कबीरदास की भक्ति भावना पर प्रकाश डालिए। (Kabir ki bhakti-bhavna)
कबीर चाहे निर्गुण ब्रह्म के उपासक रहे हों, चाहे रहस्यवादी, पर कबीर मूलतः भक्त थे। उनका हृदय भक्त का हृदय था। कबीर के भक्त होने का सबसे बड़ा प्रमाण उनका स्वामी रामानन्द से दीक्षा लेना था। रामानन्दजी वैष्णव आचार्य थे और सबको राम नाम का मंत्र देते थे। उन्होंने कबीर को नीच जाति जुलाहा होने के कारण शिष्य नहीं बनाया तो कबीर गंगा घाट की उन सीढ़ियों पर जाकर रात में सो रहे, जहाँ स्वामी रामानन्द स्नान करने को आते थे। अंधेरे में उनका पैर कबीर के ऊपर पड़ गया तो उनके मुख से ‘राम’ शब्द निकल पड़ा। कबीर ने उसी गुरु मंत्र मान लिया। यह किवदन्ती है, तब भी कबीर का अपने आपको वैष्णव स्वीकार करना और वैष्णवों की प्रशंसा करना उन्हें भक्त सिद्ध करता है। कबीर ने अपने दो ही साथी स्वीकार किया है –
मेरे संगी दुइ जनाँ इस वैस्नो इक राम।
उस समय वैष्णवों का सबसे अधिक विरोध शाक्तों अर्थात् शक्ति की उपासना करने वालों से था। शाक्तों का तमोगुणी जीवन वैष्णवों के सतोगुणी जीवन से सर्वथा विपरीत था। शाक्तों के गाँव की अपेक्षा वैष्णव की कुटिया को भला बताना कबीर को वैष्णव सिद्ध करता है-
वैस्नों की कुटिया भली, नहिं साखत कर गाम ।
कबीर ने भगवान् का नाम लेने को ही भक्ति और भजन बताया है-
भगति भजन हरि नाँव है, दूजा दुक्ख अपार ।
मनसा वाचा कर्मनां कबीर सुमिरन सार ।।
वैष्णव भक्त होते हैं। भक्ति करने वाला भी भक्त ही होता है। कबीर के राम चाहे दशरथ पुत्र से भिन्न हों-
दशरथ सुत तिहुँ लोक बखाना, राम नाम कर मरम है आना।
पर हरि तो विष्णु का पर्यायवाची है। हरि का भजन करना कबीर को वैष्णव भक्त सिद्ध करता है।
भक्ति के दो भेद हैं-सकाम भक्ति और निष्काम भक्ति । कबीर ने सकाम भक्ति को व्यर्थ और निष्काम भक्ति को देव अर्थात् इष्टदेव से मिलाने वाली बताया है
जब लगि भगति सकामता, तब लगि निरफल सेव ।
कहै कबीर वह क्यों मिलै निहकामी निजदेव ।।
सकाम भक्ति का विरोध और निष्काम भक्ति का समर्थन भी कबीर को भक्त सिद्ध करता है। कबीर का सात्विक जीवन भी उन्हें ज्ञानी दार्शनिक नहीं, भक्त तथा वैष्णव भक्त सिद्ध करता है। वैष्णव हिंसा और मांसाहार के परम विरोधी होते हैं। भोजन की स्वच्छता पर वैष्णव धर्म सबसे अधिक बल देता है। कबीर ने मुर्गी-मुर्गा खाने के आधार पर ही मुसलमानों की पीरों और औलियों को कोसा है-
मुसलमान के पीर औलिया, मुर्गी मुर्गा खाई ।
खाला केरी बेटी ब्याहैं घरहिं में करें सगाई ।।
रात को गाय की हत्या करने वालों का रोजा रखना भी कबीर को व्यर्थ जान पड़ा। कबीर की दृष्टि में खुदा हिंसा से प्रसन्न नहीं हो सकता-
दिन में रोजा रखत हैं, रात हनत हैं गाय ।
है कबीर वह बन्दगी खुसी कैसे खुदाय ।।
पत्ते खाकर जीवन-यापन करने वाली बकरी को मांसाहार के निमित्त मारना कबीर की समझ में नहीं आता था।
बकरी पाती खाति है ताकी काढ़ी खाल।
जे नर बकरी खात हैं तिनके कौन हवाल ।।
कबीर ने भक्ति-भाव और विश्वास के बिना संशय के समूल नाश न होने की बात स्पष्ट शब्दों में स्वीकार की है-
