राजनीति विज्ञान / Political Science

दितान्त अथवा तनाव शैथिल्य का अर्थ एवं परिभाषा | दितान्त के कारण

दितान्त अथवा तनाव शैथिल्य का अर्थ एवं परिभाषा
दितान्त अथवा तनाव शैथिल्य का अर्थ एवं परिभाषा

दितान्त अथवा तनाव शैथिल्य का अर्थ एवं परिभाषा

दितान्त अथवा तनाव शैथिल्य का अर्थ (Detente: Meaning and Definitions)- ‘दितान्त’ फ्रेन्च भाषा का शब्द है जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘तनाव में शिथिलता’ (Relaxation of Tensions ) । अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के परिप्रेक्ष्य में ‘दितान्त’ से अभिप्राय सोवियत अमरीकी तनाव में कमी और उनमें दिन-प्रतिदिन बढ़ती हुई मित्रता, सहयोग और शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्त्व की भावना से है।

ऑक्सफोर्ड इंगलिश शब्दकोश के अनुसार, दितान्त दो राज्यों के तनावपूर्ण सम्बन्धों। की समाप्ति (Cessation of strained relation between two states) है।

डॉ. बी. के. श्रीवास्तव के अनुसार, “संयुक्त राज्य अमरीका और सोवियत संघ ने अब शीत युद्ध के संघर्षपूर्ण सम्बन्धों का अवसान करने का निश्च किया जिसे प्रायः दितान्त के नाम से जाना जाता है।

डॉ. जफर इमाम के अनुसार, “पश्चिमी दुनिया में जो अर्थ दितान्त का है, उसे ‘शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व’ शब्द में अभिव्यक्त किया जा सकता है।”

डॉ. ए.पी. राणा के अनुसार, “दितान्त ऐसी प्रक्रिया या प्रवृत्ति है जिसमें एक समय पर दो परस्पर विरोधी प्रवृत्तियाँ- सहयोग और प्रतिद्वन्द्विता- पायी जाती हैं। महाशक्तियों की इस सहयोगी प्रतिद्वन्द्वी (Collaborative-competitive) व्यवहार को उन्होंने ‘कालूपीटिव’ (Collupetive) शब्दावली में अभिव्यक्त किया है। डॉ. राणा के अभिमत में इस सहयोगी प्रतिद्वन्द्वी व्यवहार को चार प्रकार की परिस्थितियों में अभिव्यक्त किया जा सकता है किसी संकट की घड़ी में (Crisis management); विश्व में यथास्थिति बनाये रखने की आवश्यकता (Man agement of the overall international status quo); आर्थिक सहयोग (Economic man agement) और परमाणु अस्त्रों के परिसीमन की आवश्यकता के समय (Management of arms control)।

जार्ज ऐराबाटोब मानते हैं कि दितान्त अन्तर्राष्ट्रीय स्थितियों की नयी वास्तविकताओं से समझौता है। दितान्त का अर्थ स्पष्ट करते हुए प्रो. हरीश कपूर लिखते हैं कि दितान्त सम्बन्धों की व्यवस्था में दोनों महाशक्तियों के आपसी व्यवहार में समझौतावादी रुझान का दायरा बढ़ना (Phe nomenon of increasing accommodation): यूरोपीय महाद्वीप का अब विभाजित न होना अपितु यूरोपीय देशों में व्यापारिक एवं सांस्कृतिक आदान-प्रदान का विस्तार होना (There have been more and more cultural contacts-ranging from sports to Politics) तथा संघर्षपूर्ण एवं विवादास्पद समस्या को द्विपक्षीय एवं बहु-पक्षीय वार्ताओं से निपटाना शामिल है।

अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अधुनातन परिप्रेक्ष्य में दितान्त का अर्थ इस प्रकार से किया जा सकता है- (i) अमरीका तथा पूर्व सोवियत संघ के मध्य शीत युद्ध के बजाय सामंजस्यपूर्ण (Reapproament) सम्बन्धों को दितान्त कहते हैं। (ii) अमरीका तथा पूर्व सोवियत संघ के मध्य मतभेद के बजाय शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व (Peace co-cxistence) के सम्बन्धों को दितान्त कहते हैं। (iii) दितान्त का यह अर्थ कदापि नहीं कि दोनों महाशक्तियों के मतभेद पूर्णतः समाप्त हो गये या उनमें वैचारिक मतभेद नहीं पाये जाते थे या उनमें कोई राजनीतिक, आर्थिक व सैनिक प्रतियोगिता नहीं थी। दितान्त की विशेषता यह थी कि सैद्धान्तिक मतभेदों एवं प्रतियोगिता के बावजूद इसने महाशक्तियों में आर्थिक, वैज्ञानिक एवं तकनीकी सहयोग में बाधा प्रस्तुत नहीं होने दी।

