वैश्वीकरण के लाभ या भूमण्डलीकरण से लाभ
भूमण्डलीयकरण की प्रक्रिया के तीव्र विस्तार ने विश्व अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण बदलाव ला दिए हैं। आज विश्व उत्पादन का एक बड़ा हिस्सा अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में सहयोगी फर्मों के बीच हो रहा है। 1970-90 के दशकों के मध्य तक विश्व सकल घरेलू उत्पादन में विश्व व्यापार का हिस्सा 12 प्रतिशत से बढ़कर 18 प्रतिशत हो गया। से अन्तर्राष्ट्रीय निवेश के प्रतिशत में भी बढ़ोत्तरी हुई। 1980-96 के बीच प्रत्यक्ष विदेशी निवेश 4.8 प्रतिशत से बढ़कर 10.6 प्रतिशत हो गया। इसके अलावा अन्तर्राष्ट्रीय वित्त क्षेत्र का भी विकास हुआ। व्यापार और निवेश क्षेत्र पर वित्तीय क्षेत्र हावी हो चुका है। विदेशी मुद्रा बाजार का विस्तार भी चौंकाने वाला है। 1996 के आंकड़े बताते हैं कि इस बाजार में प्रतिदिन 1200 अरब डॉलर का लेन-देन होता है जबकि 1983 में यह आंकड़ा 60 अरब डालर था।
भूमण्डलीकरण की यह प्रक्रिया अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक लेन-देन पर लगी रोक के हटने से शुरू हुई। विश्व अर्थव्यवस्था में कई तरह की रुकावटें दूर होने से भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया के लिए रास्ता साफ हुआ है, व्यापार के क्षेत्र में खुलापन आया है और विदेशी निवेश के प्रति उदारता बढ़ी है। साथ ही वित्तीय क्षेत्र में भी उदार नीतियां अपनाई जा रही हैं। जेट विमान, कम्प्यूटर, उपग्रह, इण्टरनेट सूचना तकनीक की वजह से देशकाल की सीमाएं खत्म हो गई है। औद्योगिक संगठनों में नई प्रबन्ध व्यवस्थाओं के विकास ने भी भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया को गति प्रदान की है। इसके अलावा संयुक्त राज्य अमेरिका की राजनीति प्रभुता (वर्चस्व) ने भी भूमण्डलीकरण को बल प्रदान किया है क्योंकि भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया के लिए एक महाशक्ति का प्रभुत्व जरूरी है जिसकी मुद्रा से अन्तर्राष्ट्रीय बाजार का संचालन होता है। यह भूमिका अमरीकी डालर निभा रहा है।
“राष्ट्रीय सम्प्रभुताएं एक तरह से सीमाविहीन होने लगी हैं। विभिन्न देशों की सीमाओं का अब सिर्फ भौगोलिक महत्त्व रह गया है। जब दुनिया ही सिकुड़ कर एक गांव बन गई हो तो आप यह उम्मीद कैसे कर सकते हैं कि गाँव के किसी एक घर में आग लगे तो दूसरे घर उससे चिन्तित नहीं होंगे। जैसे दुनिया सिकुड़ी है वैसे ही सम्प्रभुता, स्वायत्तता और स्वतंत्रता की परिभाषाएं भी सिकुड़ी हैं। संचार क्रांति और भूमण्डलीकरण ने विभिन्न जातीयताओं, नस्लों और अस्मिताओं को एक नए तरह की गतिशीलता और सतर्कता प्रदान की है।”
वैश्वीकरण के हानि या भूमण्डलीकरण से हानियाँ
संयुक्त राष्ट्र महासचिव कोफी अन्नान ने संयुक्त राष्ट्र सहस्राब्दि रिपोर्ट (सितम्बर, 2000) में स्पष्ट किया है कि वैश्वीकरण के प्रतिकूल प्रतिक्रियाएं शुरू हो गई हैं क्योंकि ये लाभ बहुत असमान रूप से वितरित हैं क्योंकि वैश्विक बाजार को अभी तक सहभागी सामाजिक लक्ष्यों पर आधारित नियमों के अधीन नहीं किया गया है।