भाव भगति विसवास बिनु कटै न संसइ मूल ।
कहै कबीर हरि भगति बिनु मुकुति नहीं रे भूल ।।
इतने तर्क प्रमाण यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हैं कि कबीर भक्त थे। अतः प्रश्न शेष यह रहता है कि कबीर किस प्रकार के भक्त थे ? कबीर की भक्ति के निम्नलिखित रूप प्राप्त होते हैं-
(1) नाम भजन-नाम भजन को नाम स्मरण भी कहा जा सकता है। नवधा भक्ति के रूप में भक्ति के जो नौ भेद अथवा अंश बताये गये हैं, उनमें नाम कीर्तन दूसरा है। नाम भजन, नाम स्मरण और नाम कीर्तन में कोई अन्तर नहीं है। कबीर ने राम और हरि दो नामों के भजन और स्मरण की बात स्वीकार की है-
मेरा मन सुमिरै राम को मेरा मन रामहि आहि ।
अब मन रामहि वै ब्रह्मा सीस नवावों काहि ।।
हरि भजन की बात और हरि भजन के बिना मुक्ति न मिलने की बात कबीर ने कई साखियों में कही है-
घरि-घरि नौबति बाजती, मैंमल बँधते द्वारि ।
एकै हरि के नाम बिनु गये जनम सब हारि ।।
नाम जप के साथ कबीर ने हृदय की सच्चाई को जोड़ा है। माला हाथ में चल रही है और मन कहीं दूसरी जगह घूम रहा है, इसे कबीर ने स्मरण नहीं माना है
माला तो कर मैं फिर जीभ फिरे मुख माँहि ।
‘मनुआ तो दस दिसि फिरै यह तो सुमिरन नाँहि ।।
कबीर ने भक्तो का नहीं माला जपकर भक्ति का ढोंग करने वालों का खण्डन किया है-
माला फेरत जुग भया गया न मन का फेर ।
कर का मनका डारि दे मन का मनका फेरि ।।
(2) प्रेम भक्ति – कहा जाता है कि कबीर ने ज्ञान की नीरस और दुर्बोध बात को सरस और सुबोध बनाने के लिए आत्मा को पत्नी और परमात्मा को पति का रूपक दिया। वास्तविकता यह है कि यह भावना कबीर की प्रेम प्रधान भक्ति है। कबीर ने स्वयं प्रेम भक्ति में अपना मन भीगने की बात कही है-
अब हरि हूँ अपनौ करि लीनौ ।
प्रेम भगति मेरौ मन भीनौ ।।
प्रेम प्रधान भक्ति का सबसे उत्तम और निर्दोष रूप पति-पत्नी के सम्बन्ध में देखा जाता है। इसीलिए कबीर ने अपने आपको राम की बहुरिया बना लिया था-
हरि मोरे पीय मैं राम की बहुरिया ।
कबीर ने अपने प्रिय को रिझाने का ढंग भी बताया है-
नयनों की करि कोठरी पुतली पलंग बिछाइ ।
पलकों की चिक डारि के पिय को लिया रिझाइ ।।
पतिव्रता स्त्री के समान कबीर न किसी अन्य को देखना चाहते हैं और न अपने प्रिय को किसी को देखने देना चाहते हैं-
नयनां अन्तरि आव तू कहौं कि नयन झँपेउँ ।
ना हौं देखों और को ना तुझ देखन देहुँ ।।
कहीं-कहीं कबीर की यह प्रेम प्रधान भक्ति अश्लीलता को भी स्पर्श कर गई है-
ये अंखियाँ अलसानी प्रिय हो सेज चलौ ।
(3) आत्म-समर्पण-आत्म-समपर्ण का भाव भक्ति की चरम अवस्था है। इस अवस्था में भक्त अपना अस्तित्व भगवान् में मिला देता है। कबीर तो राम के कुत्ते बन गये हैं। इससे बड़ा समर्पण और क्या होगा ?
कविरा कूता राम का मुतिया मेरा नाँव ।
गले राम की जेवरी जित खेंचे तित जाँव ।।
समर्पण भावना के कारण कबीर में अपना कुछ नहीं रह गया था। जो कुछ था, वह उनके स्वामी भगवान का था। फिर कबीर को उसे सब कुछ सौंपने में क्या असुविधा होती ?
