समाजशास्‍त्र / Sociology

संविधानवाद का अर्थ | संविधानवाद की परिभाषा | संविधानवाद के आधार

संविधानवाद का अर्थ

संविधानवाद उन विचारों व सिद्धांतों की ओर संकेत करता है, जो उस संविधान का विवरण व समर्थन करते हैं, जिनके माध्यम से राजनैतिक शक्ति पर प्रभावशाली नियंत्रण स्थापित किया जा सके। संविधानवाद संविधान पर आधारित विचारधारा है, जिसका मूल अर्थ यही है कि शासन संविधान लिखित नियमों व विधियों के अनुसार ही संचालित हो व उस पर प्रभावशाली नियंत्रण स्थापित रहे। जिससे वे मूल्य व राजनैतिक आदर्श सुरक्षित रहें, जिनके लिये समाज राज्य के बंधन स्वीकार करता है। हम कह सकते हैं कि संविधानवाद शासन की वह पद्धति है जिसमे शासन जनता की आस्थाओं, मूल्यों व आदर्शों को परिलक्षित करने वाले संविधान के नियमों व सिद्धांतों के आधार पर ही किया जाये व ऐसे संविधान के माध्यम से ही शासकों के प्रतिबंधित व सीमित रखा जाये। जिससे राजनैतिक व्यवस्था की मूलआस्थायें सुरक्षित रहें और व्यवहार में हर व्यक्ति को उपलब्ध हो सकें। संक्षेप में, संविधानवाद उस निष्ठा का नाम है ज मनुष्य संविधान में निहित शक्ति रखते हैं। जिससे सरकार व्यवस्थित बनी रहती है। अर्थात् वह निष्ठा व आस्था की शक्ति, जिसमें सुसंगठित राजनैतिक सत्ता निर्धारित रहती है, संविधानवाद है।

संविधानवाद की परिभाषा

पिनोक व स्मिथ के शब्दों में, “संविधानवाद केवल प्रक्रिया या तथ्य का नाम ही नहीं है। बल्कि राजनैतिक सत्ता के सुविस्तृत समूहों दलों व वर्गों पर प्रभावशाली नियंत्रणों, अमूर्त तथा व्यापक प्रतिनिधात्मक मूल्यों, प्रतीको अतीतकालीन परम्पराओं और भावी महत्वाकांक्षाओं से सम्बद्ध भी है। मनुष्य उत्तरोत्तर व सर्वागीण विकास की आकांक्षा रखता है और इसकी व्यवस्था करने के लिये हमेशा से प्रयत्नशील रहा है। यह बहुमुखी विकास की व्यवस्था आधुनिक राज्यों में संविधान के माध्यम से संभव बनती है।”

कार्ल जे. फ्रेड्रिक ने कहा है कि व्यवस्थित परिवर्तन की जटिल प्रक्रियात्मक व्यवस्था ही संविधानवाद है। इस परिवर्तन को सरकार व नागरिक ही संभव बनाते विलियम जी. ऐन्ड्रज के अनुसार संविधानवाद इन दो प्रकार के सरकार व नागरिक तथा एक सरकारी सत्ता के दूसरी सरकारी सत्ता से संबंधों का संचालन मात्र है अर्थात् संविधानवाद सरकार व नागरिक तथा एक सरकारी सत्ता के दूसरी सरकारी सत्ता से संबंधों की ठोस व्यवस्था है। जिससे यह सभी लक्ष्ययुक्त व्यवस्थित परिवर्तन संभव बने और राजनीतिक व्यवस्था विशेष में मानव आदर्शों राजनीतिक मूल्यों व आस्थाओं को व्यवहारिकता प्रदान होती रहे।

संविधानवाद के आधार (Foundations of Constitutionalism)

विलियम जी. ऐन्ड्रज ने संविधानवाद के चार आधारों का उल्लेख किया है-

1. संस्थाओं के ढांचे और प्रक्रियाओं पर मतैक्य (Consensus on the form of Institutions and procedures)- ऐन्ड्रज की मान्यता है कि राजनीतिक संस्थाओं के – ढांचे और प्रक्रियाओं पर मतैक्य संवैधानिक सरकार के लिये विशेष महत्व रखता है अगर नागरिकों की बड़ी संख्या यह अनुभव करती हो कि सरकार का तन्त्र उनके अहित में अन्यायपूर्ण ढंग से संचालित होता है, तो वे सामाजिक संघर्षों के समाधान की व अपने आदर्शों की प्राप्ति की, सरकारी व्यवस्था स्वीकार नहीं करेगें। इससे सरकार की सत्ता क्षीण होगी और सरकार को जनता का समर्थन नहीं बल्कि विरोध मिलेगा। इसलिये संस्थाओं के ढांचे और प्रक्रियाओं पर नागरिकों में सामान्य ऐक्य आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है। सरकारी व्यवस्था के प्रति अंसतोष की स्थिति संविधानवाद के अनुकूल नहीं होगी। संविधानवाद के लिये यह आवश्यक है कि संस्थाओं की प्रकृति पर जनता में मोटी सहमति हो। इस सामान्य सहमति के अभाव में संविधान तथा संविधानवाद में साम्य नहीं रहेगा, और संविधान संविधानवाद की सुरक्षा का साधक नहीं रहकर, उसमें बाधक बन जाएगा और क्रांति का मार्ग प्रशस्त करेगा। इसलिये संविधान तथा संविधानवाद में साम्य बनाये रखने के लिये आवश्यक है कि संस्थाओं और प्रक्रियाओं पर राजनीतिक समाज के नागरिकों में मतैक्य हो।

