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पाठ्यक्रम में भाषा का महत्त्व | Importance of Language in Curriculum in Hindi

पाठ्यक्रम में भाषा का महत्त्व
पाठ्यक्रम में भाषा का महत्त्व

पाठ्यक्रम में भाषा का महत्त्व (Importance of Language in Curriculum)

‘पाठ्यक्रम’ शिक्षाशास्त्र का बड़ा रोचक विषय है। कुछ समय पूर्व तक इस शब्द का बड़ा संकुचित अर्थ लगाया जाता था, किन्तु अब हम पाठ्यक्रम में विद्यालय के समस्त अनुभवों को सम्मिलित कर लेते हैं। छात्र कक्षा में या कक्षा से बाहर विद्यालय की सीमा के अंतर्गत किसी स्थल पर जो कुछ अनुभव करता है, वह सब पाठ्यक्रम है। पाठ्यक्रम का एक आवश्यक पक्ष विभिन्न विषयों का अध्ययन-अध्यापन भी है। ज्ञान विज्ञान के अनेकानेक विषय हैं और किसी विषय को छोटा या बड़ा कहना युक्तिसंगत नहीं है। सभी विषयों का अपना महत्त्व है हाँ, यह बात अवश्य है कि कुछ विषयों को हम पहले और कुछ को बाद में पढ़ाना चाहते हैं और कुछ विषयों को देश-काल की आवश्यकता के अनुसार अनिवार्य रूप से और कुछ को वैकल्पिक रूप से पढ़ाना चाहते हैं। ज्ञान-विज्ञान के इस अनेकानेक विषयों को हम विभिन्न भाषाओं के माध्यम से पढ़ते-पढ़ाते हैं। अतः इस अध्याय में भाषाओं को ही विवेचन का विषय बनाया गया है।

आजकल साधारण जनता भी इस बात में रुचि लेने लगी है कि पाठ्यक्रम में किस भाषा को स्थान दिया जाए और किस भाषा स्थान न दिया जाए। भारत के सन्दर्भ में हमारे समक्ष कम-से-कम चार भाषाओं के दावे पेश होते हैं। ये चार भाषाएँ हैं-

(1) मातृभाषा, (2) राष्ट्रभाषा, (3) प्राचीन सांस्कृतिक भाषा, (4) विदेशी भाषा ।

(1) मातृभाषा – एक समय था, जब मातृभाषा की भी भारतीय विद्यालयों में कोई पूछ नहीं थी, किन्तु अब साधारण बुद्धि रखने वाला व्यक्ति भी इस तथ्य को जान गया है कि मातृभाषा का शासन शिक्षा योजना में सर्वोच्च ही हो सकता है, उससे जरा भी कम नहीं। जो व्यक्ति अन्य भाषाओं का पण्डित तो हो, किन्तु निज भाषा को जानता ही न हो, उससे स्वदेश की उन्नति की आशा करना व्यर्थ है।

(2) राष्ट्रभाषा- मातृभाषा के अतिरिक्त राष्ट्रभाषा का भी विशेष महत्त्व है। संसार के जो देश एक भाषा-भाषी हैं, वहाँ जनता की मातृभाषा एक ही होती है। भारत बहुभाषा-भाषी देश है। अतः यहाँ यह आवश्यक नहीं कि मातृभाषा ही राष्ट्रभाषा हो। भारतीय संविधान ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित किया है। हिन्दी-भाषी प्रदेशों में हिन्दी मातृभाषा एवं राष्ट्रभाषा दोनों है, किन्तु अहिन्दी प्रदेशों में मातृभाषाएँ एवं राष्ट्रभाषा भिन्न हैं। अतः समूचे देश की दृष्टि से भारत में दूसरी भाषा राष्ट्रभाषा ‘हिन्दी’ है, जिसका अध्ययन अनिवार्यतः छात्रों को करना है।

