राजनीति विज्ञान / Political Science

भूमण्डलीय विकासशील देशों पर पड़ रहे प्रभाव का मूल्यांकन कीजिए।

भूमण्डलीय विकासशील देशों पर पड़ रहे प्रभाव
भूमण्डलीय विकासशील देशों पर पड़ रहे प्रभाव

भूमण्डलीय विकासशील देशों पर पड़ रहे प्रभाव

भूमण्डलीय या वैश्वीकरण की धारणा संसार के सभी क्षेत्रों में वास्तविक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक परिवर्तनों के द्वारा एक वास्तविक विश्व समुदाय की स्थापना करने की वकालत करती है। क्योंकि ऐसा होने से ही विश्व के समस्त लोगों का सर्वांगीण विकास के उद्देश्य की प्राप्ति की जा सकती है। भूमण्डलीकरण राष्ट्रीय दृष्टिकोण के स्थान पर विश्वव्यापी दृष्टिकोण को अपनाना है ताकि विद्यमान आर्थिक व्यवस्था को एकीकृति विश्व आर्थिक व्यवस्था का स्वरूप प्रदान किया जा सके।

भूमण्डलीकरण की धारणा का विकास धीरे-धीरे हुआ है। पहले पुलिस राज्य के सिद्धान्त का स्थान कल्याणकारी राज्य ने ले लिया। फिर औद्योगिक तथा तकनीकी विकास की व्यापक प्रक्रिया के द्वारा विकास के उद्देश्य की प्राप्ति को अपनाया गया परन्तु ऐसे विकास ने जब क्षेत्रीय असंतुलित, विकसित तथा विकासशील देशों में सम्बन्धों की समस्या, उनके विकास स्तरों में भारी अन्तर की समस्या, विकास के कारण पर्यावरण पर दवाब और राष्ट्रों के आपसी, आर्थिक, तकनीकी सम्बन्धों के विकास को अपनाने के लिए प्रेरित किया।

भूमण्डलीकरण के इस दौर ने विश्व के समस्त देशों पर जबरदस्त प्रभाव डाला। वह विकसित देश हो या विकासशील सभी के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक यहाँ तक कि सांस्कृतिक आधार पर भी उसको प्रभावित किया। विकासशील देशों में भूमण्डलीकरण के प्रभाव को हम निम्न बिन्दुओं के अन्तर्गत अध्ययन करेंगे-

(1) सामाजिक स्तर पर प्रभाव- भूमण्डलीकरण का विकासशील देशों के सामाजिक स्तर पर व्यापक प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। दुनिया के किसी खास राष्ट्र या क्षेत्र में उत्पादित होने वाले वस्तु एवं उसके प्रतिरूपों तथा सूचना का प्रभाव अन्य राष्ट्रों और क्षेत्रों की तरह होने की प्रक्रिया वैश्वीकरण की पहली प्रत्यक्ष सच्चाई है। भूमण्डलीकरण के इस प्रक्रिया के जरिये राष्ट्रों एवं व्यक्तियों के बीच सांस्कृतिक स्तरों को कम किया जा रहा है या बिल्कुल समाप्त करके एकल वैश्विक संस्कृति का निर्माण करने की दिशा में हम बढ़ रहे हैं। विकसित देशों के ऐसे उत्पाद एवं तकनीक जिनके वहाँ के समाज में क्रान्तिकारी परिवर्तन आये वही तकनीकें विकासशील देशों की ओर प्रवाह कर रही हैं। इसमें अन्तर्राष्ट्रीय एवं बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। किन्तु देखा यह भी जा रहा है कि इन वस्तुओं एवं सूचनाओं का वर्चस्वकारी प्रभाव विकासशील राष्ट्रों के ऊपर पड़ रहा है। कुछ पर्यवेक्षकों का मानना है कि वैश्वीकरण एकं निहायत समझौता विहीन सांस्कृतिक साम्राज्यवाद है जो पारम्परिक जीवन शैलियों की कोई इज्जत नहीं करता और उन्हें उखाड़ फेंकने पर अमादा है लेकिन इससे भिन्न मत रखने वाले पर्यवेक्षकों का मानना है कि स्थिति उतनी निराशाजनक नहीं है क्योंकि पश्चिमी उत्पादों से जुड़ी सांस्कृतिक अर्थवार्ताओं, शैलियों-स्वरूपों और विभिन्न राष्ट्रों की विविधतापूर्ण संस्कृतियों को तरजीह देते हुए भी आखिरकार विकासशील राष्ट्रों की स्थानीय विशेषताओं, आवोहवा और जरूरतों को ही आधार बनाया जाता है जिससे श्रम एवं संसाधन की स्थानीयता की रंगत बनी रहती है।

