पारिस्थितिकी क्या है ?
परिस्थितिशास्त्रीय पतन का अर्थ है – पर्यावरण के भौतिक संगठकों में जैविक प्रक्रमों विशेषकर मनुष्य की क्रियाओं द्वारा इस सीमा तक हास एवं अवक्रमण हो जाना कि उसे पर्यावरण की स्वतः नियामक क्रियाविधि द्वारा भी सही नहीं किया जा सकता है। पर्यावरण तंत्र की संरचना भौतिक एवं जैविक संगठकों द्वारा होती है। इस तंत्र में भौतिक एवं जैविक प्रक्रम नियामक और संचालक होते हैं तथा सन्तुलित अवस्था में रहते हैं। यदि इस तंत्र के किसी संघटक में कोई परिवर्तन होता है, तो अन्त:निर्मित स्व-नियामक क्रियाविधि द्वारा उसकी क्षतिपूर्ति हो जाती है तथा तंत्र में संतुलन बना रहता है। किन्तु इस तंत्र में मनुष्य ही सर्वाधिक शक्ति-सम्पन्न परिवर्तनकर्ता है। वह अपनी आर्थिक और प्रौद्योगिकीय क्रियाओं द्वारा अपनी विविध आवश्यकताओं की आपूर्ति हेतु पर्यावरण तंत्र के संघटकों में इस सीमा तक परिवर्तन कर देता है कि एक ओर ‘एक नियामक क्रियाविधि’ द्वारा उसकी क्षतिपूर्ति नहीं हो जाती तथा दूसरी ओर वह परिवर्तन जैव समुदाय विशेषकर मानव के लिए प्राणघातक होने लगता है। स्पष्ट है कि पर्यावरण में मानवजन्म असीम परिवर्तनों को परिस्थितिकीय पतन कहते हैं। परिस्थितिशास्त्रीय पतन से परिस्थिति तन्त्र की गुणवत्ता में कमी आती है तथा तन्त्र असन्तुलित हो जाता है, जिससे जैन समुदाय एवं मानव जीवन खतरे में पड़ जाता है। उदाहरण के लिए यदि इन पारिस्थितिकीय तन्त्र के वनों की तेजी से कटाई की जाये, तो वनों का पुनर्जन्म तत्काल नहीं हो पायेगा। फलतः निर्वनीकरण के कारण धरातल का उपक्षव एवं अपरदन होने लगेगा, उर्वर मिट्टी वाही जल द्वारा बह जायेगी, अवसादों के निक्षेपण में नदी की तली उथली होने लगेगी तथा बाढ़ का आवागमन होने लगेगा और वर्षा की कमी से सूखे का प्रकोप बढ़ेगा। इन सबका परिणाम होगा परिस्थितिशास्त्रीय पान आदि और जैव समुदाय का खतरे में पड़ना। स्पष्ट है किजब प्राकृतिक पर्यावरण में मनुष्य के क्रियाकलापों द्वारा इतना अधिक परिवर्तन कर दिया जाता है कि ये परिवर्तन पर्यावरण की लोचकता एवं सहने की क्षमता से अधिक हो जाते हैं, तो पर्यावरण असन्तुलित हो जाता है, जिसे हम परिस्थितिशास्त्रीय पतन कहते हैं।
परिस्थितिशास्त्रीय पतन के कारण
परिस्थितिशास्त्रीय पतन के लिए निम्न कारण उत्तरदायी होते हैं-
(1) जनसंख्या विस्फोट- विश्व की तीव्र जनसंख्या वृद्धि परिस्थितिशास्त्र का प्रमुख व प्रत्यक्ष कारण है। वर्तमान समय में विश्व की कुल जनसंख्या सात अरब के आसपास है। विभिन्न महामारियों पर नियन्त्रण से मृत्यु दर गिरी है। बढ़ती हुई जनसंख्या की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु कृषि भूमि का अधिकाधिक विस्तार किया जा रहा है। प्राकृतिक संसाधनों का बेरहमी से दोहन हो रहा है। नगरीकरण एवं औद्योगीकरण, अत्यन्त उन्नत प्रौद्योगिकी का विकास किया जा रहा है। इससे अनेक परिस्थितिशास्त्रीय समस्याएँ पैदा हो रही हैं और परिस्थितिशास्त्रीय पतन हो रहा है।
(2) धार्मिक कारण – धार्मिक विचारधारा के अन्तर्गत यह माना जाता है कि मानव,प्रकृति तथा अन्य जीवों से श्रेष्ठ है तथा प्रकृति ने प्रत्येक वस्तु को मानव के उपयोग के लिए बनाया है। इसका प्रभाव यह हुआ कि मानव ने प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक विदोहन किया है, जिससे परिस्थितिशास्त्रीय पतन हो गया।