(3) प्राचीन सांस्कृतिक भाषा- तीसरी भाषा प्राचीन सांस्कृतिक भाषा है, जिसके पक्ष का समर्थन अनेक व्यक्ति करते हैं। ग्रीक, लैटिन, संस्कृत आदि ऐसी भाषाएँ मानी जाती हैं, किन्तु संस्कृत की स्थिति कुछ भिन्न है। संस्कृत प्राचीन भाषा होते हुए भी मृत नहीं है। इसकी परम्परा अभी भी जीवित है। ग्रीक तथा लैटिन भाषाएँ यूरोप के सामान्य जीवन से उठ चुकी हैं, किन्तु संस्कृत अभी भी भारतीय हिन्दुओं के जीवन में प्रातः से सायं तक क कार्यों में जीवित है। भारत की प्राचीन सांस्कृतिक भाषाएँ मुख्य रूप से संस्कृत, पालि, प्राकृत तथा अपभ्रंश हैं, किन्तु इनमें भी संस्कृत का स्थान अधिक महत्त्वपूर्ण है अत: प्राचीन सांस्कृतिक भाषाओं में संस्कृत के अध्ययन-अध्यापन की ओर ध्यान देना प्रत्येक जागरूक नागरिक का कर्तव्य है।

हिन्दी-भाषी प्रदेशों में संस्कृत का अध्ययन द्वितीय भाषा के रूप में सरलता से अनिवार्य हो सकता है किसी आधुनिक भारतीय भाषा की अपेक्षा हिन्दी-भाषी प्रदेशों में संस्कृत के अध्ययन का अधिक औचित्य है हाँ, अहिन्दी भाषी प्रदेशों में मातृभाषा अथवा राष्ट्रभाषा के साथ सम्बद्ध पाठ्यक्रम के रूप में संस्कृत का अध्ययन अनिवार्य हो सकता है, किन्तु संस्कृत के शिक्षण की व्यवस्था सभी माध्यमिक विद्यालयों में अनिवार्य रूप से होनी चाहिए और इसमें छात्रों की संख्या का बहाना स्वीकृत नहीं होना चाहिए। एक बात और है संस्कृत की वैकल्पिक शिक्षा की व्यवस्था केवल कला संकाय के छात्रों के लिए ही न होकर विज्ञान, प्राविधिक, वाणिज्य और कृषि समूहों के छात्रों के लिए भी होनी चाहिए। अतः विषयों के समूह इस प्रकार बनाये जाएँ कि किसी भी छात्र को वैकल्पिक रूप से संस्कृत पढ़ने में अड़चन न पड़े और वह अन्य विषयों के साथ-साथ इसे भी पढ़ सके।

(4) विदेशी भाषा – चौथी भाषा एक विदेशी भाषा होनी चाहिए। विदेशी भाषाओं में कुछ का महत्त्व कुछ कारणों से अधिक है अंग्रेजी, फ्रेंच, स्पेनिश, रूसी और चीनी भाषाएँ बड़ी ही समृद्ध भाषाएँ हैं इनमें से अंग्रेजी को वरीयता मिलनी चाहिए, किन्तु अन्य भाषाओं की उपेक्षा करने की आवश्यकता नहीं है। अंग्रेजी को वरीयता ऐतिहासिक कारणों से मिलनी चाहिए। कुछ लोग अंग्रेजी को अनिवार्य बनाने के पक्ष में हैं कुछ इसे वैकल्पिक रूप से पढ़ाने को कहते हैं, तो कुछ इसका अध्ययन बिल्कुल समाप्त कर देने को कहते हैं। अंग्रेजी का अध्ययन न तो बिल्कुल समाप्त कर देने की आवश्यकता है और न इसे अनिवार्य बनाने की ही जरूरत है। अंग्रेजी का अध्ययन वैकल्पिक ही होना चाहिए। जो छात्र अंग्रेजी पढ़ने के इच्छुक हों, उन्हें इसे पढ़ने की छूट होनी चाहिए और उन्हें हर प्रकार की सुविधा देनी चाहिए, किन्तु जिन छात्रों की रुचि अंग्रेजी पढ़ने में नहीं है, उन्हें पढ़ाने से कोई लाभ नहीं। इससे न अंग्रेजी का ही भला होगा और न ही उन छात्रों का ही जो बिना रुचि के इसे पढ़ेंगे। उत्तर भारत की अपेक्षा दक्षिण में अंग्रेजी का प्रचलन अधिक है । इस दृष्टि से केरल हिन्दी प्रचार सभा की मासिक पत्रिका के एक अंक का सम्पादकीय देखिए-

