राजनीति विज्ञान / Political Science

शीत युद्ध का अर्थ | शीत युद्ध की परिभाषा | शीत युद्ध के लिए उत्तरदायी कारण

शीत युद्ध का अर्थ और परिभाषा
शीत युद्ध का अर्थ और परिभाषा

शीत युद्ध का अर्थ 

शीत युद्ध का अर्थ- शीद्ध युद्ध शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग एक अमेरिकी राजनेता ‘बर्नाड वारूच’ ने 16 अप्रैल, 1947 को दिये अपने एक भाषण में किया था, किन्तु इसे लोकप्रिय बनाने का कार्य ‘वाल्डर लिपमैन’ ने शीत युद्ध पर लिखी अपनी एक पुस्तक के माध्यम से किया था। इसमें एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र पर बिना बमों और बन्दूकों की लड़ाई के केवल प्रचार माध्यमों, कागजी बमों तथा अन्य प्रकार के मनोवैज्ञानिक तरीके अपनाकर अपना प्रभुत्व स्थापित करने का प्रयत्न करता है। इस युद्ध में विचारों की लड़ाई होती है, जो पक्ष अपने विचारों को दूसरे पक्ष से श्रेष्ठ तरीके से प्रस्तुत कर देता है वही विजयी होता है।

द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् अन्तर्राष्ट्रीय पटल पर संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ के रूप में दो महाशक्तियाँ उभरी और दोनों ने विश्व में अपना प्रभुत्व स्थापित करने का प्रयास आरम्भ किया। फलतः दोनों महाशक्तियों के मित्रतापूर्ण सम्बन्ध कटुता एवं शत्रुता में बदल गये। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में दोनों महाशक्तियों के मध्य इस तनावपूर्ण स्थिति को अभिव्यक्त करने के लिए शीत युद्ध (Cold War) का नाम दिया गया। शीत युद्ध को पं. नेहरू ने दिमाग का युद्ध एक स्नायु युद्ध (Nerves War) तथा एक प्रचार युद्ध कहा है। शीत युद्ध वास्तव में युद्ध के नर-संहारक दुष्परिणामों से बचते हुए युद्ध द्वारा प्राप्त होने वाले समस्त उद्देश्यों को प्राप्त करने का एक नवीन अस्त्र है। यह एक कूटनीतिक युद्ध है जिसमें विपक्षी देश को विश्व राजनीति में अलग-थलग करने का प्रयास किया जाता है।

शीत युद्ध की परिभाषा

इसे विभिन्न विद्वानों ने निम्न प्रकार से परिभाषित किया है-

“शीत युद्ध शक्ति संघर्ष की राजनीति का मिला-जुला परिणाम है। दो विरोधी विचारधाराओं के संघर्ष का परिणाम है। दो प्रकार की परस्पर विरोधी जीवन पद्धतियों का परिणाम है, विरोधी चिन्तन-पद्धतियों और संघर्षपूर्ण राष्ट्रीय हितों की अभिव्यक्ति है जिनका अनुपात, समय और परिस्थिति के अनुसार एक-दूसरे के पूरक के रूप में बदलता रहा है।”- डॉ. एम. एस. राजन

“शीत युद्ध का अर्थ राष्ट्रों के मध्य तनाव की उस स्थिति से है जिसमें एक पक्ष नसरे पक्ष को कमजोर करने तथा अपनी स्थिति को सुदृढ़ करने का प्रयत्न करता है।परन्तु यह वास्तविक युद्ध की स्थिति से भिन्न है।”— हार्टमैन

“शीत युद्ध पुरातन शक्ति-संतुलन की अवधारणा का नया रूप है। यह दो विचारधाराओं का संघर्ष न होकर दो महाशक्तियों का आपसी संघर्ष है।”

“शीत युद्ध नैतिक दृष्टि से धर्मयुद्ध था- अच्छाइयों के लिए बुराइयों के विरुद्ध सत्य के लिए गलतियों के विरुद्ध और धर्म प्राण लोगों के लिए नास्तिकों के विरुद्ध संघर्ष था।” जॉन फास्टर डलेस

उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि शीत युद्ध में राष्ट्रों के बीच व्याप्त तनाव की एक ऐसी स्थिति होती है जिसमें प्रत्येक राष्ट्र स्वयं को शक्तिशाली कूटनीतिक सम्बन्ध कायम रखते हुए भी एक-दूसरे के प्रति शत्रुभाव रखते हैं और सशस्त्र युद्ध के अतिरिक्त अन्य सभी उपायों से एक-दूसरे को दुर्बल बनाने का प्रयास करते हैं। पं. जवाहरलाल नेहरू के शब्दों में यह दिमागों में युद्ध के विचारों को प्रश्रय देने वाला युद्ध है। इसका उद्देश्य शत्रुओं को अकेला कर देना और मित्रों की संख्या बढ़ाना होता है। यह एक ऐसा कूटनीतिक युद्ध है जो अति-उग्र होने पर सशस्त्र युद्ध का जनक हो सकता है। शीत युद्ध में दोनों ही पक्ष अपने प्रभाव क्षेत्र के विस्तार के लिए सैद्धान्तिक मान्यताओं पर बल देते हुए आर्थिक सहायता, प्रचार, जासूसी, सैनिक हस्तक्षेप, सैनिक गुटबन्दियों तथा प्रादेशिक संगठनों के निर्माण, शस्त्रीकरण आदि सभी सम्भव साधनों का उपयोग करते हैं।

शीत युद्ध के लिए उत्तरदायी कारण

संयुक्त राज्य अमेरिका एवं सोवियत संघ के मध्य शीत युद्ध अचानक नहीं आरम्भ हो गया था और न ही उसके पीछे कोई एकमात्र कारण उत्तरदायी था। दोनों महाशक्तियों के मध्य तृतीय विश्व युद्ध के पूर्व बने मित्रतापूर्ण सम्बन्ध धीरे-धीरे कटु होते गये और अनेक घटनाओं ने उनके बीच तनाव को इतना अधिक बढ़ाया कि अन्ततः शीत युद्ध आरम्भ हो गया। शीत युद्ध के लिए मुख्य रूप से जो कारण उत्तरदायी थे वे निम्न प्रकार हैं-

( 1 ) परमाणु बम का गुप्त रहस्य

संयुक्त राज्य अमेरिका ने परमाणु बम का आविष्कार कर लिया था। उसने सोवियत संघ से इस रहस्य को छिपाये रखा, किन्तु ब्रिटेन एवं कनाडा को इसकी जानकारी थी। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जब अमेरिका द्वारा जापान के हिरोशिमा एवं नागासाकी पर परमाणु बम गिराये गये तो सोवियत संघ को इस रहस्य का पता लगा। अमेरिका की परमाणु रहस्य को गुप्त रखने की इस नीति से सोवियत संघ बहुत क्षुब्ध हुआ और अमेरिका के प्रति संदेह एवं अविश्वास से भर उठा। इससे शीत युद्ध को बढ़ावा मिला।

( 2 ) वैचारिक प्रतिद्वन्द्विता

अमेरिका पूँजीवादी विचारधारा का समर्थक था। वह सोवियत साम्यवादी विचारधारा को स्वतंत्रता एवं विश्व शान्ति के लिए खतरा मानता था। वहीं सोवियत संघ पूँजीवादी विचारधारा को शोषणकारी एवं उप-निवेशवादी विचारधारा मानता था। इसी कारण दोनों महाशक्तियों ने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अपनी विचारधारा का प्रसार करने तथा विरोधी विचारधारा का अवरोध करने के लिए विभिन्न उपायों का सहारा लिया, फलतः दोनों महाशक्तियों के मध्य शीत युद्ध आरम्भ हो गया ।

