समाजशास्‍त्र / Sociology

व्यवस्थापिका की परिभाषा | व्यवस्थापिकाओं का संगठन

व्यवस्थापिका की परिभाषा
व्यवस्थापिका की परिभाषा

व्यवस्थापिका की परिभाषा

व्यवस्थापिकाओं का विकास लोकतंत्र की स्थापना के साथ ही हुआ है, किन्तु अगर इसका व्यापक अर्थ लें तो ये काफी प्राचीन संस्थायें लगती है। व्यापक अर्थ में व्यक्तियों का वह समूह, जो कोई प्रतिनिधात्मक आधार नहीं रखते हुये भी शासक को नियम निर्माण में सलाह, सहायता या प्रेरणा देने का कार्य करता है, व्यवस्थापिका कहा जाता है। एलेनबाल ने इस संबंध में लिखा है कि ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाए तो सभाओं का जन्म कार्यपालिका के लिये परामर्शदात्री निकायों की आवश्यकता के रूप में हुआ है। पर आधुनिक समय में ऐसे परामर्श मंडल, जो सामान्यतया तानाशाओं के इर्द-गिर्द एकत्र रहते हैं, को विधानमण्डल नहीं कहा जाता है। आधुनिक काल में इसका विशेष अर्थ में प्रयोग किया जाता है तथा एक विशेष प्रकार का व्यक्ति संगठन ही व्यवस्थापिका के नाम से जाना जाता है।

व्यवस्थापिका सामूहिकता के विचार के रूप में यह संकेत देती है कि इसमें व्यक्तियों स्थानों या संस्थाओं का प्रतिनिधित्व तत्व अनिवार्यतः पाया जाना चाहिए। अतः व्यवस्थापिका सभाएँ प्रतिनिधि संरचनाएं कहीं जा सकती है। यह किसका कितना और किस प्रकार का प्रतिनिधित्व करती हैं, इसकी विस्तार से चर्चा की गयी है। साधारण शब्दों में व्यवस्थापिका की परिभाषा इस प्रकार की जा सकती है व्यवस्थापिका व्यक्तियों का ऐसा सामूहिक संगठन है जो कानून बनाने के अधिकार से मुक्त होता है। इस परिभाषा से स्पष्ट है कि व्यवस्थापिका के लिये प्रतिनिधात्मक रूप रखना आवश्यक नहीं है। अगर विधानमण्डलों के के प्रारंभिक चरणों को देखें, तो हमें यही देखने को मिलेगा कि लम्बी अवधि तक विधानमण्डल प्रतिनिधि संस्थाओं के रूप में नहीं रहे हैं। ब्रिटेन की संसद जिसे संसदों की जननी कहा जाता है तथा जहाँ से व्यवस्थापिका सभाओं के विचार का विश्व में विस्तार व प्रसार हुआ, वह आज भी सही अर्थों में प्रतिनिधात्मक नहीं है। क्योंकि लार्ड सभा के सदस्य निर्वाचित नहीं होने के कारण अपने अलावा और किसी का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं। लोक सदन (house of commons) भी 1928 तक प्राधिनिधात्मक नहीं था। हम विधानमंडल के संगठन के आधार संबंधी इस प्रश्न पर विस्तार से आगे विचार करेगें इसलिये हम अपनी परिभाषा में विधानमण्डल केवल उन्हीं व्यक्ति संगठनों को कहेंगे, जो एक निश्चित भू-भाग से संबंधित समाज के लिये कानून बनाने व नीति संबंधी निर्णय लेने की वैध सत्ता रखते हैं। व्यवहारवादियों के शब्दजाल का उपयोग करें तो यह कहा जा सकता है कि विधान-मण्डल समाज विशेष के लिये मूल्यों के अधिकाधिक वितरण करने की शक्ति से युक्त व्यक्ति-संगठन है।

व्यवस्थापिकाओं का संगठन (Organisation of Legislatures)

