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पियाजे के सिद्धान्त स्वांगीकरण तथा समायोजन के संप्रत्यय की व्याख्या कीजिए।

पियाजे के सिद्धान्त स्वांगीकरण तथा समायोजन के संप्रत्यय की व्याख्या कीजिए।
पियाजे के सिद्धान्त स्वांगीकरण तथा समायोजन के संप्रत्यय की व्याख्या कीजिए।

पियाजे के सिद्धान्त स्वांगीकरण तथा समायोजन के संप्रत्यय की व्याख्या कीजिए।

पियाजे के सिद्धान्त स्वांगीकरण तथा समायोजन के संप्रत्यय- जीन पियाजे द्वारा अधिगम के क्षेत्र के अन्तर्गत संज्ञानात्मक विकास के सिद्धान्त का प्रतिपादन सन् 1952 ई. में किया गया। पियाजे का सिद्धान्त भी अवस्था सिद्धान्तों की श्रेणी में आता है। जीन पियाजे के सिद्धान्त के फलस्वरूप मनोवैज्ञानिकों का ध्यान विकास की अवस्थाओं की ओर तथा संज्ञान की ओर आकर्षित हुआ।

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जीन पियाजे ने संज्ञान के अर्थ को स्पष्ट करते हुए कहा है कि “संज्ञान व्यक्ति की क्रिया पर आधारित ज्ञान है। इसमें वातावरण के साथ सक्रिय रूप से क्रिया करके ज्ञान को अर्जित करता है।” बालक अपनी क्रियाओं के आधार पर वातावरण सम्बन्धी अनेक उद्दीपकों के सम्बन्ध में ज्ञान प्राप्त करता है। पियाजे ने अपने सिद्धान्त में ज्ञान, बुद्धि और संज्ञान को समान अर्थों में प्रयोग किया है। जीन पियाजे का मानना है कि व्यक्ति को वातावरण के साथ सफल समायोजन करने के लिये आवश्यक तत्व संज्ञान होता है। इस सिद्धान्त में पियाजे द्वारा बालक के अन्दर सक्रिय रहने वाली संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं के विकास की व्याख्या की गई है। पियाजे का मानना है कि जैसे-जैसे बालक की आयु बढ़ती है वैसे-वैसे उसके भीतर संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं का भी विकास होता जाता है। अपने सिद्धान्त में पियाजे चार अवस्थाओं (1. संवेदी पेशीय अवस्था, 2. पूर्व से क्रियात्मक अवस्था, 3. स्थूल संक्रियात्मक अवस्था व 4. औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था) से होकर गुजरते हैं इसके फलस्वरूप बालक में प्रत्येक अवस्था के दौरान ज्ञान का नवीन भण्डार विकसित होता है तथा पिछली अवस्था से प्राप्त ज्ञान में संशोधन व परिमार्जन भी होता रहता है। जैसे-जैसे बालक इन अवस्थाओं को पार करता जाता है वैसे-वैसे उसके ज्ञान में वृद्धि, संशोधन तथा परिमार्जन होता जाता है। अवस्थाओं के वर्णन के कारण ही इस सिद्धान्त को अवस्था सिद्धान्त कहा जाता है।

जीन पियाजे के संज्ञानात्मक विकास सिद्धान्त की मूल धारणा सम्प्रत्यय

जीन पियाजे के संज्ञानात्मक विकास सिद्धान्त की निम्नलिखित दो मूल धाराएँ हैं

(1) संज्ञानात्मक क्रियाएँ- कुछ क्रियाएँ जैसे स्मृति चिन्तन, तर्क, प्रत्यक्षीकरण आदि ऐसी मानसिक क्रियाएँ हैं जो बालक में जन्म से पायी जाती हैं। किसी भी विकास अवस्था में पहुँचने पर बालक के भीतर से क्रियाएँ न तो बदलती हैं और न ही समाप्त होती है। व्यक्ति में ये क्रियाएँ जीवनपर्यन्त चलती रहती हैं चूँकि विकास की सम्पूर्ण अवधि में ये क्रियाएँ सभी अवस्थाओं में अपरिचित रूप से पायी जाती हैं। इस कारण इन क्रियाएँ को अपरिवर्तन तथा अवस्था मुक्त माना गया है। जीन पियाजे का मानना है कि बालक इन्हीं मानसिक क्रियाओं की मदद से वातावरण के उद्दीपकों का ज्ञान अर्जित करता है।