( 2 ) आर्थिक स्तर पर प्रभाव- आर्थिक स्तर पर भूमण्डलीकरण की इस प्रक्रिया में पश्चिमी शैली के पूँजीवाद की उपलब्धियों को विकासशील राष्ट्रों और उनके समूहों के साथ साझा किया जाता है। इस नई विश्व व्यवस्था के अन्तर्गत कमतर व्यापार प्रतिबन्ध विनिमय नियंत्रणों की समाप्ति, लागत पूँजी का उन्मुक्त प्रभाव और सार्वजनिक क्षेत्र जो क्रमशः निरस्त करके उसकी जगह निजी क्षेत्र के वर्चस्व की स्थापना या निजीकरण कुछ स्पष्ट लक्षित की जाने वाली परिघटनायें हैं। नतीजे के तौर पर औद्योगिक लोकतांत्रिक राष्ट्रों से बड़े पैमाने पर पूँजी विकासशील राष्ट्रों में स्थानान्तरित होती है। तथापि भूमण्डलीकरण के कुछ खराब प्रभाव भी हुए। हैं। विश्व के बड़े औद्योगिक राष्ट्रों, अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व व्यापार संगठन जैसी संस्थाओं के माध्यम से विकासशील राष्ट्रों को ऋण की उपलब्धता एवं धन का प्रवाह कराती है परन्तु इसके साथ लाभार्थी देशों पर क्रूर शर्तें भी थोपती हैं। ये विकासशील देशों को तरह-तरह से घेराबंदी करके उन पर जबरन कर्ज का दबाव डालते हैं फिर अपने हित में उनका इस्तेमाल करते हैं। चूँकि विकासशील देशों में कच्चा माल की प्रचुर उपलब्धता एवं सस्ती श्रम शक्ति होने के कारण ये औद्योगिक देश अपनी पूँजी का निवेश करके भारी लाभ कमाते हैं और उसका बहुत कम फायदा उस देश को हो पाता है। परिस्थितियाँ ऐसी होती हैं कि विकासशील देश इनका शिकार हो जाता है। ऐसे में उन कुछेक अर्थशास्त्रियों के मत विचारणीय लगते हैं जिन्होंने आर्थिक भूमण्डलीकरण को विश्व का पुनः उपनिवेशीकरण कहा है।

( 3 ) राजनीतिक स्तर पर प्रभाव- राजनीतिक स्तर पर भूमण्डलीकरण का प्रभाव सर्वाधिक विडम्बनापूर्ण है। मुक्त व्यापार और बाजार की इस निर्बाध प्रक्रिया में संलग्न देशों की सरकारों की भूमिका क्या हो सकती है? यह प्रश्न विचारणीय है। क्योंकि भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया राष्ट्र राज्य की सीमाओं का अतिक्रमण करती है। समाजवादी राज्यों के अभेद किले ढह ही गये अब कल्याणकारी राज्य की अवधारणा भी पुरानी पड़ गयी है। इस वैश्वीकृत दुनिया में न्यूनतम हस्तक्षेपकारी राज्य चाहिए जो मुख्यतः इस मुक्त व्यापार में प्रबन्धक की भूमिका निभाये। राज्य का काम कानून और व्यापार को बनाये रखना एवं अपने नागरिकों को सुरक्षा तक सीमित होना चाहिए। यहाँ तक कि उन नागरिकों के सामाजिक, आर्थिक प्राथमिकतायें बाजार तय करेगा और उसकी शर्तों के प्रति उनकी सीधी जवाबदेही भी होगी। इस तरह से विकासशील राष्ट्रों का यदि प्रशासनिक ढाँचा और राजनीतिक व्यवस्था कमजोर होती है तो उस पर बाह्य शक्तियाँ हावी हो जाती हैं और अपने हित में कानूनों का निर्माण कराती हैं। इस तरह बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ एवं आर्थिक दृष्टि से ताकतवर देश अपनी पूँजी के दम पर कमजोर विकासशील देशों की राजनीतिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप करती हैं और जरूरत पड़ने पर यहाँ की राजनीतिक व्यवस्था को अस्त-व्यस्त भी कर देती हैं। यदि भूमण्डलीकरण विकासशील देशों के लिए सकारात्मक परिणाम देता है तो यह भी सच है कि उसका नकारात्मक प्रभाव भी विद्यमान है।