व्यवस्थापिका सभाओं के संगठन के बारे में आगे विवेचन करने से पहले इनके संगठन के आधारों का संक्षिप्त वर्णन आवश्यक लगता है।

व्यवस्थापिकाओं के संगठन के आधार (The Basis of Organisation of Legislatures) – व्यवस्थापिका सभाओं व संगठन के अनेक आधारों की चर्चा की जाती है। हम यहाँ पर इनके संगठन के केवल दो आधारों का ही विवेचन आवश्यक मानते हैं, क्योंकि आधुनिक विधानमण्डलों के संगठन के आधारों के रूप में इन दो के ही कारण इनकी प्रकृति, भूमिका और महत्व निर्धारित होता है इसलिये हम आधारों के विवेचन को इन दो तक ही सीमित रखेगें। विधान मण्डलों के संगठन का पहला आधार प्रतिनिधित्व का और दूसरा राजनीतिक दलों का माना जाता है। व्यवस्थापिकाओं के संगठन के इन दोनों आधारों का विस्तार से विवेचन करना इसके महत्व को समझने के लिये आवश्यक है-

(क) प्रतिनिधित्व का आधार (The representation basis)- ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाए तो व्यवस्थापिकाओं के विकास के मूल में प्रतिनिधित्व की अवधारणा ही प्रमुख रही है। हर लोकतांत्रिक राज्य में विधानमण्डल का गठन प्रतिनिधित्व के सिद्धांतों पर ही आधारित होता है, किन्तु स्वेच्छाधारी शासन व्यवस्थाओं में विधानमण्डलों का गठन सही अर्थों में इस आधार पर नहीं होता है इस प्रकार की शासन व्यवस्थाओं में अधिकतर नामांकित सदस्यों से ही विधानमण्डल गठित होते हैं। इन देशों में जहाँ निर्वाचन को अपनाया जाता है वहाँ भी स्वतंत्र तथा निष्पक्ष निर्वाचन द्वारा उनका गठन नहीं होता है किन्तु सभी लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में विधानमण्डलों का संगठन-आधार प्रतिनिधित्व ही होता है। ऐसा देखा गया है कि जिन देशों में विधान-मण्डलों के गठन का आधार प्रतिनिधित्व नहीं होता है वहां भी इसकी मांग की जाती है जो कभी-कभी क्रांति का रूप तक ले लेती है। इससे स्पष्ट होता है कि प्रतिनिधित्व का व्यवस्थापिकाओं के संगठन में महत्वपूर्ण स्थान रहता है।

प्रतिनिधित्व किस प्रकार का हो, इस पर विचार किया जाता रहा है। अठारवीं शताब्दी से ही प्रतिनिधित्व भौगोलिक आधार पर होता आया है, किन्तु बीसवीं सदी की पेशेवर पेचीदगियों को ध्यान में रखते हुये विधानमण्डलों में प्रतिनिधित्व के भौगोलिक आधार के स्थान पर पेशेवर आधार पर बल दिया जाने लगा है। इटली में मुसोलिनी ने 1930 में तथा फ्रेन्कों सरकार ने दुबारा नया संविधान बनाते समय 1945 में पेशेवर प्रतिनिधित्व की मुसोलिनी की तरह ही व्यवस्था की थी पर दोनों ही अवस्थाओं में यह पेशेवर प्रतिनिधित्व केवल नाम से ही रहा था परन्तु पेशेवर प्रतिनिधित्व का प्रयोग युगोस्लाविया के 1963 के संविधान द्वारा जिस तरह व्यवस्थित किया गया वह बहुत कुछ सफल रहा है। इस संविधान के अनुसार यूगोस्लाविया की संघीय सभा जो कि वहाँ कि व्यवस्थापिका है, छः सदनों से मिलकर बनती है। इनमें दो सदन- संघीय सदन तथा राष्ट्रीयताओं का सदन, अन्य सांसदों के सदनों की तरह ही हैं तथा क्रमशः जनसंख्या व संघ की इकाइयों के आधार पर संगठित होते हैं किन्तु अन्य चार सदन (1) आर्थिक सदन (2) शैक्षणिक तथा सांस्कृतिक सदन (3) सामाजिक कल्याण तथा स्वास्थ्य सदन (4) संगठनात्मक राजनीतिक सदन, पेशेवर सदन हैं जो विशेष हितों व पेशों को प्रतिनिधित्व देने के लिये गठित किये गये हैं। यद्यपि इनका संगठन व क्षेत्राधिकार कुछ पेचीदगियाँ उत्पन्न करता है परन्तु कुल मिलाकर यह व्यवस्था आज भी वहां संतोषजनक ढंग से कार्य कर रही है।

