वैश्वीकरण के विषय में तर्क
वर्तमान समय में अन्तर्राष्ट्रीय जगत में राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, तकनीकी एवं विज्ञान के क्षेत्र में जिस प्रकार के परिवर्तन हो रहे हैं, उन्होंने वैश्वीकरण को कमोवेश अनिवार्य बना दिया है। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें एक देश एवं उसके विकास को अन्तर्राष्ट्रीय मानकों से देखने का प्रयास किया जाता है। इससे अन्तर्राष्ट्रीय विकास में वृद्धि होती है। यह एकता एवं व्यापार का मार्ग निर्देशन करता है तथा वर्तमान समय की एक स्वाभाविक प्रक्रिया है।
वैश्वीकरण के विपक्ष में तर्क (Arguments against the Globalisation)
अन्तर्राष्ट्रीय संदर्भों में वैश्वीकरण को एक लाभप्रद एवं स्वाभाविक प्रक्रिया माना जाता है, परन्तु आलोचकों का मत है कि यह व्यवस्था धनी देशों के स्वार्थों के लिए निर्धन एवं विकासशील देशों का शोषण करती है। इसके विपक्ष में वे निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत करते हैं-
(1) गैर-लोकतंत्रीय (Non-Democratic)- वैश्वीकरण की प्रक्रिया विशिष्ट वर्ग के हितों को संरक्षण प्रदान करती रही है। बाह्यतः लोकतांत्रिक दिखाई देने के बावजूद भी अपने आन्तरिक स्वरूप में यह प्रक्रिया गैर-लोकतंत्रीय है। श्रम-वेतनों को सीमित करके, गैर योजनाबद्ध प्रभावों के द्वारा एवं कल्याणकारी राज्य की भूमिका को सीमित करके वैश्वीकरण ने धीमे-धीमे लोकतंत्र को निर्बल बना दिया है। इस प्रक्रिया में अल्पसंख्यक व्यापारियों के देशों पर दृढ़ नियंत्रण को प्रोत्साहित किया है। साथ ही बहुसंख्यकों की माँगों के प्रति राज्य के दृष्टिकोण को उपेक्षित बना दिया है।
( 2 ) तृतीय विश्व के देशों की अर्थव्यवस्था की क्षति (Loss of the Economy of Third Wordld Contries)- वैश्वीकरण की प्रक्रिया ने बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को एक नवीन संरक्षणवादी व्यवहार करने की योग्यता प्रदान की तथा इससे समस्त देशों, मुख्यतया तृतीय विश्व के देशों की अर्थव्यवस्था को दुगुनी क्षति होनी शुरू हो गई।
( 3 ) विकसित देशों की विचारधारा (Ideology of Developed Coun tries)- आलोचकों का कथन है कि वैश्वीकरण व्यापारिक कम्पनियों का एक कार्यक्रम है अथवा फिर अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को नियंत्रित करने की विकसित देशों की विचारधारा है। सीमा पार व्यापार एवं निवेश निर्धन देशों के लिये आर्थिक दृष्टि से नुकसानदायक होगा। यह व्यवस्था शक्तिशाली एवं निर्बल दोनों प्रकार के देशों में प्रजातंत्रीय नियंत्रण को क्षीण कर देगी। देशों की आर्थिक व राजनीतिक व्यवस्था पर व्यापार का नियंत्रण स्थापित हो जायेगा।
(4) बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की अनुत्तरदायित्वपूर्ण भूमिका (Irrespon sible Role of Multinational Companies)- वैश्वीकरण की प्रक्रिया के फलस्वरूप बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के विश्व के प्रति उत्तरदायित्व घट रहे हैं तथा इनको उत्तरदायित्वपूर्ण आचरण के लिए मजबूर भी नहीं किया जा सकता। ये लाभ अर्जित करने वाली संस्थायें हैं तथा अपनी उद्देश्य पूर्ति हेतु कुछ भी कर सकती हैं। वैश्वीकरण के नाम पर ये संस्थायें अपनी स्थिति को निरन्तर सुदृढ़ करने में संलग्न हैं। ये कम्पनियाँ जिस देश के पूँजीपतियों के द्वारा संचालित की जाती हैं तथा जिस देश में कार्यरत होती हैं, दोनों ही देशों की राजनीतिक एवं आर्थिक व्यवस्थाओं को भी प्रभावित करती है।
