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वासुदेवशरण अग्रवाल का जीवन परिचय | वासुदेवशरण अग्रवाल का साहित्यिक परिचय

वासुदेवशरण अग्रवाल का जीवन परिचय
वासुदेवशरण अग्रवाल का जीवन परिचय

वासुदेवशरण अग्रवाल का जीवन परिचय

जीवन-परिचय- पुरातत्त्व और भारतीय संस्कृति के अमर व्याख्याता वासुदेवशरण अग्रवाल का जन्म 7 अगस्त, सन् 1904 ई० में लखनऊ के प्रतिष्ठित वैश्य परिवार में हुआ था। आपका बाल्यकाल लखनऊ में ही व्यतीत हुआ था। बचपन से ही इनकी बुद्धि की प्रखरता अध्ययन के क्षेत्र में सहायक सिद्ध हुई। इसीलिए इन्होंने अपनी अल्पायु में ही काशी विश्वविद्यालय से बी०ए० और लखनऊ विश्वविद्यालय से एम0ए0, पी-एच0 डी0 और डी० लिट् की उपाधियाँ प्राप्त कर लीं। इनके अध्ययन और पुरातत्त्व विभाग में विशेष रुचि के कारण ही इन्हें काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ने ‘पुरातत्त्व एवं प्राचीन इतिहास विभाग के अध्यक्ष पद का कार्य-भार सौंप दिया। बाद में ये आचार्य पद पर आसीन हुए। बहुत समय तक ये मथुरा तथा लखनऊ के संग्रहालयों के क्यूरेटर भी रहे। माँ सरस्वती का यह अमर पुत्र हिन्दी-साहित्य की सेवा करता हुआ 27 जुलाई, सन् 1967 ई० में भारत माँ के चरणों में हमेशा के लिए सो गया।

कृतियाँ

डॉ० अग्रवाल ने निबन्ध-रचना, शोध और सम्पादन के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। इनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं-

‘उत्तर-ज्योति’, ‘पृथ्वीपुत्र’, ‘कल्पलता’, ‘कल्पवृक्ष’, ‘वेद-विद्या’, ‘कला और संस्कृति’, ‘मातृभूमि’, ‘वाग्धारा’ आदि इनके निबन्ध-संग्रह हैं। ‘पाणिनिकालीन भारत’ इनका विद्वत्तापूर्ण शोध ग्रन्थ है। डॉ० अग्रवाल ने जायसी कृत ‘पद्मावत’ का सम्पादन किया है। इसके अतिरिक्त इन्होंने पालि, संस्कृत और प्राकृत के भी कई ग्रन्थ सम्पादित किए हैं।

वासुदेवशरण अग्रवाल का साहित्यिक योगदान

डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल ने कविता-लेखन से अपना साहित्यिक जीवन प्रारम्भ करके अपनी रचनाओं में योग्यता, अनुभव एवं बुद्धि की असाधारण प्रतिभा द्वारा भारतीय संस्कृति और राष्ट्रीयता के अमिट चित्रों को चित्रित करते हुए अनुसन्धान की तीव्र प्रवृत्ति का भी स्पष्टतया समावेश कर दिया। ये लखनऊ तथा मथुरा के पुरातत्त्व संग्रहालयों में निरीक्षक, ‘केन्द्रीय पुरातत्त्व विभाग’ के संचालक और ‘राष्ट्रीय संग्रहालय, दिल्ली’ के अध्यक्ष रहे। आपने साहित्यिक जीवन में साहित्य के साथ-साथ पुरातत्त्व को भी अपने अध्ययन का विषय बनाया था।

ये भाषा और साहित्य के प्रकाण्ड पण्डित थे। इन्होंने अनेक पत्रिकाओं में अपने निबन्ध लिखकर गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त किया। इनके लेख अनुसन्धानपूर्ण हैं तथा उनमें भारतीय संस्कृति की गहरी छाप मिलती है। आपने भारतीय संस्कृति के विभिन्न अंगों से सम्बन्धित उत्कृष्ट निबन्ध लिखे हैं। ये केवल एक गद्य-लेखक ही नहीं, अपितु काव्य-प्रेमी भी थे। शोध निबन्धों की एक मूल्यवान परम्परा को इन्होंने प्रारम्भ किया था।

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