राज्य की परिभाषा
सामाजिक जीवन में राज्य व राजनैतिक संस्थाओं की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। समाज का विकसित रूप राज्य है, जिसका निर्माण मनुष्य ने अपनी सुख-सुविधा व सुरक्षा के लिये किया है। राज्य सरकार व कानून को मिलाकर जिन राजनैतिक संस्थाओं का निर्माण होता है उनमें से राज्य का सबसे प्रमुख स्थान है, जिससे सारा समाज व सामाजिक जीवन प्रभावित होता है। राज्य के महत्व की विवेचना करते हुये फेयरचाइल्ड ने लिखा है कि राज्य समाज का वह अभिकरण, पहलू व संस्था है जो कि शक्ति का प्रयोग करने के लिये मान्य एवं पूर्ण है। शक्ति का प्रयोग व किसी समाज के सदस्यों को नियंत्रित करने अथवा किसी अन्य समाजों के विरुद्ध कर सकता है।” कुछ विद्वानों का मत है कि राष्ट्र अनिवार्य रूप से एक स्वतंत्र राज्य है। हक्सले और हेडन के अनुसार “राष्ट्र एक समूह है जिसमें मनुष्य एक साझी संस्कृति, इतिहास, परम्पराओं, भावनाओं के भूभाग में रहते हैं।”
गार्नर के अनुसार- “राष्ट्र सांस्कृतिक समरूपता वाला एक समूह है, जिसमें मानव जीवन व कार्यों की एकता के प्रति चेतना पाई जाती है।”
मैकाइवर के अनुसार – “राज्य ऐसी संस्था होती है जो कानून तथा सत्ता पक्ष के द्वारा क्रियान्वित होती है। राज्य में एक निश्चित सामाजिक भू-भाग में सामाजिक व्यवस्था बनाकर रखने के अधिकार भी प्राप्त होते हैं।”
इन सबके विपरीत मार्क्सवादी चिन्तक लेनिन की राज्य के प्रति बिल्कुल अलग परिभाषा है जिसको वर्ग के आधार पर दिया गया है।
लेनिन के अनुसार “राज्य वर्ग विरोधों की असाध्यता की उपज और अभिव्यक्ति है। वहीं पर कार्लमार्क्स का राज्य के प्रति कहना है कि – “राज्य वर्ग प्रभुत्व का निकाय है तथा एक वर्ग (बुजुर्गा वर्ग) द्वारा दूसरे वर्ग (मजदूर या सर्वहारा) के उत्पीड़न का निकाय है तथा यह एक ऐसी व्यवस्था है जो इस उत्पीड़न को विधिक तथा मजबूत बनाने में सहयोग करती है।”
इस प्रकार से यह स्पष्ट हो जाता है कि राज्य एक ऐसी संस्था है जो सत्तापक्ष के रूप में होती है अर्थात् सत्ता ही राज्य है। इस संस्था के पास अपनी बात मनवाने के लिये बल (सुरक्षा दलों के रूप में) तथा अधिकार दोनों ही होते हैं। इस प्रकार सत्ता या राज्य अपने नियम-कानून | मनवाने के लिये सक्षम होता है तथा अपनी आवश्यकतानुसार इन शक्तियों का प्रयोग भी करता है। अतः राज्य का अर्थ राजनैतिक शक्ति के रूप में होता है जबकि राष्ट्र या देश एक निश्चित भूभाग को परिलक्षित करता है। राष्ट्र या देश कबीलों तथा छोटे-छोटे समूहों का आधुनिक सुसज्जित स्वरूप मात्र है वहीं पर सत्ता को परिभाषित करने के लिये राज्य या राज्य सत्ता का प्रयोग आज के समाज में किया जाता है। राज्य एक ऐसी सामाजिक संस्था है जो चेतना के द्वारा एक विशाल जनसमूह को एक सूत्र में पिरोकर रखती है तथा सामाजिक नियंत्रण में एक महत्वपूर्ण भूमिका में रहती है।
राजनैतिक संस्थायें निम्न प्रकार से समाज व सामाजिक जीवन को प्रभावित करती हैं जिसे राज्य का समाजशास्त्रीय महत्व भी कहा जा सकता है।
1. राज्य सामाजिक नियंत्रण की भूमिका को भली-भाँति ढंग से पूर्ण करते हैं।
2. राज्य समाज सुरक्षा की व्यवस्था का कार्य भी करते हैं।
3. व्यक्ति को विकास के अवसर प्रदान करने का कार्य भी राज्य व्यवस्था के अन्तर्गत आता है।
4. सामाजिक प्रगति की व्यवस्था का निर्माण करना।
5. सामाजिक न्याय की व्यवस्था करना।
6. राज्य मौलिक अधिकारों की व्यवस्था भी करते हैं।
7. आर्थिक व्यवस्था का निर्माण करना ।