(3) अति विकसित कृषि पद्धतियाँ – विश्व की जनसंख्या तीव्र गति से बढ़ रही है। बढ़ती जनसंख्या की उदर पूर्ति के लिए अधिकाधिक खाद्यात्रों का उत्पादन किया जा रहा है। खाद्यात्रों का उत्पादन बढ़ाने एवं प्रति हेक्टेयर उत्पादन बढ़ाने के लिए अत्यन्त विकसित कृषि तकनीक का प्रयोग किया जा रहा है। कृषि विकास द्वारा उदरपूर्ति की समस्या हल कर ली गयी है, परन्तु उससे हो रही पर्यावरण की क्षति को पूरा नहीं किया जा रहा है। भारत में अधिकाधिक कृषि उत्पादन पाने हेतु कृषि क्षेत्रों का विकास किया जा रहा है। इसके लिए वनों को साफ किया जा रहा है। मिट्टी से अधिक उत्पादन पाने के लिए गहरी कृषि की जाने लगी है। एक ही कृषि क्षेत्र में वर्ष में कई फसलें उगाई जा रही है, ट्यूबवेल से भूमिगत जल निकाला जा रहा है। नदियों पर बाँध बनाकर उससे नहरें निकाली जा रही है। खेती में कीटनाशी दवाओं एवं रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग किया जा रहा है। इनसे भी परिस्थितिशास्त्रीय पतन हुआ।
(4) निर्धनता – निर्धनता सबसे बड़ा पाप है। यही पर्यावरण अवनयन का प्रमुख कारण व परिणाम है। अल्प विकसित व विकासशील देशों में जहाँ निर्धनता अधिक है, वहाँ के लोग अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पर्यावरण संतुलन को बिना ध्यान में रखे संसाधनों का अन्धाधुन्ध विदोहन करते हैं, जिससे परिस्थिति का पतन हो रहा है।
(5) अशिक्षा, अज्ञानता एवं पर्यावरण अबोधता – अशिक्षा, अज्ञानता तथा पर्यावरण बोध का अभाव पर्यावरण संकट उत्पन्न करने में सहायक हो रहे हैं। जिस देश में शिक्षित लोग रहते हैं, वे ऐसा कोई कार्य नहीं करते, जिससे परिस्थितिशास्त्रीय संकट बढ़े। यदि ऐसे लोगों से कोई गलती हो जाती है, तो भूल का ज्ञान हो जाने पर उसे सुधारने का प्रयास करते हैं। जिन देशों में शिक्षा का प्रसार है, वहाँ के लोग समाचार माध्यमों से पर्यावरण में हो रहे परिवर्तनों से अवगत होते रहते है। यदि उन परिवर्तनों से कुपरिणाम होने की सम्भावना रहती है, तो वे जनमानस तैयार कर इसका विरोध करने लगते हैं।
(6) आर्थिक विकास में असमानता – विश्व में अन्तर्राष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय दोनों ही स्तरों पर आर्थिक विकास में असमानता पाई जाती है। जो लोग आर्थिक विकास के सभी लाभों से वंचित है,वे परिस्थितिशास्त्रीय पतन की न तो चिन्ता करते हैं और न पर्यावरण विकास योजनायें तथा पर्यावरण विकास कार्यक्रमों में कोई भागीदारी निभाते हैं। फलत: विकास योजनायें तथा पर्यावरण विकास कार्यक्रम असफल सिद्ध हो रहे हैं। इस आर्थिक असमानता की खाई को कम करने के लिए अल्प विकसित व विकासशील देश विकसित देशों से कर्ज लेते हैं और इस कर्ज की अदायगी के लिए विविध संसाधनों का निर्दयतापूर्ण विदोहन कर रहे हैं, जिससे परिस्थितिशास्त्रीय पतन बढ़ता जा रहा है।
(7) असीमित खनन – भूगर्भ में पड़े खनिजों का असीमित खनन किया जा रहा है। इस खनन कार्य से एक तरफ भूपटल ऊँचा-नीचा हो रहा है तो दूसरी तरफ खनन के समय निकले धूलिसे वायुमण्डल प्रदूषित होता जा रहा है। वर्तमान समय में खुली विधि से कोयला का खनन किया जा रहा है। फलत: वहाँ के लोगों को अन्यत्र स्थानान्तरित होना पड़ रहा है तथा उससे निःसृत कोयले की धूल से वायु अशुद्ध हो रही है और उससे अनेकों प्रत्यक्ष कुप्रभाव मानव स्वास्थ्य, कृषि-भूमि, वनस्पति, मिट्टी, भूमिगत जल इत्यादि पर पड़ रहे हैं।
(8) उच्च भौतिक जीवन स्तर – आदिकाल से मानव की भौतिक आवश्यकतायें अति न्यून थीं, लेकिन औद्योगिक क्रान्ति के साथ ही उच्च भौतिक आवश्यकतायें बढ़नी प्रारम्भ हो गयीं। 20वीं शताब्दी में मानव की भौतिक आवश्यकतायें इतनी बढ़ गयी कि उनकी पूर्ति के लिए संसाधनों का शोधन अधिकाधित होने लगा, जिससे परिस्थितिशास्त्रीय संकट गहराता जा रहा है।