वस्तुतः दितान्त का अर्थ शीत युद्ध की समाप्ति नहीं है। इसका यह अर्थ भी नहीं कि महाशक्तियां अपना वर्चस्व अथवा सर्वोपरिता बनाये रखने में अभिरुचि नहीं रखतीं। दितान्त का सीधा-सादा अर्थ यह है कि महाशक्तियों (अमरीका और पूर्व सोवियत संघ ने न्यूनाधिक रूप से आपसी प्रतिस्पर्द्धा के मानदण्डों को आंशिक रूप से संहिताबद्ध करने का प्रयत्न किया था।

दितान्त के कारण अथवा दितान्त आचरण के निर्धारक तत्त्व

अमरीका और पूर्व सोवियत संघ के सम्बन्धों में यह बुनियादी परिवर्तन क्यों आया कि वे शीत युद्ध से तनाव-शैथिल्य के मार्ग की ओर उन्मुख हुए? इसके निम्नलिखित कारण हैं-

1. दितान्त सम्बन्ध पारस्परिक राष्ट्रीय हितों की पूर्ति करते थे- डॉ. एम. एस. राजन के अनुसार, शीत युद्ध के संघर्षपूर्ण मार्ग से दितान्त के सपाट रास्ते पर चलने का कारण महाशक्तियों के पारस्परिक हितों (Mutual Interests of the Super Powers) में ढूंढ़ा जा सकता है। दोनों महाशक्तियों के नेताओं एवं अभिजन ने यह सोचा कि अस्त्र-शस्त्रों पर धन खर्च करने के बजाय अपने-अपने देश में आम आदमी के भविष्य को सुखद बनाने के लिए धन खर्च करना अधिक लाभकारी है। शीत युद्ध के युग में सोवियत संघ ने खाद्यात्र के क्षेत्र में आत्म निर्भरता को प्राथमिकता नहीं दी और अमरीका ने नीम्रो लोगों के कल्याण के लिए धन खर्च करने में कंजूसी की। इससे दोनों देशों में जन-असंतोष बढ़ा। दितान्त सम्बन्धों से अमरीका और सोवियत संघ की शक्ति और धन अपने नागरिकों की बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति में लगने की गुंजाइश बढ़ी जिससे विश्व शान्ति के स्थायी आधार के पुख्ता होने की सम्भावना बढ़ी।

2. दितान्त सम्बन्ध सोवियत संघ के आर्थिक विकास की आवश्यकताएँ पूरी करता था- दितान्त का एक कारण सोवियत संघ के आर्थिक विकास की आवश्यकता भी तकनीकी ज्ञान के अभाव में सोवियत संघ कृषि के क्षेत्र में आत्म-निर्भर नहीं हो पाया. साइबेरिया में उपलब्ध विशाल गैस भण्डारों का दोहन नहीं कर पाया। सोवियत संघ को अतिरिक्त खाद्य-पदार्थों की अनवरत आवश्यकता रही है जिसे वह अमरीका से सौहार्द्रपूर्ण सम्बन्धों के वातावरण में आसानी से प्राप्त कर सकता था चूँकि अमरीका के पास हमेशा अतिरिक्त खाद्यान्न उपलब्ध रहे हैं। निश्चित ही अमरीकी तकनीकी ज्ञान और सहायता के आधार पर सोवियत विकास को नया आयाम प्राप्त हो सकता था, किन्तु इसके लिए शीत युद्ध की वैमनस्यता को दफनाना आवश्यक था। यह अमरीका के प्रति सह-अस्तित्व एवं माधुर्य की नीति अपनाकर ही सम्भव था। सोवियत नेता पोडगोर्नी के शब्दों में, ‘वस्तुगत तथ्यों’ (Objective Factors) के आधार पर सोवियत संघ चाहता था कि सोवियत-अमरीकी सम्बन्धों से शीत युद्ध के अवशेष समाप्त कर दिये जायें।