“केरल एक ऐसा राज्य है, जहाँ न हिन्दी के प्रति विरोध है, न अंग्रेजी के प्रति। स्कूलों में त्रिभाषा-सूत्र का कार्यान्वयन वर्षों से होता रहा है। इसके अन्तर्गत प्रान्तीय भाषा मलयालम, राष्ट्रभाषा हिन्दी और विदेशी भाषा अंग्रेजी अनिवार्य रूप से दसवीं कक्षा तक सिखायी जाती है। तीनों भाषाओं में परीक्षाएँ ली जाती हैं और मैटिक में उत्तीर्ण होने के लिए तीनों भाषाओं में उत्तीर्णता अनिवार्य मानी जाती है। हिन्दी की अपेक्षा अंग्रेजी को अधिक कालांश और अंक निर्धारित हैं। हिन्दी को भी अंग्रेजी का सा या उससे अधिक स्थान दिलाने की माँग उठती रहती है।

केरल के कालेजों में प्री. डिग्री और स्नातक स्तर पर दो-दो भाषाएँ सीखनी पड़ती हैं। अंग्रेजी अनिवार्य भाषा है दूसरी भाषा के रूप में मलयालम, हिन्दी जैसी भाषाएँ सीख सकते हैं। मलयालम अध्यापकों को इस बात की चिन्ता लगी रहती है कि मलयालम की अपेक्षा अधिकांश विद्यार्थी हिन्दी सीखना पसंद करते हैं। मलयालम को अधिक स्थान दिलाने की भी माँग उठा करती है 1

एम. ए. (हिन्दी) की परीक्षा में बैठने वाले छात्रों की संख्या भी प्रतिवर्ष बढ़ रही है ।

हिन्दी में पी-एच.डी. करने वाले भी बहुत हैं। अकेले केरल से हिन्दी की पाँच पत्रिकाएँ निकलती हैं।

अंग्रेजी माध्यम के स्कूल केरल में अनेक हैं। इन स्कूलों में बच्चों को भेजने में अभिभावक एक प्रकार का संतोष पाते हैं।

राज्य शासन के क्षेत्र में अंग्रेजी का प्रतिस्थापन मलयालम से होता चला आ रहा है। इसमें धीरे-धीरे प्रगति हो रही है।

हिन्दी और अंग्रेजी को केरल की जनता अपनी और देश की प्रगति के लिए समान रूप से आवश्यक मानती है। राष्ट्रीय स्तर पर जिस प्रकार हिन्दी काम आयेगी उसी प्रकार अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अंग्रेजी काम आयेगी। यही आम धारणा है। केरल की जनता न हिन्दी-विरोध के पक्ष में है न अंग्रेजी विरोध के राजभाषा के पद से अंग्रेजी को हटाने के लिए आंदोलन चले हैं अंग्रेजी नामपट्टों और साइन बोर्डों पर कालिख पोत दी गयी तो कभी अंग्रेजी में तैयार किये गये विधेयक विधानसभा में जला दिये गये। इसका यह मतलब नहीं निकलता है कि अंग्रेजी का अध्ययन-अध्यापन सदा के लिए खत्म होने की इच्छा जनता में है।