(9) अति आधुनिक प्रौद्योगिकी – वर्तमान में अति आधुनिक प्रौद्योगिकी के विकास ने प्राकृतिक संसाधनों के शोषण को और भी अधिक बढ़ा दिया है। जलवायु में परिवर्तन, आणविक विस्फोटों के दुष्प्रभाव, आणविक संयंत्रों में रिसाव व विलासी सामग्रियों का उत्पादन,जहरीले अपशिष्ट पदार्थ, बाँधों का निर्माण आदि भी परिस्थितिशास्त्रीय पतन में सहायक है।
(10) नगरीयकरण – किसी देश की कुल जनसंख्या में नगरीय जनसंख्या के अनुपात को या इस अनुपात के बढ़ने की प्रक्रिया को नगरीकरण कहते हैं। इस प्रकार नगरीकरण एक प्रक्रिया है, जिसके द्वारा ग्रामीण जनसंख्या एक नगरीय जनसंख्या में परिवर्तित हो जाती है। फलत: नगरीय जनसंख्या का अनुपात बढ़ जाता है।
(11) औद्योगीकरण – यह पर्यावरण अवनयन का प्रमुख कारण है। सर्वप्रथमसन् 1860 मेंइंग्लैण्ड में औद्योगिक क्रान्ति के साथ औद्योगीकरण प्रारम्भ हुआ। तत्पश्चात् औद्योगीकरण की लहर संयुक्त राज्य कनाडा, पश्चिमी यूरोपीय देशों, जापान इत्यादि में पहुँची। वर्तमान समय में औद्योगीकरण की प्रवृत्ति विश्व के छोटे-छोटे देशों तक पहुँच गयी है। विकसित देशों में औद्योगीकरण चरम सीमा पर पहुँच गया है, जिससे संसाधनों के अत्यधिक विदोहन व औद्योगिक उत्पादनों में वृद्धि के कारण परिस्थितिशास्त्रीय पतन हुआ है।
परिस्थितिशास्त्रीय पतन की रोकथान के उपाय
परिस्थितिशास्त्रीय पतन राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय समस्या है, जिसकी ओर सन् 1960 के दशक में विश्व का ध्यान गया। परिस्थितिशास्त्रीय पतन की ओर ध्यान आकृष्ट करने में लीमिट ऑफ ग्रोथ और ‘अर्थडे’ जैसी पुस्तकों का विशेष योगदान है जिनमें यह स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है कि यदि परिस्थितिशास्त्रीय पतन इसी प्रकार बढ़ता गया, तो निश्चय ही मानव का अस्तित्व समाप्त हो जायेगा। पर्यावरण पतन के प्रति विश्वव्यापी जागरुकता के कारण यूनेस्को ने सन् 1968 में मानव व पर्यावरण’ की समस्याओं का अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अनुसन्धान करने के लिए निश्चत किया जिसके अन्तर्गत सन् 1969 में पेरिस में एक सम्मेलन आयोजित हुआ, जिसमें विश्व के 80 वैज्ञानिकों ने भाग लिया। सन् 1971 से 25 देशों की एक अन्तर्राष्ट्रीय समन्वय समिति का गठन किया गया, जिसकी बैठक नवम्बर सन् 1971 में हुई। पुन: 5 जून से 16 जून 1972 में स्टाकहोम (स्वीडेन) में संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वावधान में ‘मानव व पर्यावरण पर विश्व सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसके निर्णयानुसार पर्यावरण संरक्षण हेतु यूनाइटेड नेशन्स इवाइरन्मेंन्ट प्रोग्राम’ (यूएन0ई0पी0) की स्थापना हुई और नैरोबी (केन्या) में इसका सचिवालय स्थापित किया गया। भारत में भी (एन0सी0ई0पी0टी0) नामक समिति का गठन किया गया। जिसका वर्तमान नाम (एनआई0सी0पी0) कर दिया गया है। भारत में पर्यावरण मन्त्रालय की स्थापना की गयी। इस प्रकार भारत में भी परिस्थितिशास्त्रीय समस्याओं की ओर ध्यान दिया गया है।
परिस्थितिशास्त्रीय पतन को निम्नलिखित उपायों द्वारा रोका जा सकता है-
(1) तीव्र जनसंख्या वृद्धि को नियन्त्रित करना।
(2) वन विनाश रोकना तथा वनारोपण करना।
(3) अनियोजित नगरीकरण को नियन्त्रित करना।
(4) प्रदूषण, रहित प्रौद्योगिकी का विकास।
(5) प्राकृतिक संसाधनों का विवेकपूर्ण विदोहन।
(6) रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशक दवाओं, शाकनाशी, रोगनाशी रसायनों का न्यूनतम प्रयोग।
(7) ओजोन परत को क्षयकारी क्लोरोफ्लोरोकार्बन तथा हैलोजन रसायनों से उत्पादन तथा उपभोग पर नियन्त्रण।
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