3. अमरीकी उद्योगों के लिए कच्चे माल की आवश्यकताएं- अमरीकी नेताओं ने यह महसूस किया कि सोवियत संघ में कच्चे माल के विशाल भण्डार हैं और अमरीकी उद्योगों के लिए उन्हें आसान शर्तों पर प्राप्त किया जा सकता है। निक्सन प्रशासन का यह विश्वास था कि अमरीका और सोवियत संघ की अर्थव्यवस्थाएं अन्तर्राष्ट्रीय बाजार के परिप्रेक्ष्य में एक-दूसरे की प्रतियोगी न होकर पूरक हैं। सोवियत संघ के पास गैस, पेट्रोलियम और क्रोम के विशाल भण्डार हैं। जिन्हें व्यापारिक आधार पर प्राप्त किया जाय तो अन्य देशों पर अमरीकी निर्भरता कम होगी।

4. आणविक शस्त्रों के क्षेत्र में संतुलन- आणविक शस्त्रों के क्षेत्र में असंतुलन का परिणाम था शीत युद्ध और इस क्षेत्र में स्थापित संतुलन (Patity) ने दितान्त सम्बन्धों को विकसित करने में योगदान दिया। प्रारम्भ में संयुक्त राज्य अमरीका आणविक शस्त्रों से सम्पन्न राष्ट्र था और जब सोवियत संघ ने अणु विस्फोट कर लिया तो सोवियत संघ और अमरीका के बीच जो सैनिक असंतुलन था वह समाप्त हो गया एवं दोनों संतुलन की स्थिति में आ गये। अमरीका अब यह महसूस करने लगा कि साम्यवाद के विस्तार को रोकने के लिए सशस्त्र संघर्ष की नीति घातक रहेगी। बर्लिन की घेराबन्दी, कोरिया युद्ध और क्यूबा संकट के समय आणविक शस्त्रों के घातक परिणाम किसी की भी कल्पना के बाहर नहीं थे। आणविक विनाश से भविष्य में बचने के लिए दोनों महाशक्तियों में ‘संवाद’ (Dialogue) प्रारम्भ किये जाने की आवश्यकता थी। दितान्त युग के सम्वादों का ही परिणाम था कि दोनों महाशक्तियों में साल्ट वार्ताएं चलती रहीं और साल्ट 1 तथा साल्ट-2 के समझौते हुए।

5. आणविक आतंक और आणविक युद्ध का भय- अमरीका और सोवियत संघ दोनों ने आणविक आयुधों का निर्माण कर लिया, किन्तु वे दोनों इन शस्त्रों की मारक शक्ति से चिन्तित रहे। न्यूट्रॉन बम के नाम से कंपकंपी छूटती है। न्यूट्रॉन गोलियों से मनुष्य और अन्य जीव-जन्तुओं के लिए तुरन्त या निलम्बित मृत्यु निश्चित है। इसकी संहारकता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि हाइड्रोजन बम जैसे भयंकर बम में भी मरने वाले और घायलों का अनुपात एक और तीन होता है मगर न्यूट्रॉन बम में इसके उल्टे यदि एक जख्मी होगा तो तीन मरेंगे। कहने का मतलब यह है कि नाभिकीय अस्त्रों ने युद्ध को इतना भयानक और विनाशकारी बना दिया कि कोई भी महाशक्ति इसका खतरा मोल नहीं ले सकती थी। कोई भी महाशक्ति परमाणु युद्ध में सैनिक लाभ अर्जित करने का दावा नहीं कर सकती थी। अतः टकराव और परमाणु संघर्ष से बचने के लिए दितान्त सम्बन्ध अमरीका और सोवियत संघ की मजबूरी थे।

6. राष्ट्रीय प्राथमिकताओं में बुनियादी परिवर्तन- शीत युद्ध काल में संयुक्त राज्य अमरीका की राष्ट्रीय नीति और प्राथमिक आवश्यकता थी- ‘साम्यवाद का अवरोध’, ‘साम्यवाद का समूलोन्मूलन’ ओर सोवियत संघ की सर्वोच्च प्राथमिकता थी- ‘साम्यवाद का विस्तार’ और ‘पूँजीवाद का अन्त करना। इसके लिए दोनों देशों ने लोक-कल्याणकारी योजनाओं, गरीबी उन्मूलन, जीवन स्तर ऊँचा करने जैसे अपरिहार्य कार्यक्रमों की कीमत पर अस्त्रों की शक्ति, परमाणु शस्त्रों के निर्माण तथा सैनिक गठबन्धनों पर बल दिया था। धीरे-धीरे दोनों महाशक्तियों ने यह अनुभव किया कि उन्हें अपने संसाधन और तकनीकी ज्ञान का प्रयोग अपने नागरिकों के जीवन स्तर को ऊंचा उठाने के लिए करना चाहिए। इसके लिए तनाव-शैथिल्य का वातावरण अधिक उपयोगी और उत्साहवर्धक समझा गया।