8. राज्य के अन्तर्गत कानून निर्माण की प्रक्रिया भी सम्मिलित है।
राज्य की उत्पत्ति के सिद्धांत
व्यक्ति एवं समाज का विकसित एवं संगठित रूप राज्य है जिसमें निश्चित भूभाग, सरकार, संप्रभुता इत्यादि की व्यवस्था पायी जाती है। राज्य की उत्पत्ति के संबंध में विभिन्न विद्वानों ने अलग-अलग विचार व्यक्त किये हैं। गिलक्राइस्ट ने अपनी कृति Principles of Political Science में ठीक ही लिखा है कि, “राजनैतिक चेतना के उदय की परिस्थितियों के विषय में हम इतिहास से बहुत कम अथवा बिल्कुल नहीं जानते। जहाँ इतिहास असफल हो जाता है, वहाँ हम कल्पना का सहारा लेते हैं अर्थात राज्य की उत्पत्ति कब, कैसे और क्यों हुई, इस संबंध में दार्शनिकों एवं राजनीति-शास्त्रियों ने ‘काल्पनिक रूप से विचार व्यक्त किये हैं जिन्हें राज्य की उत्पत्ति के सिद्धांत के नाम से संबोधित किया जाता है। राज्य की उत्पत्ति के कुछ सिद्धांतों का उल्लेख निम्नलिखित हैं-
1. देवीय सिद्धांत (Divine Theory)
राज्य की उत्पत्ति का दैवीय सिद्धांत अत्यंत प्राचीन है, इस सिद्धांत के समर्थक जैलीनेक स्टुअर्ट जेम्स, रॉबर्ट फिल्मर आदि हैं। इस सिद्धांत की प्रमुख मान्यता है कि राज्य एक ईश्वरीय संस्था है, ईश्वर धरती पर अपने प्रतिनिधि के रूप में राजा को प्रजा जनों पर शासन करने के लिये भेजता है। इस सिद्धांत के अनुसार यह माना जाता है कि राजा की इच्छा ही कानून है तथा राजा जनता के प्रति नहीं बल्कि ईश्वर के प्रति उत्तरदायी होता है। जेम्स प्रथम ने कहा, राजा लोग पृथ्वी पर परमात्मा की श्वास लेती हुयी मूर्तियाँ हैं।
2. शक्ति सिद्धांत (Power Theory)
इस सिद्धांत के समर्थक यूनानी सोफिस्ट. हिटलर मुसोलिनी इत्यादि हैं। प्रकृति से समाज में दो तरह के व्यक्ति होते हैं सबल तथा निर्बल। संबल वर्ग निर्बल वर्ग पर शासन करता है तथा निर्बल वर्ग अपनी सुरक्षा के लिये उसके आधिपत्य को स्वीकार भी करता है।
3. सिद्धांत (Patriarchal Theory)
सर हेनरीमेन डिग्विट् आदि विद्वान पितृसत्तात्मक सिद्धांत के समर्थक हैं। सर हेनरीमेन का मानना है कि प्रारंभिक समाज में समाज की इकाई व्यक्ति न होकर परिवार होता था। वंश परम्परा का निर्धारण पिता के आधार पर होता था। पारिवारिक और सामाजिक क्षेत्र में स्त्रियों को कोई अधिकार नहीं थे। संपूर्ण सत्ता परिवार के प्रधान मुखिया में केन्द्रित होती थी तथा इसी आधार पर आगे चलकर राज्य का विकास हुआ। इस प्रकार परिवार से जाति का, जातियों से समाज का, समाज से राज्य का विकास हुआ है।
एक गृहस्थी पितृ प्रधान परिवार समान नस्ल के व्यक्तियों की एक जाति राष्ट्र इसी प्रकार फ्रांसीसी विद्वान डिग्विट ने लिखा है ‘परिवार का प्राकृतिक मुखिया है। यह अपने छोटे से राज्य का राज्यपाल होता है और परिवार के सदस्यों पर राज्य करता है। प्राचीन नगर छोटे-छोटे परिवारों से बनी एक राजनीतिक इकाई होती थी, जिनमें सारी शक्ति एक वृद्ध पिता के हाथों में होती थी।
4. मातृसत्तात्मक सिद्धांत (Matriarchal Theory)
इस सिद्धांत के समर्थक क्रमशः मैक्लेनॉन, मार्गन ब्रिफाल्ट, जैक्स तथा बैकोफन हैं। इस सिद्धांत की मुख्य मान्यता यह है कि प्रारंभिक समाज की स्थिति मातृसत्तात्मक थी जिसमें स्त्रियों की प्रधानता थी। पारिवारिक व्यवस्था तथा वंशपरम्परा का निर्धारण स्त्रियों के आधार पर होता था। वर्तमान समय में भी कुछ जनजातियों में इस प्रकार की मातृसत्तात्मक व्यवस्था पायी जाती है।
5. सामाजिक संविदा का सिद्धांत (Social Contract Theory)