( 3 ) सोवियत संघ द्वारा बाल्कन समझौते का उल्लंघन

अमेरिका, ब्रिटेन तथा सोवियत संघ के मध्य हुए बाल्कन समझौते के तहत् सोवियत संघ ने ब्रिटिश प्रधानमंत्री चर्चिल के पूर्वी यूरोप के विभाजन के प्रस्ताव को अक्टूबर 1944 में स्वीकार कर लिया था। इस सहमति के तहत ब्रिटेन ने बुल्गारिया तथा रूमानिया में सोवियत प्रभुत्व तथा सोवियत संघ ने यूनान में ब्रिटिश प्रभुत्व को स्वीकार कर लिया था। हंगरी तथा यूगोस्लाविया में दोनों ही देशों के संयुक्त प्रभाव को स्वीकार किया गया था किन्तु युद्ध समाप्त होते ही सोवियत संघ ने बाल्कन समझौते का उल्लंघन करते हुए पाश्चात्य प्रभाव वाले देशों में साम्यवादी सरकारों की स्थापना के प्रयास तेजी से आरम्भ कर दिये। इससे सोवियत संघ एवं अमेरिका के मध्य कटुता बढ़ती गई। और शीत युद्ध को गति प्राप्त हुई।

(4) द्वितीय मोर्चे का मामला

द्वितीय मोर्चे का मामला द्वितीय विश्व युद्ध के समय का है, जब हिटलर के नेतृत्व में जर्मन सेना सोवियत संघ पर आक्रमण करते हुए अन्दर तक घुस आई तो सोवियत संघ ने मित्र राष्ट्रों (अमेरिका व ब्रिटेन) से हिटलर के विरुद्ध दूसरा मोर्चा खोलने का आग्रह किया किन्तु अमेरिका एवं ब्रिटेन ने स्टालिन के इस आग्रह पर ध्यान नहीं दिया। बाद में जब अमेरिका और ब्रिटेन दूसरा मोर्चा खोलने पर सहमत भी हुए तो उन्होंने गलत दिशा का निर्धारण किया। इस प्रकार द्वितीय मोर्चे के प्रश्न पर अमेरिका एवं ब्रिटेन द्वारा जानबूझकर देरी करने की नीति से सोवियत संघ एवं अमेरिका के परस्पर विश्वास को बहुत आघात पहुँचा।

वास्तव में द्वितीय मोर्चे के मामले ने दोनों महाशक्तियों के मध्य शीत युद्ध की पृष्ठभूमि तैयार करने में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। एक सोवियत इतिहासकार जी. दैदांयात्स ने इस घटना पर लिखा, “अमेरिका और ब्रिटेन ने खूब सोच-समझकर तथा जानबूझकर यह देरी की ताकि जर्मनी किसी तरह रूस की साम्यवादी व्यवस्था का काम तमाम कर दे।”

(5) सोवियत संघ द्वारा याल्टा समझौते का उल्लंघन 

अमेरिका, ब्रिटेन तथा सोवियत संघ के मध्य हुए बाल्कन समझौते के तहत सोवियत संघ ने ब्रिटिश प्रधानमंत्री चर्चिल के पूर्वी यूरोप के विभाजन के प्रस्ताव को अक्टूबर 1944 में स्वीकार कर लिया था। इस सहमति के तहत ब्रिटेन ने बुल्गारिया तथा रूमानिया में सोवियत प्रभुत्व तथा सोवियत संघ ने यूनान में ब्रिटिश प्रभुत्व को स्वीकार कर लिया था किन्तु हंगरी तथा यूगोस्लाविया में दोनों ही देशों के संयुक्त प्रभाव को स्वीकार किया गया था किन्तु युद्ध समाप्त होते ही सोवियत संघ ने बाल्कन समझौते का उल्लंघन करते हुए पाश्चात्य प्रभाव वाले देशों में साम्यवादी सरकारों की स्थापना के प्रयास तेजी से आरम्भ कर दिये। इससे सोवियत संघ एवं अमेरिका के मध्य कटुता बढ़ती गई और शीत युद्ध को गति प्राप्त हुई।

(6) सोवियत संघ को पश्चिमी सहायता पर रोक

सोवियत संघ को जर्मन आक्रमण से अपार हानि हुई थी। वह क्षतिपूर्ति की अपनी माँगों के विरोध के कारण पहले ही अमेरिका से नाराज था। लैण्डलीज अधिनियम के तहत पश्चिमी राष्ट्रों से सोवियत संघ को प्राप्त होने वाली सहायता बहुत अल्प थी। इससे सोवियत संघ में असंतोष व्याप्त था, किन्तु युद्ध समाप्त होते ही अमेरिकी राष्ट्रपति टुमेन ने यह अल्प सहायता (कुल सोवियत आवश्यकताओं का केवल 4% ) भी रोक दी, इससे सोवियत संघ को बहुत धक्का पहुँचा निश्चय ही अमेरिका के इस कृत्य ने शीत युद्ध को बढ़ावा दिया।