7. शीत युद्ध का तनावपूर्ण वातावरण- शीत युद्ध एक मनोवैज्ञानिक युद्ध था। यह ‘निलम्बित मृत्यु दण्ड’ के समान था। इसे गरम युद्ध से भी अधिक भयानक माना गया। दोनों महाशक्तियों को यह आशंका होने लगी कि शीत युद्ध कभी भी सशस्त्र युद्ध में परिवर्तित हो सकता है और उसका परिणाम होगा भयंकर विध्वंस । इसलिए वे पारस्परिक टकराव से बचने की दिशा में सोचने पर बाध्य हुए।

8. साम्यवादी गुटबन्दी का ढीलापन तथा सोवियत रूस- चीन मतभेद- सोवियत संघ के प्रति अमरीकी दृष्टिकोण में परिवर्तन का एक कारण साम्यवादी गुटबन्दी का ढीला होना भी था। बदले अन्तर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में साम्यवादी गुट की एकजुटता टूटने लगी और साम्यवादी दुनिया में शक्ति के अनेक प्रतिस्पर्द्ध केन्द्रों का उदय हुआ जो मास्को से स्वतंत्र रहने की चेष्टा करने लगे। साम्यवादी दुनिया की ठोस एकता (Monolithic) के बजाय वहाँ बहुध्रुवीयता (Polycentralism) के तत्त्व दृष्टिगोचर होने लगे। यह स्थिति अमरीका के लिए लाभ की स्थिति थी चूँकि वह साम्यवादी देशों से अपनी सहूलियत के अनुसार उनके मतभेदों का लाभ उठाकर समझौते कर सकता था। इसी प्रकार चीन-सोवियत रूस संघर्ष (Sino-Soviet rift) के फलस्वरूप सोवियत संघ के लिए यह आवश्यकक हो गया कि वह चीन के मुकाबले में अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के लिए पश्चिमी देशों से मुख्यतः उनके नेता अमरीका से शान्तिपूर्ण सम्बन्ध विकसित करे।

9. गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों की भूमिका- शीत युद्ध को दितान्त अर्थात् तनाव- शैथिल्य की स्थिति में लाने का श्रेय गुटनिरपेक्ष आन्दोलन को ही है। गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों ने शीत युद्ध को बढ़ावा देने वाली गुटबन्दी को तोड़ने में सहयोग दिया। गुटनिरपेक्षता का दायरा इतना बढ़ता गया कि दोनों ही गुटों (Power Blocs) में दरारें पड़ने लगीं, गुटों में संलग्न राष्ट्र भी धीरे-धीरे गुटनिरपेक्षता की अपनाने लगे। पाकिस्तान, पुर्तगाल, रूमानिया, ईरान जैसे देश अपने-अपने गुटों को छोड़कर गुटनिरपेक्ष आन्दोलन में शामिल हो गये। गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों ने धीरे-धीरे स्वतंत्र विदेश नीति पर ही नहीं, बल्कि शान्ति और सहयोग की आवश्यकता पर भी बल दिया। इससे महाशक्तियों में प्रतिद्वन्द्विता के स्थान पर सहयोग को बल मिला। डॉ. ए. पी. राना के अनुसार, “गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों ने अपनी गुटनिरपेक्ष पहचान को बनाये रखते हुए महाशक्तियों को अपने सहयोगी प्रतिद्वन्द्वी व्यवहार (Collupetive relations) को सतर्कतापूर्वक संचालित करने में मदद की।”