राज्य की उत्पत्ति के इस सिद्धांत के समर्थक हॉब्स, लॉक व रूसो हैं। इस सिद्धांत की प्रमुख मान्यता है कि राज्य की उत्पत्ति मनुष्यों के पारस्परिक समझौते के कारण हुयी है।
थामस हॉब्स ब्रिटिश दार्शनिक, जिन्होंने अपनी पुस्तक ‘Leviathan’ में इस सिद्धांत का उल्लेख किया। आपका विचार है कि मानव स्वभाव से स्वार्थी, झगडालू एवं अंहकारप्रिय होता है जिसके कारण परिवार की आरम्भिक अवस्था में अराजकता थी। प्राकृतिक अवस्था से मनुष्य जब अत्यधिक परेशान हो गया तो इससे बचने के लिये आपस में सामाजिक संविदा कर व्यवस्थित समाज तथा राज्य का निर्माण किया।
जान लाक ब्रिटिश दार्शनिक ने अपने सिद्धान्तों का उल्लेख अपनी पुस्तक The two Treatises on Government में किया है। जॉन लॉक का कहना है कि मनुष्य स्वभाव से एक सामाजिक प्राणी है तथा उसमें प्रेम, सहानुभूति, सहयोग, दया आदि की प्रवृत्तियाँ पायी जाती हैं। लॉक के अनुसार समाज की प्रारम्भिक अवस्था में मनुष्य इनका उपभोग करता था किन्तु यह स्थिति पूर्णरूप से उसके सामाजिक जीवन के अनुकूल नहीं थी, इसलिये मनुष्यों ने अपनी सुविधाओं को दूर करने के लिये परस्पर संविदा कर राज्य का निर्माण किया ।
जीन जैक्स रूसो फ्रांसीसी विचारक, जिसने अपनी पुस्तक The Social Contract में अपने संविदा संबंधी विचारों का उल्लेख किया। रूसों का मानना है कि प्रारंभिक समाज में मनुष्य के कार्य बुद्धि से संचालित न होकर, संवेगों से संचालित होते थे। इन संवेगों में आत्मरक्षा तथा दया का संवेग प्रमुख था। रूसो कहता है कि समाज की प्रारंभिक अवस्था आदर्श बर्बर की थी, मनुष्य बर्बरता का जीवन तो व्यतीत करता था किन्तु वह स्थिति श्रेष्ठ व आदर्श थी। मानव समाज ‘का जैसे-जैसे विकास होता गया वैसे-वैसे उसमें बुराइयाँ आने लगी जिनसे छुटकारा पाने के लिये मनुष्यों ने सामान्य इच्छा के आधार पर राज्य का निर्माण किया, इसीलिये रूसों ने लिखा है कि मनुष्य स्वतंत्र पैदा होता है, किन्तु फिर भी प्रत्येक जगह वह बंधन में जकड़ा है। रूसो कहता है कि अपने व पराये की भावना का विकास सभ्यता के विकास के साथ ही हुआ है। स्वयं रुसों ने लिखा है कि वह पहला व्यक्ति समाज का वास्तविक जन्मदाता था जिसने एक भूभाग को एक बाड़े में घेरकर यह कहा कि यह भूमि मेरी है और जिसे उसके कथन के प्रति विश्वास करने वाले व्यक्ति मिल गये।
Important Links
- प्लेटो प्रथम साम्यवादी के रूप में (Plato As the First Communist ),
- प्लेटो की शिक्षा प्रणाली की विशेषताएँ (Features of Plato’s Education System),
- प्लेटो: साम्यवाद का सिद्धान्त, अर्थ, विशेषताएँ, प्रकार तथा उद्देश्य,
- प्लेटो: जीवन परिचय | ( History of Plato) in Hindi
- प्लेटो पर सुकरात का प्रभाव( Influence of Socrates ) in Hindi
- प्लेटो की अवधारणा (Platonic Conception of Justice)- in Hindi
- प्लेटो (Plato): महत्त्वपूर्ण रचनाएँ तथा अध्ययन शैली और पद्धति in Hindi
- प्लेटो: समकालीन परिस्थितियाँ | (Contemporary Situations) in Hindi
- प्लेटो: आदर्श राज्य की विशेषताएँ (Features of Ideal State) in Hindi
- प्लेटो: न्याय का सिद्धान्त ( Theory of Justice )
- प्लेटो के आदर्श राज्य की आलोचना | Criticism of Plato’s ideal state in Hindi
- प्लेटो के अनुसार शिक्षा का अर्थ, उद्देश्य, पाठ्यक्रम, विधियाँ, तथा क्षेत्र में योगदान
- प्रत्यक्ष प्रजातंत्र क्या है? प्रत्यक्ष प्रजातंत्र के साधन, गुण व दोष
- भारतीय संविधान की प्रमुख विशेषताएं
- भारतीय संसद के कार्य (शक्तियाँ अथवा अधिकार)