लोकमान्य तिलक का संक्षिप्त परिचय
संक्षिप्त परिचय- मनोबल और दृढ़ता के प्रतीक बाल गंगाधर तिलक का जन्म 23 जुलाई, 1856 ई० को एक महाराष्ट्रीय ब्राह्मण परिवार में हुआ था। आपके पिता शिक्षक थे। इन्होंने ‘केसरी’ और ‘मराठा’ नामक दो समाचार-पत्र प्रकाशित किये थे।
(1) दुर्भाग्य का सामना साहस से करना चाहिए– “स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा।” 1907 ई० में कांग्रेस के सूरत अधिवेशन में यह गर्जना करने वाले, बाल गंगाधर तिलक को 22 जुलाई को अंग्रेज जज ने छ: साल के लिए कालेपानी की सजा सुनाई।
मांडले स्थित काल-कोठरी में उन्होंने ‘गीता रहस्य’ नामक गद्य की रचना की। मांडले में रहते हुए उन्हें 7 जुलाई, सन् 1912 को हुई अपनी पत्नी की मृत्यु का तार मिला। तिलक को गहरा आघात लगा। चालीस वर्षों की सहचारिता का अन्त हो गया था। उन्होंने अपने भतीजे को लिखा, “तुम्हारे तार से बहुत बड़ा और गहरा धक्का लगा।……..होनी बलवान थी। मेरे जीवन का एक अध्याय समाप्त हुआ।” उन्होंने अपनी पुत्रियों और पुत्रों को धीरज देने के उद्देश्य से लिखा, उनसे भी छोटा था जब अनाथ हो गया था। दुर्भाग्य का सामना साहस के साथ करना चाहिए।”
आप विश्वास करेंगे कि इन विषम परिस्थितियों में भी तिलक ने सन् 1914 में अपनी सजा खत्म होने तक जेल में चार सौ पुस्तकें संचित की थीं। कितनी विलक्षणा, आत्म-संयम शक्ति व धैर्य के धनी थे, तिलका।
(2) झूठ कैसे बोलूँगा?- मनुष्य में गुण हों तो लोक स्वत: ही उसे मान्यता प्रदान कर देता है, उसे ‘लोकमान्य मान लेता है। ऐसे लोकमान्य व्यक्ति को किसी से यह कहने नहीं जाना पड़ता कि तुम मुझे मान्यता प्रदान करो, मेरा आदर करो।
तिलक महाराज-लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक एक ऐसे ही महान् पुरुष थे। अपने सद्गुणों के कारण वे सकल लोक के ‘मान्य’ महापुरुष बन गए।
उनके छात्र जीवन का एक प्रसंग यह सिद्ध करता है कि वे बाल्यकाल से ही कितने उज्ज्वल चरित्र के धनी थे। विनय, सत्यभाषण, परिश्रम, लगन-ये सभी सद्गुण उनमें आरम्भ से ही कूट-कूट कर हुए थे। उन दिनों वे एक छात्रावास में रहकर अध्ययन करते थे।
छात्रावास का जीवन-काल बड़ा आनन्दमय होता है। छात्र-छात्राओं के मन में उमंग होती है, उल्लास होता है, भाँति-भाँति के रंगीन सपने होते हैं अपने-अपने भविष्य के।
उस दिन अवकाश था। सभी छात्र आनन्द-उल्लास में डूबे हुए थे। सभी छात्र इतने मग्न थे कि किसी को अपना कमरा साफ-सुथरा करने की मानो फुरसत ही नहीं थी। किसी के कमरे में मूंगफली के छिलके बिखरे थे तो किसी के कमरे में केले-नारंगी के।
कुल मिलाकर सब के कमरे गन्दे थे और सभी मौज-मस्ती में डूबे हुए थे।
केवल एक छात्र सुबह सबेरे ही अपने कक्ष को पूर्णरूपेण स्वच्छ-साफ-सुथरा और व्यवस्थित करके बाहर बरामदे में बैठकर अध्ययन कर रहा था।
छात्रावास के वार्डन ने पास ही अपने बंगले से छात्रों का शोर-शराबा सुना और डपटकर कहा-
“अरे शैतानों! यह धमाचौकड़ी बन्द कर दो और जाओ अपने-अपने कमरे साफ करो।”
डाँट खाकर सभी छात्र अपने-अपने कमरे में चले गये और सफाई में जुट गये।
वार्डन ने देखा कि सब छात्र तो आज्ञा मानकर तुरन्त चले गए किन्तु एक निकम्मा छात्र अब भी जहाँ का तहाँ बैठा है। वार्डन क्रोधित हुए और उस छात्र के पास आकर बोले-
“कैसे लड़के हो तुम ? तुमने सुना नहीं कि मैंने क्या कहा ?”
“गुरुजी, आपने कमरे की सफाई करने की आज्ञा दी है। वह तो मैं सुबह ही कर चुका हूँ। प्रतिदिन पहला कार्य यही करता हूँ। अब पढ़ाई कर रहा हूँ।”
वार्डन ने सोचा कि लड़का झूठ बोल रहा है। वे अधिक डाँटते बोले-
“आज्ञा भी नहीं मानते और झूठ भी बोलते हो?”
“नहीं गुरुजी, झूठ बोलना तो आपने मुझे सिखाया ही नहीं, तब मैं झूठ कैसे बोलूँगा? हमेशा सत्य ही बोलता हूँ। आप चलकर खुद देख लीजिए।”
वार्डन साहब पर उस छात्र के आत्मविश्वासपूर्ण कथन का बहुत प्रभाव पड़ा। उन्हें विश्वास हो गया। प्रेमपूर्वक छात्र का कन्धा थपथपाते हुए उन्होंने कहा-
“तिलक! मैं तेरे नेत्रों की चमक को देख रहा हूँ। तेरे शब्दों की शक्ति को पहचान रहा हूँ। मुझे तेरा कमरा देखने की अब आवश्यकता नहीं। तू कभी झूठ नहीं बोल सकता। पढ़ो, बेटे, पढ़ो।”
वार्डन आगे बढ़ गये। और वह छात्र-तिलक महाराज तो इतने आगे बढ़े कि सारा भारतवर्ष उनके समक्ष विनत हो गया।
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