हाल ही में केरल के कुछ नेताओं और पत्रकारों ने हिन्दी क्षेत्र अंग्रेजी विरोध के विरुद्ध आवाज उठायी है केरल विधानसभा के अध्यक्ष श्री वर्कला वी. राधाकृष्णन ने केरल हिन्दी प्रचार सभा में भाषण देने हुए यह चिन्ता व्यक्त की कि हिन्दी क्षेत्र दक्षिण को भावनाएँ समझे बिना अंग्रेजी विरोधी आंदोलन चलाएँ देश के लिए हितकर नहीं होगा। हिन्दी भाषी क्षेत्र के मुख्यमंत्रियों के इंदौर सम्मेलन के अंग्रेजी विरोधी निर्णय के सन्दर्भ में मलयालम के. एक प्रमुख समाचार पत्र ‘मातृभूमि’ के 28/8/1990 अंक में विख्यात पत्रकार श्री वी. के. माधवन कुट्टी ने यह विचार व्यक्त किया है कि यदि हिन्दीतर भाषा भाषी राज्यों का ऐसा संगठन बने तो क्या होगा। मलयालम के कुछ अन्य समाचार-पत्रों ने भी हिन्दी क्षेत्र के अंग्रेजी विरोधी को देश की एकता के लिए बाधक माना है। इसके पीछे यह आशंका भी है कि केरल के अभ्यर्थियों को अंग्रेजी के माध्यम से परीक्षा देकर अखिल भारतीय सेवाओं में और रोजगार के अन्य क्षेत्रों में प्रवेश पाने में जो आसानी थी, वह अब नष्ट हो जायेगी और हिन्दी भाषियों से वे हिन्दी में समशीर्षता नहीं पा सकेंगे। केरल के कई केन्द्र सरकारी कार्यालयों और राष्ट्रीयकृत बैंकों में हिन्दी अफसर, हिन्दी अनुवादक जैसे पदों पर हिन्दी भाषियों की नियुक्ति जो हुई है उसी से लोगों की इस आशंका को पुष्टि मिलती रही है। भाषा जोडन का साधन हो, तोड़ने का नहीं।

कितनी भाषाएँ पढ़ाई जाएँ– पाठ्यक्रम में कितनी भाषाओं को स्थान मिलना चाहिए ? वस्तुतः प्रत्येक विद्यालय में जितनी अधिक भाषाओं के अध्ययन-अध्यापन की सुविधा मिल सकें उतना ही अच्छा है, किन्तु सभी भाषाओं का अध्ययन अनिवार्य करने का कोई प्रश्न नहीं। अनिवार्य अध्ययन कुछ ही भाषाओं का होना चाहिए, वैकल्पिक अध्ययन कुछ अधिक भाषाओं का हो सकता है। कुछ लोग बालक को केवल एक ही भाषा सिखाने का समर्थन करते हैं। उनके अनुसार बालक को अन्य भाषा सीखने में व्यर्थ ही समय नष्ट करना पड़ता है और वह अन्य भाषा सीखने में प्राय: असमर्थ ही रहता है । इस सम्बन्ध में कनाडा के प्रसिद्ध मस्तिष्क विशेषज्ञ डॉ. पेनफील्ड कथन ध्यान देने योग्य है। उनके अनुसार, “दस वर्ष से नीचे के बालक का मस्तिष्क किशोर के मस्तिष्क भाँति नहीं होता। प्रारम्भिक अवस्था में बालक अपने मस्तिष्क में भाषा की इकाइयों को जमा करता है, जिन्होंने बाद में वह अपने शब्द भण्डार को बढ़ाने में प्रयुक्त करेगा।” डॉ. पेनफील्ड के अनुसार, बालक अनेक भाषाएँ सीखने की सामर्थ्य रखता है। डॉ. पेनफील्ड की बात को पूर्णतः न भी माना जाए, तो भी यह निश्चित ही है कि बालक को दो-तीन भाषाओं को में विशेष कठिनाई नहीं होनी चाहिए।

प्रारम्भिक पाठ्यक्रम में भाषा

अब इस प्रश्न पर विचार कर लिया जाए कि शिक्षा के प्रत्येक स्तर पर किस भाषा को पाठ्यक्रम में स्थान मिलना चाहिए।

प्रारम्भिक विद्यालयों में लोअर प्राइमरी कक्षाओं अर्थात् कक्षा 1, 2, 3 में केवल मातृभाषा का अध्ययन होना चाहिए। प्रथम तीन वर्षों में किसी अन्य भाषा को प्रारम्भ करना ठीक नहीं है। प्रारम्भिक विद्यालय के अंतिम दो कक्षाओं में किसी दूसरी भाषा को प्रारम्भ किया जा सकता है। यह दूसरी भाषा अहिन्दी- प्रदेशों में निश्चित रूप से राष्ट्रभाषा हिन्दी होनी चाहिए और हिन्दी प्रदेशों में संस्कृत के कुछ सरल श्लोकों का परिचय दिया जा सकता है। वैसे अच्छा यही है कि प्रारम्भिक स्तर पर केवल मातृभाषा ही रहे।