( 4 ) सांस्कृतिक स्तर पर प्रभाव- जवाबदेही का सबसे बड़ा प्रभाव सांस्कृतिक स्तर पर देखने को मिल रहा है। पूरी दुनिया को उन्मुख बाजार में समेटने का सीधा प्रभाव यह हो रहा है कि तमाम देशों की अपनी-अपनी पारम्परिक संस्कृतियाँ क्षरित होने के कगार पर है और एक सांस्कृतिक समरूपता हर जगह हावी हो रही है। व्यापार के लिहाज से ऐसा फायदेमंद हो सकता है लेकिन सांस्कृतिक स्वायतता, विविधता और बहुलता का अपना महत्त्व है। इन सबका सबसे बड़ा शिकार विकासशील देश हो रहे हैं। विकासशील देशों में विभिन्न तरीकों के पारस्परिक लोक संस्कृतियाँ विद्यमान रहती हैं और इनका एक विस्तृत इतिहास होता है लेकिन विश्व संस्कृति के नाम पर पश्चिमी संस्कृति को इन विकासशील देशों पर लादा जा रहा है। चूँकि पूँजी का प्रवाह पश्चिमी धनी राष्ट्रों में विकासशील देशों की तरफ हो रहा है इसलिए शर्तें भी उनकी ही होती हैं। यह और बात है कि वस्तुओं और जीवन शैलियों की त्वरित आवाजाही की बदौलत तत्कालिक रूप से एक सांस्कृतिक विभिन्नता के दर्शन जरूर होते हैं और परस्पर सम्पर्क का लाभ बेशक स्थानीय संस्कृतियों को भी मिल रहा है। यह भी सकारात्मक बात है कि ‘राष्ट्रीय संस्कृति’ के रूप में इन मुल्कों का इकहरापन टूट रहा है और उनकी अपनी ही कुछ उपेक्षित छोटी-छोटी संस्कृतियाँ खुलकर साँस लेने लगी हैं और विश्व में उनको एक अलग पहचान मिल रही है।

मूल्यांकन- यदि भूमण्डलीकरण के विकासशील देशों पर पड़ रहे प्रभावों का समग्र मूल्यांकन करें तो हम कह सकते हैं कि भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया ने इन देशों पर सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों प्रभाव डाला है। सकारात्मक प्रभावों के कारण विकासशील देश जहाँ सामाजिक तौर पर मजबूत होकर उभर रहे हैं वहीं आर्थिक तौर पर इनका विकास भी उल्लेखनीय है। वैश्विक राजनीति से जुड़ने के कारण इनकी राजनीतिक परिपक्वता जहाँ बढ़ रही है वहीं विकासशील देशों की विविधता रूपी संस्कृतियों का दर्शन पूरा विश्व कर रहा है। इन सकारात्मक परिणामों के साथ कुछ नकारात्मक परिणाम भी दृष्टिगोचर होता है। चाहे वह सामाजिक परम्पराओं का क्षरण हो या आर्थिक शोषण संस्कृतियों की विविधता पर संकट, इन सब बातों के कारण भूमण्डलीकरण का नकारात्मक चेहरा सामने आता है। लेकिन हमें इस भूमण्डलीकरण को एक सुसंगत मॉडल बनाना है जो सभ्यता और संस्कृति के अब तक की अर्जित उपलब्धियों को धरोहर के रूप में संजो सके जो सचमुच इस नई सहस्राब्दि में ‘नये मनुष्य की संकल्पना’ पेश कर सके और वही संकल्पना ही विकसित एवं विकासशील देशों के बीच सेतु का कार्य करेगा।

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