आधुनिक समाज में प्रथाओं की अपर्याप्ता
प्राचीन समाज छोटा और सरल होता था और प्रत्येक व्यक्ति एक-दूसरे को बहुत कुछ व्यक्तिगत रूप से जानता-पहचानता था। साथ ही सामाजिक जीवन में न तो परिवर्तन शीघ्रता से होता था और न ही सामाजिक समस्यायें गंभीर थीं। इसलिये प्रथाओं के द्वारा ही सामाजिक नियंत्रण का कार्य सरलता से हो जाता था, लेकिन आधुनिक समाज में प्रथाएं बिल्कुल अपर्याप्त हैं और केवल इनके द्वारा सामाजिक नियंत्रण आज असंभव है इसके चार प्रमुख कारण हैं –
(1) आधुनिक समाज बहुत जटिल होता है आज के समाज में कितनी ही विशेष विशेष प्रकार की समिति और संस्थाएं हैं और सभी अपने-अपने स्वार्थों की अधिकतम पूर्ति करना चाहती है इसी कारण आधुनिक समाज में संघर्ष की संभावनाएं भी अधिक हैं। प्रथाओं के द्वारा इन पर नियंत्रण रखना असंभव है।
(2) आधुनिक समाज में परिवर्तन बहुत जल्दी जल्दी होता है, इस कारण सामाजिक आवश्यकताएं भी शीघ्रता से बदलती है पर प्रथाएं रूढ़िवादी होती है इसलिये इनके द्वारा बदलती हुयी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो सकती है।
(3) आधुनिक समाज में अनेक समूह ऐसे होते हैं कि जो कि बहुत ही शक्तिशाली होते है उन पर प्रथा का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है अतः इन पर नियंत्रण रखना प्रथा का कार्य नहीं है।
(4) आधुनिक समाज में अनेक प्रकार के समूह पास-पास रहते हैं। हो सकता है कि इनमें से प्रत्येक की प्रथाएं अलग-अलग हों। ऐसी अवस्था में प्रथाओं के आधार पर सामाजिक संगठन व एकता कदापि स्थापित नहीं हो सकती।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि आधुनिक समाज के लिए प्रथाएँ अपर्याप्त हैं और इनके द्वारा सामाजिक नियंत्रण का सम्पूर्ण कार्य कदापि नहीं किया जा सकता है, यही कारण है कि आज प्रथाओं का महत्व दिन-प्रतिदिन घटता जा रहा है और कानून का महत्व बढ़ रहा है।
सामाजिक नियंत्रण में प्रथा का महत्व
सामाजिक नियंत्रण में प्रथा का महत्व- प्रथाओं का सामाजिक नियंत्रण में अत्यधिक महत्व है। प्रथाएँ व्यक्ति के व्यवहारों को काफी सीमा तक नियंत्रित करती है यद्यपि इनके पीछे ऐसी कोई कानूनी शक्ति नहीं होती जिसके द्वारा व्यक्तियों पर उनके मनवाने के लिये दबाव डाला जा सके, फिर भी मनुष्य सामाजिक निन्दा के भय से प्रथाओं का उल्लघन नहीं कर पाता। प्रथाएँ चूँकि पिछली पीढ़ियों का सफल अनुभव होती है अतः व्यक्ति इन्हें जल्दी ही मान लेता है, क्योंकि नये व्यवहारों को करने में उसे हिचकिचाहट तथा भय की अनुभूति भी होती है। प्रथाओं का प्रभाव आदिम और सरल समाजों में तो कानूनों से भी अधिक होता है। इसका एक विशेष कारण यह है कि इस प्रकार के समाजों में व्यक्तियों का जीवन अत्यधिक रुढ़िवादी होता है। साथ ही धर्म द्वारा अधिक प्रभावित होता है। अतः वे प्रथा का उल्लंघन किसी भी रूप में नहीं कर पाते। इसके अतिरिक्त चूँकि प्रथाएँ पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित होती हैं, अतः इनका उल्लघंन पूर्वजों का अपमान माना जाता है। प्रथाओं के इसी व्यापक प्रभाव को देखते हुये शेक्सपीयर ने प्रथाओं को, ‘क्रूर प्रथा’ मॉन्टेन ने गुस्सेबाज व दगाबाज स्कूल-मास्टरनी’ बेकन ने मनुष्य के जीवन का प्रधान न्यायाधीश और लोक में प्रकृति से भी बड़ी शक्ति कहा है। जिन्सबर्ग ने प्रथाओं की सामाजिक नियंत्रण में भूमिका के वर्णन की व्याख्या करते हुये लिखा है-
निश्चय ही आदिम युग के समाजों में प्रथा जीवन के सभी क्षेत्रों में व्याप्त रहती है और व्यवहार की सूक्ष्म से सूक्ष्म बातों में भी उसका हस्तक्षेप होता है और सभ्य समाजों में प्रथा का प्रभाव साधारणतया जितना समझा जाता है, उससे कहीं अधिक होता है। प्रथा की शक्ति इसी बात में निहित है कि यह कार्य की समरूपता से प्राप्त होने वाली उपयोगिता से समाज को समृद्ध करती है। सामाजिक विकास की प्रारंभिक अवस्था में, जैसा कि बेगहॉट का कहना है कि इस बात का बहुत ही अधिक महत्व रहा होगा कि कुछ ऐसे सामान्य नियम बनाये जाएँ जो लोगों को एक सूत्र में बाँधे, उनको एक ही प्रकार का व्यवहार करने के लिये मजबूर करें और उनको यह बताये कि वे एक-दूसरे से क्या आशा करें। इसमें कोई भी संदेह नहीं कि प्रथा को जो कुछ अधि सामाजिक प्रभुत्व प्राप्त था और उनको तोड़ने या उनकी उपेक्षा करने के लिये जो कठोर दण्ड दिया जाता था, वह बहुत कुछ इसी कारण कि लोग सहज ही प्रथा का अनुभव करते है। इसीलिये तो प्रथाओं को सामाजिक अभिमति प्राप्त होती है और इसके बल पर ही ये व्यक्ति के व्यवहारों को नियंत्रित व संचालित करती हैं और इस प्रकार सामाजिक नियंत्रण में सहायक होती है। प्रथाओं के माध्यम से व्यक्ति के व्यवहार भी नियंत्रित रहते हैं वे सभी गलत कार्यों को करने से डरते हैं क्योंकि समाज के सदस्य अपनी प्रथाओं पर अधिक विश्वास करते हैं अतः हम कह सकते हैं कि हमारी प्रथायें सामाजिक नियंत्रण का महत्वपूर्ण साधन मानी जाती हैं।
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