स्वामी विवेकानंद का संक्षिप्त परिचय
संक्षिप्त परिचय- युगपुरुष स्वामी विवेकानंद का जन्म बंगाल में 12 जनवरी 1863 को हुआ था। उनका बचपन का नाम नरेंद्रनाथ दत्त था। आपके पिता विश्वनाथ दत्त कलकत्ता (कोलकाता) के प्रसिद्ध वकील थे। स्वामी जी बाल ब्रह्मचारी थे, उनकी स्मरण शक्ति विलक्षण थी। स्वामी विवेकानंद रामकृष्ण परमहंस के प्रिय शिष्य थे। महात्मा रामकृष्ण परमहंस की मृत्यु के उपरांत स्वामी विवेकानंद ने ‘रामकृष्ण मिशन’ की स्थापना की और मिशन के माध्यम से मानव सेवा करते हुए 4 जुलाई, 1902 को स्वामी जी का देहान्त हो गया।
11 सितम्बर, 1893 ई० को अमेरिका के शिकागो नगर मेंस्थित कला-भवन संस्थान के कोलम्बस सभा-भवन में मात्र पाँच शब्दों का चमत्कारी भाषण देने वाले स्वामी विवेकानन्द के जीवन के दो प्रेरणादायक प्रसंगों का वर्णन इस प्रकार है-
(1) सेवा-भाव तथा करुणा का संगम – बाल्यावस्था में नरेन कोर (उनका बचपन का नाम), को व्यायाम का बड़ा चाव था। वे नवगोपाल मिश्रा की व्यायामशाला में रोज व्यायाम के लिए जाया करते थे। व्यायामशाला का स्वामी, नरेन और उसके मित्रों से इतना प्रभावित था कि उसने व्यायामशाला का समस्त प्रबन्ध-कार्य उनके ऊपर ही छोड़ रखा था।
एक दिन नरेन और उसके मित्र एक बहुत भारी झूला लगा रहे थे और एक बड़ी भीड़ उनका यह करतब देखने के लिए वहाँ एकत्रित हो गई। वहाँ उपस्थित एक अंग्रेज नाविक को नरेन ने अपनी सहायता के लिए पुकारा; जैसे ही नाविक आगे बढ़ा, झूला अचानक उसके ऊपर आ गिरा तथा वह मूर्छित हो गया। यह समझकर कि नाविक मर गया भीड़ वहाँ से तितर-बितर हो गई।
परन्तु कर्त्तव्यपालन एवं करुणा के वशीभूत होकर नरेन वहीं खड़ा रहा। उसने अपने कौपीन में से कपड़ा फाड़कर, नाविक के जख्म की सफाई की तथा उस पर पट्टी बाँध दी। कुछ व्यक्तियों की सहायता नरेन उस घायल नाविक को समीप की एक पाठशाला में ले गया और एक डॉक्टर को बुला लाया।
लगभग एक सप्ताह तक नरेन उस नाविक की सेवा में एक माँ की तरह लगा रहा। नाविक के स्वस्थ हो जाने पर नरेन ने आसपास के लोगों से कुछ धन इकट्ठा किया तथा उस नाविक के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करने के लिए यह धन उसे भेंट किया। यह घटना विवेकानन्द जी में सेवाभाव तथा करुणा के सद्गुणों की साक्षी है।
(2) निडरता एवं तत्काल बुद्धि का साकार रूप – कलकत्ता (कोलकाता) में एक दिन एक सम्भ्रान्त महिला एक घोड़ा-बग्गी में बैठी हुई थी। बग्गी का कोचवान जैसे ही उससे नीचे उतरा, घोड़ा बग्गी को ले उड़ा। बग्गी में बैठी महिला तो आतंक की मारी चिल्ला पड़ी।
बिना कोचवान के तेजी से दौड़ती बेकाबू बग्गी को देखकर लोगों ने सड़क पर इधर-उधर भागना शुरू कर दिया। सब अपनी जान बचाने को भाग रहे थे। किसी भी व्यक्ति ने मुसीबत में फँसी बेचारी महिला को बचाने का प्रयत्न नहीं किया। शोर सुनकर, नरेन भी सड़क पर आए। उन्होंने एक ही क्षण में स्थिति को भाँप लिया तथा तय कर लिया कि क्या करना है।
अपनी सुरक्षा की चिन्ता किए बिना, वे बग्गी की ओर दौड़ पड़े। जैसे ही वे बग्गी के समीप पहुँचे, उछलकर उसमें कूद गए। कोचवान की गद्दी पर बैठकर, उन्होंने घोड़ों की लगाम सँभाली और उनको नियन्त्रित कर लिया। धीरे से बग्गी रोककर उन्होंने महिला की प्राण-रक्षा की। महिला ने उनके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट की। पूरी भीड़ उनकी निडरता एवं तत्काल बुद्धि की प्रशंसा में लगी हुई थी।
स्वामी जी कहते थे कि मैंने मोक्ष की प्राप्ति के लिए संन्यास नहीं लिया, बल्कि मानव सेवा के लिए ही लिया है। दीन-दुखियों की सेवा करना ही एक संन्यासी का लक्ष्य है। स्वामी जी जाति, वर्ण, सबलता तथा दुर्बलता के भेदभाव को मिटाकर सभी स्त्री-पुरुष एवं बालक-बालिका को यह सिखाना चाहते थे कि सभी के हृदय में अनन्त आत्मा विद्यमान है। अत: कर्म के द्वारा सभी व्यक्ति महान बन सकते हैं।
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