( 7 ) ईरान से सेना हटाने से सोवियत संघ का इन्कार

द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान सोवियत संघ ने अमेरिका एवं ब्रिटेन की सहमति से उत्तरी ईरान में अपना सैन्य प्रभुत्व स्थापित कर लिया था। 1942 के एक समझौते के अनुसार जर्मनी के आत्मसमर्पण के छः माह के भीतर सोवियत संघ तथा पश्चिमी शक्तियों ने ईरान से अपनी सेनायें हटा लेना स्वीकार किया। समझौते के तहत ब्रिटेन एवं अमेरिका ने ईरान से अपनी सेनायें शीघ्र ही हटा ली किन्तु सोवियत संघ ने ऐसा करने से इन्कार कर दिया। हालांकि बाद में संयुक्त राष्ट्र संघ के हस्तक्षेप से सोवियत सेनायें हटा ली गई किन्तु सोवियत संघ के इस कार्य ने शीत युद्ध को बढ़ावा दिया ।

( 8 ) जर्मनी पर सोवियत दबाव

द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् सोवियत संघ की जर्मन नीति और जर्मनी को अपने प्रभाव में लेने की सोवियत कोशिशों ने भी शीत युद्ध को बढ़ावा दिया। द्वितीय विश्व युद्ध के समय जर्मन आक्रमण के परिणामस्वरूप सोवियत संघ को भारी जन-धन की हानि उठानी पड़ी थी। अन्ततः उसने हानि की क्षतिपूर्ति के रूप में तमाम जर्मन औद्योगिकी मशीनरी को अपने देश ले जाना आरम्भ कर दिया। इतना ही नहीं सोवियत संघ ने बर्लिन की नाकेबंदी करके जर्मन नेताओं एवं जनता को कैद करना आरम्भ कर दिया तथा जर्मन समाजवादी दल का साम्यवादी दल में बलपूर्वक विलय किया। सोवियत संघ के इन दबावकारी कार्यों ने पाश्चात्य देशों को नाराज किया और अमेरिका को जर्मनी को सोवियत प्रभाव एवं दबाव से बचाने के लिए भारी सहायता राशि व्यय करनी पड़ी। इस प्रकार दोनों महाशक्तियों के मध्य शीत युद्ध की उग्रता बढ़ती गई।

( 9 ) सोवियत संघ द्वारा वीटो का बारम्बार प्रयोग

सोवियत संघ सुरक्षा परिषद् को अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं व्यवस्था बनाये रखने वाली संस्था नहीं अपितु पश्चिमी देशों का हित संवर्द्धन करने वाली संस्था मानता था। इसी कारण सोवियत संघ ने पश्चिमी शक्तियों के प्रस्तावों पर बार-बार वीटो का प्रयोग कर उन्हें असफल करना आरम्भ कर दिया। सुरक्षा परिषद् में सोवियत संघ की इस अड़ंगा नीति से पश्चिमी देश विशेष कर अमेरिका अत्यधिक नाराज हुआ। फलतः दोनों महाशक्तियों के मध्य शीतयुद्ध और भी तेज हो गया।

उपर्युक्त कारणों के अतिरिक्त कुछ अन्य कारण भी थे जिनकी शीत युद्ध को बढ़ाने में भूमिका थी-

(i) दोनों महाशक्तियों के राष्ट्रीय हितों में अन्तर।

(ii) सोवियत संघ द्वारा अमेरिका में साम्यवादी गतिविधियों को बढ़ावा देना।

(iii) महाशक्तियों द्वारा शक्ति संघर्ष की राजनीति।

(iv) पश्चिमी देशों की सोवियत संघ विरोधी नीति एवं प्रचार अभियान ।

(v) टर्की पर सोवियत संघ का दबाव।

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