यह सर्वविदित है कि जहाँ पिछले 25 साल में भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया तेज हुई है वहीं अन्तर्राष्ट्रीय श्रम प्रवास में स्पष्ट कमी आई है। भूमण्डलीयकरण का संस्थागत ढांचा भेदभाव से भरा है। एक तरफ तो यह प्रावधान है कि राष्ट्रों की सीमाएं व्यापार या पूंजी प्रवाह में बाधक न बनें, दूसरी ओर तकनीकी या श्रम प्रवाह की राह में अड़चनें डाली जा रही हैं। यह उम्मीद की जाती है कि विकासशील देश अपने बाजार अमीर देशों के लिए खोल दें तथा पूंजी का निवेश अपने यहाँ होने दें, लेकिन बदले में विकसित देशों से तकनीक तथा निर्विघ्न श्रम प्रवाह की मांग न करें।
इस बात के पर्याप्त सबूत हैं कि पिछले 25 वर्षों में भूमण्डलीयकरण के चलते राष्ट्रों और लोगों के आय स्तरों के बीच की खाई गहराती गई है। आय वितरण की असमानताएं भी बढ़ी हैं। लैटिन अमेरिका, अफ्रीका और पूर्व समाजवादी देशों में गरीबी बढ़ी है। संगठित क्षेत्र में रोजगार के अवसर कम हुए हैं इसलिए ज्यादातर भूमण्डलीयकरण ने कुछ ही लोगों, प्रान्तों और राष्ट्रों के लिए लाभ के ऐसे अवसर खोले हैं जिनकी पहले कल्पना नहीं की जा सकती थी। इस दौड़ में अमीर में अमीर एवं विकसित देशों की जीत हुई है। जिस वर्ग को लाभ पहुँचा है वह सम्पत्तिशाली, उच्च शिक्षित पेशेवर, प्रबन्ध तकनीकी का ज्ञाता और मुनाफे के लिए जगह-जगह पहुँचने में समक्ष है। दूसरी तरफ छोटे-मोटे कारोबार करने वाले, जोखिम न उठाने वाले और किराए की तकनीक अपनाने वाले नुकसान में रहे हैं। भूमण्डलीकरण के इस दौर में जीतने वाले राष्ट्रों में संयुक्त राज्य अमेरिका, पश्चिमी यूरोप, जापान पूर्व एशिया और दक्षिण-पूर्व एशिया का में नाम आता है और पिछड़ने वाले देशों में लैटिन अमेरिका, अफ्रीका, पश्चिमी एशिया, पूर्व और दक्षिण एशिया क्षेत्र के देश हैं।
भूमण्डलीकरण के दौर में विश्व व्यापार संगठन जैसे निकायों के दायरे में वे मामले भी आ गए हैं जो आर्थिक गतिविधियों और सामाजिक सम्बन्धों को भी प्रभावित करते हैं और पूरी तरह संप्रभु राष्ट्रों के अधिकार क्षेत्र में ही आते हैं। इसे भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया का नाम दिया गया जिसका उद्देश्य सदस्य राष्ट्रों की सम्प्रभुता का हनन करना, उनके अधिकारों को सीमित करना है।
भूमण्डलीकरण की व्यवस्था में स्वतंत्र व्यापारिक उद्यमों का तो गला घोटा जा रहा है। विकासशील देशों की तो बात छोड़े विकसित देशों में स्थानीय व्यापारिक हितों के समक्ष भी जबर्दस्त संकट पैदा गया है और उनके पास बहुराष्ट्रीय निगमों के महत्त्वहीन पिछलग्गू के रूप में काम करने के सिवाय कोई विकल्प ही नहीं बचा है।
पूर्वी एशियाई देशों में वित्तीय उथल-पुथल के बाद तो भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया के भयावह परिणाम सभी विकाशील देशों की समझ में अच्छी तरह आ गए हैं। इस उथल-पुथल का कारण राष्ट्रीपारीय निगमों का सट्टेबाजी से भरा कारोबार है और तो और, दक्षिण कोरिया भी जिसे तीसरी दुनिया के समक्ष विकास और स्थिरता का आदर्श उदाहरण बताकर प्रचारित किया जा रहा था और जिसे हाल ही विकसित देशों की जमात में शामिल कर लिया गया था, बुरी तरह प्रभावित हुआ है। पूर्वी एशिया के देश तो नव-औपनिवेशिक दासता की स्थिति में वापस धकेले जाने का खतरा महसूस करने लगे। पूर्वी एशियाई देशों को मौजूदा संकट से उबारने के लिए दी जाने वाली सहायता के साथ विश्व बैंक, अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व व्यापार संगठन ने आपस में मिल-जुलकर ऐसी कड़ी शर्तें थोपी कि उनसे जन असंतोष भड़क गया ।
