श्रीराम शर्मा आचार्य का संक्षिप्त परिचय
संक्षिप्त परिचय – पं० श्री राम शर्मा आचार्य का जन्म 20 सितम्बर, 1911 ई० को आगरा के एक धनी परिवार में हुआ था। आपके पिता पं० रूप किशोर शर्मा थे। आचार्य जी सरल स्वभाव के सामान्य व्यक्ति के समान ही रहना और खाना पसन्द करते थे। वे गरीब-अमीर, छोटे-बड़े एवं ऊँच-नीच आदि में भेद नहीं करते थे, दीन-दुखियों की सेवा करने में उन्हें परम आनन्द आता था। उन्होंने गायत्री महामन्त्र जप-यज्ञ का इतना भारी प्रचार किया कि अब वह कार्य पूरे संसार में हो रहा है। उन्होंने हरिद्वार में ‘शान्ति-कुंज’ की स्थापना की जिसकी देश-विदेश में फैली हुई शाखाएँ उनके कार्य को पूरा कर रही है।
यों तो श्रीराम शर्मा के जीवन-वृत्त का संक्षिप्त सिंहावलोकन ही प्रेरणा का अक्षय स्रोत है, फिर भी यहाँ विशिष्ट रूप से कुछ घटनाएँ दी जा रही हैं-
(1) आदर्शों से समझौता न करना ही प्रखरता की निशानी है। एक दिन एक कार्यकर्ता कलकत्ता निवासी किसी सेठ को आचार्य जी से मिलवाने लाया। परस्पर परिचय हुआ। बताया गया कि सेठ जी समाज-सेवा के लिए कुछ दान करना चाहते हैं। सेठ जी ने प्रस्ताव रखा, “स्वामी जी ! मैं दान तो बहुत करूँगा, पर मेरी एक शर्त है कि उस धन से कमरे बनें और उनमें हर कमरे में मेरे पारिवारिक जनों के नाम खुदवाये जायें।” आचार्य जी यह सुनकर थोड़ा चकित रह गये और फिर अपने कार्यकर्ता को झिड़कते हुए बोले, “अरे ! ये तो कब्रिस्तान बनाना चाहते हैं, इन्हें तुमने मिशन का स्वरूप और मेरे उद्देश्य नहीं समझाये। जाओ, ले जाओ। मुझे इनका एक पैसा नहीं चाहिए।” सेठ सहित सभी उपस्थितजन सन्न रह गए। अपनी इसी प्रखरता की तेज तलवार से वे सदैव आदर्शों के मार्ग के अवरोधों को काटते रहे।
(2) एक बार वे किसी कार्यक्रम में मथुरा से बाहर गए हुए थे। कार्यक्रम में उनके प्रवचन में कुछ ही तुरन्त देर थी कि मथुरा से एक कार्यकर्ता ने आकर सूचना दी कि उनकी माताजी की दशा चिन्ताजनक है, चलना होगा। उन्होंने उत्तर दिया, “तुम चलो! उनके शरीर छोड़ देने पर उचित व्यवस्था जुटाना। मैं कार्यक्रम के समाप्त होने पर आ जाऊँगा।” यह समाचार सुनकर आयोजकों ने भी प्रार्थना की कि कार्यक्रम का आयोजन तो बाद में हो जाएगा। आचार्य जी चाहें तो जा सकते हैं। उनकी प्रतिक्रिया थी, “सवाल आयोजन का नहीं है। सवाल मेरे कर्तव्य का है। इतने लोग जो मुझसे कुछ पाने आए हैं, खाली हाथ लौटेंगे। यह मैं देख नहीं सकता। मानवमात्र के हृदय में भगवान का निवास होता है। ऐसे भगवान की पूजा छोड़कर मैं नहीं जा सकता।” कार्यक्रम भली प्रकार समाप्त हुआ। उनके वापस पहुँचने से पहले ही उनकी माताश्री संसार छोड़ चुकी थीं। पहुँचने पर उनके संस्कार का सारा कार्य निपटाया। महामानव सदैव मोह से ऊपर उठकर अपनी कर्तव्यनिष्ठा निर्वहन करते हैं।
(3) आलोचनाएँ सभी को व्यथित और विचलित कर देती हैं, किन्तु महान् पथ के राही आलोचनाओं से उदासीन रहते हैं और उनके उत्तर अपने गूढ़ मन्तव्य प्रकट कर देते हैं। पं० श्रीराम शर्मा आचार्य जी ऐसे ही महापुरुष थे। एक दिन बाहर से आये एक कार्यकर्ता ने दुःखी मन से बताया, “गुरुजी ! कुछ लोग कहते हैं कि आप ब्राह्मण न होकर बढ़ई हैं।” उन्होंने हँसते हुए कहा, “अच्छा ! पर मैं उतना ऊँचा नहीं हूँ। असल में मैं तो भंगी और धोबी हूँ।’ कार्यकर्ता को हैरान देखकर वे और जोर से हँस पड़े और बोले, “देखो, मेरा काम है संस्कृति की सफाई और धुलाई। अब हुआ न मैं भंगी और धोबी।” इस सरल-निष्कपट भाव को देख कार्यकर्त्ता हतप्रभ रह गया।
ऐसे थे महापुरुष पं० श्रीराम शर्मा आचार्य। तभी तो उनका सन्देश है-
सुधा बीज बोने से पहिले, कालकूट पीना होगा।
पहिन मौत का मुकुट, विश्वहित, मानव को जीना होगा ।।
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