10. द्वि-गुटीय विश्व राजनीकी नीति का बहुकेन्द्रवाद में परिवर्तन- द्वितीय महायुद्ध के तुरन्त बाद विश्व द्वि-ध्रुवीयता (Bipolarity) की ओर बढ़ा और 1950 के आते-आते इस द्विध्रुवीयता के बन्धन शिथिल पड़ने लगे और विश्व शनैः शनैः बहुकेन्द्रवाद (Polycentrism) की ओर अग्रसर होने लगा। 1963-79 की कालावधि में शक्ति के केवल दो ही केन्द्र नहीं अपितु बहुत सारे केन्द्र हो गये। अमरीका और सोवियत संघ के साथ-साथ ब्रिटेन, फ्रांस और चीन भी अणु-शक्ति के स्वामी बन चुके थे। जापान, पश्चिमी जर्मनी, यूरोपीय आर्थिक समुदाय, भारत और गुटनिरपेक्ष मंच भी आर्थिक और राजनीतिक शक्ति के केन्द्र थे। ये शक्ति केन्द्र अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के क्षेत्र में अधिकाधिक स्वतंत्र आचरण करने लगे। इस बहु-केन्द्रवाद ने महाशक्तियों के सम्बन्धों में दितान्त की प्रवृत्ति को जन्म दिया।

11. महाशक्तियों को अपने गुटीय मित्रों से निराशा और यथार्थवादी चिन्तन की प्रवृत्ति- शीत युद्ध की राजनीति में अमरीका और सोवियत संघ में अपने-अपने मित्रों की संख्या बढ़ाने की होड़ प्रबल थी, किन्तु उन्हें यह समझते देर न लगी कि उनके मित्र उनके लिए बोझ बनते जा रहे हैं। दक्षिणी वियतनाम, दक्षिणी कोरिया और फारमोसा अमरीका पर भार थे, पूर्वी जर्मनी और उत्तरी कोरिया सोवियत संघ पर भार साबित हुए, फ्रांस ने अमरीका के लिए मुसीबतें खड़ी कीं ओर चीन, रूमानिया, अल्बानिया ने सोवियत संघ के लिए मुसीबतें खड़ी कीं। गुटनिरपेक्ष देशों ने दोनों ही महाशक्तियों (Double alignment) से सहायता लेकर दोनों का आर्थिक एवं सैनिक शोषण किया। डॉ. एम. एस. राजन के शब्दों में, “फ्रांस का अमरीका विरोधी दृष्टिकोण और चीन द्वारा सोवियत संघ को दी जाने वाली खुली चुनौती विशेष रूप से महाशक्तियों के सम्बन्धों में दितान्त के विकास के लिए उत्तरदायी हैं।” महाशक्तियों ने यथार्थवादी रुख अपनाते हुए यह महसूस किया कि अन्य देशों के स्थान पर पारस्परिक सम्बन्धों में दितान्त अधिक विश्वसनीय, लाभकारी एवं कम खर्चीला है।

12. संयुक्त राष्ट्र संघ में तीसरी दुनिया के राष्ट्रों की भूमिका- संयुक्त राष्ट्र संघ में भी महाशक्तियों की स्थिति पहले जैसी नहीं रही। तीसरी दुनिया ओर अफ्रेशियाई राष्ट्रों ने संयुक्त राष्ट्र संघ में अपनी आवाज बुलन्द करना शुरू कर दिया। संयुक्त राष्ट्र संघ में उनकी उत्तरोत्तर बढ़ती हुई संख्या ने भी शीत युद्ध की उग्रता को कम किया ।

13. यूरोपीय राष्ट्र युद्ध की परिकल्पना से भयभीत थे- क्यूबा के संकट (1962) का एक दोहरा और विचित्र प्रभाव पड़ा। एक ओर जहाँ इसने शीत युद्ध की पराकाष्ठा की अनुभूति करवाया, दूसरी ओर इसने शिथिलता की आवश्यकता को भी उग्र रूप से रेखांकित किया। इस घटना के बाद यूरोपीय राष्ट्र विशेषतः युद्ध की कल्पना से भयभीत रहे। दूसरे विश्व युद्ध उनकी धरती पर लड़ा गया था, अतः उसका उन्हें अत्यधिक कटु अनुभव था । किसी भी प्रकार से वे विश्व-स्तरीय तनाव में डूबने को तैयार नहीं थे। यूरोपीय राष्ट्रों की इस उम्र अनुभूति का अमरीकी विदेश नीति पर सीधा दबाव पड़ा और वह शिथिलता की नीति को और अधिक तत्परता से लागू करने को बाध्य हुई। यूरोपीय परिवेश को देखते हुए यह कदापि आश्चर्यजनक नहीं था कि देतान्त के वास्तविक प्रचलन की पहल यूरोप से ही हुई। पश्चिमी जर्मनी के चान्सलर विली ब्रांट ने यूरोपीय राष्ट्रों में शिथिलता की प्रक्रिया को लागू करने का विचार रखा।

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