( 5 ) उत्पादकता एवं निवेश में गिरावट (Decrease in Productivity and Investment) – वैश्वीकरण के कारण उत्पादकता एवं निवेश की दरों में कमी आई है। वित्तीय प्रवाह की नवीन व्यवस्था के कारण ब्याज दरें अत्यधिक ऊँची हो गई है। विकसित देशों की औसतन विकास दर 1971-82 में 0.4 से 1983-99 में 4.6% हो गई। ‘आर्थिक सहयोग तथा विकास के लिए संगठन’ (Organisation for Economic Co-operation and Devel opment-OECD) देशों की उत्पादकता प्रगति में सन् 1973 से 1975 के मध्य 75% की कमी आयी है। इन देशों के वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद (GDP) के विकास की दर सन् 1959-70 में 4.8% से कम होकर सन् 1971-74 में 2.8% हो गई। इस प्रकार 42% की गिरावट आई।
( 6 ) पक्षपातपूर्ण अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक समझौते (Partial International Economic Agreement) – अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक समझौते तथा अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं की वित्तीय नीतियाँ विशिष्ट व्यापारी वर्ग की लाभ सिद्धि का साधन बन गये हैं। ‘विश्व व्यापार संगठन’ (WTO), न्यू गैट एवं नाफ्टा (NAFTA) आदि समझौतों ने इसी वर्ग के हितों को महत्त्व प्रदान किया है। वर्तमान में तृतीय विश्व के अनेक देश वित्तीय संकटों का सामना कर रहे हैं तथा उन्हें ऐसे और संकट आने की आशंका बनी हुई है। इस प्रकार वैश्वीकरण ने व्यापारीकरण विशिष्ट वर्गों को आर्थिक व राजनीतिक व्यवस्थाओं पर प्रभावी होने का अवसर प्रदान किया है। वित्तीय समझौते ने सरकारों की भूमिका को सीमित किया है तथा व्यापारिक कम्पनियों के प्रभाव में बढ़ोत्तरी की है।
( 7 ) उत्पादकता वृद्धि में असफल (Unsuccessful in Increasing the Productivity)- वैश्वीकरण की प्रक्रिया उत्पादन की वृद्धि में पूर्णतः असफल रही है। विकसित देश अपने हितों की सुरक्षा के लिये संरक्षणवादी नीतियों को अपनाने में संकोच नहीं करते हैं। वैश्वीकरण के नाम पर ये देश बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हितों की सुरक्षा में संलिप्त रहते हैं। कम विकसित देशों की व्यापारिक कम्पनियाँ बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की सहायक इकाइयों के रूप में कार्य करने के लिए मजबूर हैं।
(8) वित्तीय तरलता (Financial Fickleness)- वैश्वीकरण की एक अन्य विशेषता वित्तीय तरलता में बढ़ोत्तरी है। विभिन्न कारणों से वित्तीय तरलता में बढ़ोत्तरी है। विभिन्न कारणों से वित्तीय संकट अधिकाधिक खतरनाक एवं चुनौतीपूर्ण होते जा रहे हैं। निजीकरण तथा नियमन व्यवस्था की वृद्धि से सरकार एवं गैर-नियमनकृत वित्तीय शक्तियों के मध्य अन्तर भी बढ़ रहा है। साथ ही विश्व स्तर पर वित्तीय संकट आने की सम्भावनायें प्रबल हो गई हैं।
(9) व्यापारिक समुदायों का राजनीतिक दलों पर प्रभाव (Impact of Trading Communities on Political Parties) – वैश्वीकरण ने चुनावों में राजनीतिक दलों पर व्यापारी समुदाय के प्रभाव को निर्णायक रूप से प्रभावशाली बना दिया है। व्यापारिक वर्गों ने अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं एवं प्रचार माध्यमों के द्वारा सामाजिक लोकतंत्र के समर्थकों को इस प्रकार की नीतियाँ अपनाने के लिए बाध्य किया जो कि उनके हितों की पूर्ति के लिए आवश्यक थीं। विभिन्न देशों में सामाजिक लोकतंत्रीय दलों ने बहुसंख्यकों की अपेक्षाओं के विपरीत ‘नव-उदारवाद’ की स्थापना की। इस प्रकार वर्तमानकालीन लोकतांत्रिक वास्तविक लोकतंत्र नहीं रह गया है। चुनाव अर्थहीन तथा लोकतंत्र निरर्थक हो गये हैं।
