कई बार ज्ञान भली-भाँति प्राप्त करने के लिए, उसके खण्ड करने पड़ते हैं। अध्यापक शिक्षा देते समय, छात्र के सामने पहले पदार्थ का पूर्ण रूप रखे, फिर शनैः-शनैः उसके विभिन्न अंगों को स्पष्ट करें।

(7) अनुभव से तर्क की ओर – इस वाक्य का अभिप्राय यह है कि अध्यापक विद्यार्थियों को पहले इन्द्रिय-जनित अनुभव कराए। तत्पश्चात् धीरे-धीरे उन्हें तार्किक क्रम की ओर ले जाए।

(8) ज्ञानेन्द्रियों द्वारा शिक्षा- इसका अभिप्राय यह है कि भाषा शिक्षण का जितना अधिक सम्बन्ध बालकों की ज्ञानेन्द्रियों के साथ रहेगा, उतना ही उसका ज्ञान वास्तविक होगा।

(9) विश्लेषण से संश्लेषण की ओर- जब हम किसी वाक्य या शब्द अथवा भाव – आदि का करते हैं, तो इतना ही पर्याप्त नहीं होता। विश्लेषण के बाद उनका संश्लेषण करके एक सुस्पष्ट भाव या विचार की ओर विद्यार्थियों को उन्मुख किया जाना चाहिए।

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