2. सरकार के आधार के रूप में विधि-शासन की आवश्यकता पर सहमति (Agreement on the desirability of the rule of Law as basis of government)- संविधानवाद का दूसरा महत्वपूर्ण आधार शासन संचालन के नियमों पर सहमति से सम्बद्ध है। राजनीतिक समाज के नागरिकों में इस बात पर भी सहमति आवश्यक है कि सरकार के संचालन का आधार विधि का शासन ही हो । यद्यपि कुछ असामान्य परिस्थितियों में समाज में इसके प्रतिकूल मतैक्य भी हो सकता है। जैसे देश में संकट के समय में ऐसा नेता उभर सकता है जिसमें ऐसी योग्यता और अनोखी सूझबूझ हो सकती है कि जनसमुदाय उसको संविधानवाद के बंधनों से मुक्त होने दे। जर्मनवासियों ने 1933 में हिटलर के लिये और फ्रांसवासियों ने 1958 में चार्ल्स डिगॉल के समय में ऐसा किया, यद्यपि फ्रांस में संविधानवाद के ढांचे की औपचारिकता बनी रही, परन्तु यह तभी होता है जब अधिकांश जनसमुदाय की आस्था संकट विशेष का सामना करने के लिये संविधान द्वारा व्यवस्थित प्रक्रियाओं से उठ जाए। ऐसी अवस्था में समाज, राज्य के सम्पूर्ण साधनों को जुटाने के लिये संविधान के नियंत्रणों व निर्देशों की अवहेलना होने देने के लिये सहमत ही नहीं हो जाता, अपितु ऐसा करने के लिये सरकार पर दबाव तक डालता है। सामान्यतया सरकार का संचालन व निर्देशन का आधार विधि ही हो, इस पर सहमति की अवस्था में ही संविधानवाद संभव है।

3. समाज के सामान्य उद्देश्यों पर सहमति (Agreement on the general goals of the society)- संविधानवाद के विकास के लिये यह भी आवश्यक है कि राजनीतिक समाज के नागरिकों में समाज के सामान्य उद्देश्यों पर सहमति पाई जाए, परन्तु संविधानवाद पूर्व वर्णित आधारों, यह इतना महत्वपूर्ण आधार यह नहीं है क्योंकि जब संस्थाओं की प्रकृति व प्रक्रियाओं पर सहमति हो तब समाज के लक्ष्यों व गन्तव्यों का संशोधन व पुनः निर्धारण बातचीत व समझौते द्वारा किया जाना संभव है परन्तु फिर भी समाज के सामान्य उद्देश्यों पर रजामंदी का अभाव, राजनीतिक व्यवस्था में ऐसे तनाव खिंचाव व दबाव उत्पन्न कर सकता है कि दूसरे क्षेत्रों का मतैक्य खतरे में पड़कर, सम्पूर्ण संवैधानिक तन्त्र को चौपट करने का सूत्रपात कर सकता है। इसलिये ही विलियम जी. ऐन्ड्रज की मान्यता है कि उद्देश्यों पर सहमति तथा समान राजनीतिक दर्शन में आस्था संविधानवाद में ठोसता लाने के लिये आवश्यक है।

4. गौण लक्ष्यों व विशिष्ट नीति- प्रश्नों पर सहमति (Concursence in lesser goals and on specific policy questions)- गौण लक्ष्यों तथा विशिष्ट नीति- प्रश्नों पर सहमति को संविधानवाद का मूल आधार माना जाए या नहीं, इस पर लोगों में मतभेद है। यदि यह संविधानवाद के लिये अनिवार्य आधार न भी माना जाये तो भी यह तो स्वीकार करना ही होगा कि संविधानवाद की व्यवहार में उपलब्धि के लिये यह जरूरी है कि गौण उद्देश्यों व विशिष्ट नीति प्रश्नों पर भी समाज में सहमति हो, क्योंकि इन पर असहमति, वह प्रारंभिक दशा है जो संविधानवाद के भवन को धराशायी करने की पृष्ठभूमि तैयार करती है। विशिष्ट नीति प्रश्नों पर असहमति से असंतोष की वह स्थिति उत्पन्न हो सकती है जो सहमति के अन्य क्षेत्रों में भी तनाव, संदेह, और विरोध के बीज बो दे, जिससे संविधानवाद के सम्पूर्ण भवन में दरारें पड़ने लगे, जो अन्ततः उसको कमजोर कर धराशायी करने का कारण बन जाएं। हमें यह स्वीकार करना होगा कि इससे संविधानवाद रूपी भवन की सीमेन्ट में ठोसता आती है और राजनीतिक ढांचा हल्के फुल्के तनावों से हिल नहीं पाता।

संविधानवाद के उपरोक्त चारों आधार किसी भी राज्य में इसकी व्यवहारिक उपलब्धि भी आवश्यक शर्त है अगर किसी राजनैतिक व्यवस्था में ये आधार उपस्थित न हों तो संविधानवाद की व्यवस्था अधिक दिन स्थायी नहीं रह सकती है। दीर्घकालीन व सदियों से स्थापित संविधानवाद भी इन आधारों के अभाव में समाप्त हो जाता है। समाज में इन चारों आधारों पर असहमति, ठोस संविधानवाद की भी समाप्ति का कारण बन जाती है इसलिये इनका संविधानवादी व्यवस्था में आधारभूत योगदान है।

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