इसी बात पर रिजर्व बैंक के गवर्नर विमल जालान ने अपनी हाल में प्रकाशित पुस्तक ‘इण्डियाज इकानोमी इन द न्यू मिलेनियम’ में जोर दिया है। वे कहते हैं कि ‘विश्व के पूँजी बाजार में कुशलता आई परन्तु साथ-साथ इससे विकासशील देशों के समक्ष अधिक खतरा एवं असुरक्षा भी उत्पन्न हो गई है।’ वे बताते हैं कि पूर्वी एशिया की बैंकिंग व्यवस्था लगभग विश्व स्तर की ही थी परन्तु फिर भी वे संकटग्रस्त हो गए चूँकि वे विश्व अर्थव्यावस्था से गहराई से जुड़े हुए थे। उन्होंने इस जुड़ाव के खतरे से बचाव की पर्याप्त सावधानी नहीं बरती थी। विश्व पूँजी बाजार में हल्की-सी उथल-पुथल से उनकी अर्थव्यवस्थाएं हिल गई। पूर्वी एशिया की तुलना में भारत एशियाई संकट से बहुत कम प्रभावित हुआ क्योंकि हमारा अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था से जुड़ाव कम था। इसी क्रम में वे कहते हैं कि देश के बैंकों का पूर्ण निजीकरण नहीं होना चाहिए। इससे सरकार का बैंकों पर नियंत्रण कम होगा। संकट के समय उनके व्यवहार पर नियंत्रण रखना कठिन हो जाएगा। जालान की दृष्टि में बैंकों के निजीकरण से लाभ कम और खतरा ज्यादा होता है।
भूमण्डलीय और अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध : प्रभाव
अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों, अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार और अन्तर्राष्ट्रीय वित्त व्यवस्था के परिप्रेक्ष्य भूमण्डलीयकरण के निम्नांकित प्रभावों (परिणामों) की चर्चा की जाती है-
1. संयुक्त राष्ट्र संघ और उससे सम्बन्धित अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय और व्यापारिक संगठन ‘जैसे अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय और व्यापारिक संस्थाओं की भूमिका और महत्त्व में वृद्धि हुई है।
2. ‘विश्व व्यापार संगठन’ जैसे ऐसे अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की स्थापना हुई जो विश्व व्यापार के क्षेत्र में पुलिसमैन की भूमिका का निर्वाह करने लगा है। कहने के लिए तो विश्व व्यापार संगठन की स्थापना बहुपक्षीय सिद्धान्त के आधार पर अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार को प्रोत्साहित करने के लिए की गई है, लेकिन हकीकत यह है कि यह संगठन सामूहिक और अलग-अलग तौर पर विकासशील देशों के अर्थतंत्र, समाज और राजनीति पर प्रभुत्व जमाने का माध्यम है।
3. भूमण्डलीकरण से बहुराष्ट्रीय निगामें को खुली छूट मिल गई है और बहुराष्ट्रीय निगम निर्धन राष्ट्रों पर धनी राष्ट्रों के नव उपनिवेशीय नियंत्रण के वाहक हैं।
4. अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार और अन्तर्राष्ट्रीय पूंजी निवेश के लिए देश के दरवाजे खोलने का मतलब गरीब देशों और अमीर देशों को बकरी और बाघ की तरह एक ही घाट का पानी पीने की व्यवस्था करना है और ऐसी दोस्ती में अमीर देश गरीब देशों से मुनाफा लेंगे ही। राजनीतिक अर्थ में विश्व व्यापार में भागीदारी बढ़ाने का मतलब अमीर देशों पर निर्भरता बढ़ाना है जो अन्ततः राजनीतिक निर्भरता और सामाजिक-राजनीतिक कीमत चुकाने तक जाता है।
5. अर्थव्यवस्था का तो भूमण्डलीयकरण हो गया है, किन्तु हमारी राजनीतिक व्यवस्था अभी राज्यों की सम्प्रभुता पर आधारित है।
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