मेरा मुझमें कुछ नहीं जो कुछ है सो तोर ।
तेरा मुझ को सौंपते क्या लागत है मोर ।।
(4) शरणागत भावना-भक्त जब तक भगवान् की शरण में नहीं जाता, तब तक उसकी भक्ति-भावना अधूरी रहती है। कबीर ने माधव अर्थात् विष्णु से दया की याचना करते हुए अपनी शरणागत भावना प्रकट की है-
माधव कब करिहौ दाया ।
काम क्रोध अहंकार व्यापै न छूटे माया ।।
हुए कबीर को हरि अर्थात् विष्णु ने स्वीकार कर लिया था शरण में गये अर्थात् कबीर की भक्ति पूर्ण और सफल हो गई थी-
आज हरि हूँ आपनौ करि लीनौं ।
प्रेम भगति मेरौ मन भीनौं ।
(5) निष्काम भक्ति- कबीर की भक्ति निष्काम थी। क्या पत्नी किसी स्वार्थ अथवा कामना से पति की सेवा करती है ? फिर भक्त क्यों किसी कामना अथवा फल की इच्छा से भगवान् की सेवा अथवा भक्ति करेगा ? सकाम भक्ति तो एक प्रकार का सौदा हुआ। मैं तुम्हारी भक्ति कर रहा हूँ, तुम मेरी कामना पूरी करो। कबीर ने सकाम भक्ति को व्यर्थ बताया है और भक्ति को निष्काम भक्ति से प्राप्त होने वाला कहा है-
जब लगि भगति सकामता तब लगि निरफल सेव ।
कहै कबीर वै क्यों मिलै निहकामी निज देव ।।
(6) विरह का अनुभव- जिस प्रकार पत्नी पति के वियोग में व्याकुल रहती है तथा उसके आने की सदा प्रतीक्षा करती है, इसी प्रकार भक्त को भी अपने प्रभु के मिलन के बिना व्याकुल रहकर उनके दर्शन की प्रतीक्षा करनी चाहिए। कबीर ने बहुत दिनों तक अपने राम के आने की प्रतीक्षा की थी-
बहुत दिन की जोबती वाट तुम्हारी राम ।
जिउ तरसै तुझ मिलन ‘कूँ मन नाहीं विसराम ।।
अपने प्रिय की प्रतीक्षा करते-करते कबीर की आँखों की ज्योति मन्द पड़ गई थी और उसका नाम पुकारते-पुकारते उनकी जीभ में छाले पड़ गये थे-
आँखड़ियाँ झाई परी पंथ निहारि निहारि ।
जीभड़ियाँ छाला पड्या राम पुकारि- पुकारि ।।
कबीर को विश्वास था कि रोने से ही उसके हरि उसे मिलेंगे। सबने उस प्रभु को वियोग में रोकर ही पाया है-
हँसि-हँसि कन्त न पाइये, जिन पाया तिन रोइ ।
जो हाँसे ही हरि मिलें तौ न सुहागिनि कोइ ।।
संसार में कबीर ही ऐसे सच्चे भक्त थे जो अपने प्रभु के वियोग में रात भर जागते हुए रोया करते थे। संसार के शेष जन तो पेटभर खाकर सोते रहते थे-
सुखिया सब संसार हैं, खावे और सोवै ।
दुखिया दास कबीर है जागे और रोवै ।।
(7) भक्ति का साधन गुरु सेवा-भक्ति के साधनों में गुरु सेवा सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। गुरु के कबीर को राग का नाम दिया, पर कबीर इसके बदले में गुरु को कुछ नहीं दे सके, क्योंकि राम नाम के समान संसार में कुछ है ही नहीं-
राम नाम के पटंतरै दैवे को कछु नाहिं ।
का दै गुरु सन्तोसिये हौंस रही मन माँहि ।।
(8) सत्संगति – भक्ति भावना के लिए सत्संगति भी आवश्यक है। कबीर ने सत्संगति का महत्त्व स्वीकारते हुए कहा है-
कबीर संगति साधु की वेगि करीजै जाइ।
दुरमति दूरि गँवाइसी देसी सुमति बनाइ ।।
(9) इन्द्रिय संयम-भक्ति के लिए इन्द्रिय संयम बहुत आवश्यक हैं। इन्द्रियों में भी धन पर संयम कठिन है
मैं माता मन मारि रे नान्हाँ करि-करि हीस ।
तब सुख पावै सुन्दरी ब्रह्म झलकै सीस ।।
इस प्रकार सिद्ध होता है कि कबीर सच्चे भक्त थे ओर भक्त के अतिरिक्त कुछ नहीं थे ।
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