हिन्दी साहित्य के पाठ्यक्रम में प्राचीन और नवोदित साहित्यकारों की राष्ट्रीय एकता और आदर्शों से प्राणित करने वाली रचनाओं का संकलन किया जाये। साहित्य की विभिन्न विधाओं कविता, कहानी, निबंध, नाटक, एकांकी, उपन्यास और संस्मरण आदि में अनेक राष्ट्रीय एकता से अनुप्राणित रचनाएँ आज भी उपलब्ध हैं। उनका संकलन कर विद्यालयों में उपलब्ध कराया जाये।

वर्तमान पाठ्यक्रम में प्रश्नोत्तरों की सहायता से राष्ट्रीय एकता का विकास करने का प्रयास किया जाना चाहिए। ऐसे प्रश्नों की सृष्टि कुशल एवं परिश्रमी अध्यापकों की शिक्षण शैली पर निर्भर है।

माध्यमिक विद्यालय में भाषा (Language in secondary School)

पूर्व माध्यमिक स्तर पर हिन्दी-भाषी प्रदेशों में हिन्दी तथा संस्कृत का अध्यापन होना चाहिए. और अहिन्दी-भाषी प्रदेशों में मातृभाषा, हिन्दी तथा संस्कृत का । संस्कृत मातृभाषा और राष्ट्रभाषा का आधारभूत भाषा होगी, अतः इसे तीन भाषाओं का बोझ न समझकर दो ही भाषाओं का भार समझना ठीक होगा। फिर भी उन हिन्दी भाषी प्रदेशों के छात्रों की अपेक्षा कुछ भार तो अधिक पड़ेगा ही, परंतु यह भार अपरिहार्य है। इस तथ्य को भुला देने से ही दक्षिण में भाषा के सम्बन्ध में बड़ा भ्रम फैल हुआ है।

उत्तर माध्यमिक स्तर पर उन्हीं भाषाओं का अध्ययन जारी रहना चाहिए, जिन्हें छात्र, ने पूर्व-माध्यमिक स्तर पर पढ़ा है। हाँ, वैकल्पिक रूप से इस स्तर पर एक विदेशी भाषा का प्रारम्भ कर देना चाहिए। किसी ऐसी विदेशी भाषा का अध्ययन उत्तर माध्यमिक स्तर से पहले करना छात्रों की शक्ति का अपव्यय करना है। इस स्तर पर अंग्रेजी, फ्रेंच या रूसी भाषा का अध्ययन किया जा सकता है। विदेशी भाषाओं में अंग्रेजी को वरीयता मिलेगी, किन्तु कुछ छात्र रूसी या चीनी भाषाएँ भी पढ़ेंगे।

उच्च पाठ्यक्रम में भाषा (Language in higher curriculum)

उच्च स्तर पर किसी भी भाषा को अनिवार्य करने की आवश्यकता नहीं है। कॉलेज एवं विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में योग्यता के लिए अवसर प्रदान करना चाहिए। प्रत्येक भाषा एवं साहित्य का वैकल्पिक रूप से अध्ययन किया जा सकता है, किन्तु सम्पूर्ण उच्च शिक्षा का माध्यम मातृभाषा अथवा राष्ट्रभाषा ही होनी चाहिए। उच्च स्तर के पाठ्यक्रम में अंग्रेजी, संस्कृत व रूसी आदि भाषाएँ पुस्तकालय भाषा के रूप में ही रह सकती हैं। छात्र इन भाषाओं की पुस्तकों को पढ़ सकते हैं, किन्तु भावाभिव्यक्ति का साधन मातृभाषा ही रहेगी। हाँ, यदि किसी छात्र ने अंग्रेजी, संस्कृत, रूसी, फ्रेंच, चीनी आदि भाषाओं में से किसी भाषा के विशेष अध्ययन को ही चुना है और वह उसमें स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त करना चाहता है अथवा उस भाषा एवं साहित्य में अनुसंधान कार्य करना चाहता है, तब तो उसे उस भाषा में भाव ग्रहण की ही नहीं, भावाभिव्यक्ति की भी योग्यता प्राप्त करनी होगी। ऐसी दशा में उस छात्र के लिए शिक्षा एवं परीक्षा का माध्यम मातृभाषा न होकर विशेष भाषा ही होगी।

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