(ख) राजनीतिक दलों का आधार (Political Parties as basis of organisation)- राजनीतिक दल व दल पद्धतियों से संबंधित कई विचार प्रस्तुत किये जा चुके हैं। राजनीतिक दल लोकतांत्रिक देशों में तो व्यवस्थापिकाओं के संगठन का मौलिक आधार बन गये हैं। यह विधानमण्डलों के न केवल बाहरी संगठन का आधार है। अपितु इनका आंतरिक संगठन भी दलीय आधार पर ही होता है। राबर्ट सी. बोन ने ठीक ही लिखा है कि सरकार के किसी भी व्यवस्थापिका विभाग के संगठन में दल का तथ्य जो चाहे नकारात्मक अर्थ मे या सकारात्मक अर्थ में लिया जाये। एक ऐसा उत्प्रेरक है जो उन्हें विषय-परिधि प्रदान करता है और विधानमण्डल की क्रियात्मकता को संभव बनाता है। आधुनिक व्यवस्थाओं में इस कारण से दल पद्धति का प्रकार राजनीतिक दलों का आकार व उनकी विचारधारा की भूमिका का आधार, विधान मण्डलों की प्रकृति का निर्णायक व नियामक होने लगा है।

आधुनिक समय में निर्वाचन व्यक्तिगत आधार पर नहीं होकर राजनीतिक दलों के आधार पर होता है। मतदाता के सामने किसी भी नीति-विकल्प का निर्धारण करने की व्यवहार में स्वतंत्रता नहीं रहती हैं। वह केवल राजनीतिक दलों द्वारा प्रस्तुत नीति विकल्पों में से किसी एक का चयन करने की स्वतंत्रता रखता है। अतः संसदों के संगठन का व्यवहारिक आधार राजनीतिक दल ही बन गये हैं। दलों का विधानमण्डलों के आन्तरिक संगठन व कार्य संचालन में तो और भी अधिक महत्वपूर्ण हाथ रहता है उदाहरण के लिये, ब्रिटेन की संसद में लोकसदन का स्पीकर तथा भारत की संसद की ‘लोकसभा का स्पीकर’ अपने प्रभाव व सम्मान में बहुत अंतर रखते है। इस अंतर को राजनीतिक दल के साथ ‘स्पीकर’ के सम्बन्ध के आधार पर ही समझा जा सकता। है। अतः विधानमण्डलों के संगठन में ये दो आधार- प्रतिनिधित्व का आधार व राजनीतिक दलों का आधार, अत्यधिक महत्व रखते हैं।

हर देश में विधानमण्डल के कार्य, भूमिका व महत्व में अंतर पाया जाता है। एक तरफ ब्रिटेन का लोकसदन है जो आज भी दलीय अनुशासन व एक दल के स्पष्ट बहुमत के बावजूद राजनीतिक व्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। विकासशील राज्यों में व्यवस्थापिकाओं के संगठन का यह आधार बहुत कमजोर होने के कारण संसदें कार्यपालिकाओं की आज्ञाकारी संस्थायें बन गयी हैं। इसलिये एक लेखक ने विकासशील राज्यों की संसदों को संगठन के ठोस दलीय आधार के अभाव के कारण, कानून बनाने वाली संस्थाओं के स्थान पर कानून की स्वीकृति देने वाली संस्थायें कहा है।

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