( 10 ) आमदनी की असमानतायें (Unequalities of Income) – वैश्वीकरण की प्रक्रिया के फलस्वरूप विशिष्ट कम्पनियों की आय एवं बाजार मूल्यों में तेज गति से वृद्धि हुई। लेकिन विश्व की बहुसंख्या के लिए नतीजे लाभदायक नहीं रहे। विश्व की 20% धनी देशों की जनसंख्या तथा निर्धन देशों की जनसंख्या की आय का अन्तर सन् 1960 में 30:1 से 1995 में 82:1 हो गया तथा तृतीय विश्व की स्थिति और भी दयनीय हो गई। विश्व की जनसंख्या का लगभग आधा भाग 2 डॉलर प्रतिदिन की आय प्राप्त करता है। विश्व में 80 करोड़ लोग भोजन की कमी का शिकार बने हैं। तृतीय विश्व में बेरोजगारी चरम सीमा पर है। एक ओर विशिष्ट वर्ग आर्थिक समृद्ध होता जा रहा है, दूसरी ओर व्यापक स्तर पर निर्धनता पैर पसारे हुए है।
( 11 ) थोपी हुई व्यवस्था (Entrusting System)- आलोचकों का ऐसा मानना है कि वैश्वीकरण प्रजातांत्रिक रूप से स्थापित प्रक्रिया न होकर एक थोपी हुई प्रक्रिया है। व्यापार-उन्मुख होने के कारण यह व्यापारिक उद्देश्यों के लिये व्यापारिक योजनाक्रम के अनुसार संचालित होती रही है। वैश्वीकरण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने में NAFTA (North America Free Trade Agreement) EMU (European Monetary Union) का विशेष योगदान रहा। भारी प्रचार के उपरान्त भी जनता ने इसके विरोध में मत दिया था लेकिन मीडिया प्रचार के कारण अन्ततः यह समझौता पारित हो गया।
वैश्वीकरण को अधिक मानवीय एवं ग्राह्य बनाने हेतु सुझाव
श्वीकरण में विद्यमान दुर्बलताओं के उपरान्त भी इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि वैश्वीकरण एक स्वाभाविक एवं अवश्यम्भावी प्रक्रिया है। अतः आवश्यकता इसे समाप्त करने की नहीं बल्कि इसमें सुधार लाने की है। इस प्रक्रिया में सुधार के लिए निम्नलिखित सुझाव प्रस्तुत किये जाते हैं-
(1) वैश्वीकरण या वैश्वीकरण की प्रक्रिया के नाम पर किये जा रहे कुछ स्थानीय एवं संकीर्ण लक्ष्यों को विश्वस्तरीय आन्दोलनों के माध्यम से नियंत्रित किया जाये।
(2) मुक्त-व्यापार नीतियों को दबावों से स्वतंत्र करके अपनाया एवं क्रियान्वित किया जाये।
(3) विश्व सहयोग में वृद्धि के लिए कार्यरत् विभिन्न क्षेत्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं की अधिक सक्रियता एवं कुशलतापूर्वक कार्य करना चाहिये।
(4) वैश्वीकरण के सम्भावित खतरों को विश्व स्तर पर सामूहिक प्रयत्नों एवं सहयोग के द्वारा समाप्त करने का प्रयत्न किया जाये।
(5) विश्व-स्तर के प्रशासन हेतु नवीन संरचनाओं की स्थापना की जानी चाहिए।
(6), वैश्वीकरण के पुनर्नियमन के द्वारा एक नवीन अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था का विकास किया जाना चाहिये ।
(7) वैश्वीकरण की प्रक्रिया के परिणामस्वरूप राज्यों एवं व्यक्तियों पर होने वाले हानिकारक, सामाजिक, आर्थिक, वातावरणीय एवं सांस्कृतिक प्रभावों का अन्त किया जाये। इस प्रकार वैश्वीकरण को अन्तर्राष्ट्रीय विकास एवं समृद्धि की एक श्रेष्ठ प्रक्रिया के रूप में अनुसरण किया जा सकता है।
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