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(2) संज्ञानात्मक संरचना- जीन पियाजे का मानना है कि बालक द्वारा संज्ञानात्मक क्रियाओं की मदद से अर्जित ज्ञान द्वारा व अपने विचारों, योग्यताओं, क्षमताओं, आदतों और बुद्धि आदि द्वारा अपने भीतर एक ज्ञान भण्डार का निर्माण किया जाता है। इस ज्ञान को ही संज्ञानात्मक संरचना कहा जाता है। जब बालक विकास की एक अवस्था से दूसरी अवस्था में पहुँचता है तो उसकी क्षमताओं, योग्यताओं, अनुभवों और परिपक्वता आदि में वृद्धि हो जाने के कारण उसका अर्जित ज्ञान भी बढ़ जाता है जिसके फलस्वरूप बालक की संज्ञानात्मक संरचनाओं में भी परिवर्तन हो जाता है और संज्ञानात्मक संरचना परिमार्जित एवं संवर्द्धित हो जाती है। इस प्रकार विकास की प्रत्येक अवस्था में बालक की संज्ञानात्मक संरचना में पिछली विकास की अवस्था की तुलना में आकार व गुण में वृद्धि हो जाती है। इस प्रकार ज्ञानात्मक संरचनाएँ विकास की अवस्थाओं पर आधारित होती है।

बालक द्वारा एक विकास अवस्था से दूसरी विकास अवस्था में जाने के लिये उसकी संज्ञानात्मक संरचनाओं में या ज्ञान भण्डार में वृद्धि होना आवश्यक है। जीन पियाजे का मानना है कि संज्ञानात्मक संरचनाओं में विकास के लिये निम्न दो अन्तःक्रिया रूप हैं-

(i) आत्मसातन- जीन पियाजे ने आत्मसातन की व्याख्या करते हुए कहा है कि बालक में उपस्थित विचार या बालक द्वारा अर्जित ज्ञान में नए विचार तत्वों या क्रियाओं आदि का समावेश हो जाना अथवा समन्वित हो जाने की प्रक्रिया को ही आत्मसातन कहते हैं। इसमें बालक अपने विचारों और आदतों में नए ज्ञान या विचारों को प्रयुक्त करता है। इस प्रक्रिया में बालक नई घटनाओं, वर्तमान नये विचारों आदि को पुराने विचार या अर्जित ज्ञान के एक भाग के रूप में समझता हो अर्थात् नए अनुभव को आत्मसात करने के लिये बालक पुराने अनुभवों के आधार पर परिवर्तन करके नए अनुभवों को आत्मसात या ग्रहण कर लेता है। इस प्रकार नए व पुराने अनुभव मिलकर बालक के अर्जित ज्ञान में वृद्धि करते हैं।

(ii) व्यवस्थापन एवं सन्तुलन- व्यवस्थापन को आत्मसातन की पूरक प्रक्रिया कहा जा सकता है। इस प्रक्रिया में बालक नई सूचनाओं, नए विचारों या नए अनुभवों आदि को अपने ज्ञान भण्डार के व्यवस्थित करने के लिये पुराने विचारों आदि के स्वरूप को इस प्रकार बदल कर समायोजन स्थापित करता है कि नए विचार, नई सूचनाएँ नये अनुभव नई वस्तु पुराने के साथ व्यवस्थित हो जाए। व्यवस्थापन की प्रक्रिया में बाह्य उद्दीपक में कोई परिवर्तन नहीं होता है। किन्तु नए अनुभव को पुराने अनुभव के साथ व्यवस्थित करने में व्यक्ति पुराने अनुभव में नए अनुभव के हिसाब से थोड़ा बहुत परिवर्तन करके समायोजन स्थापित करता है। बालक में जैसे-जैसे बौद्धिक वृद्धि होती है वैसे-वैसे वह नई परिस्थितियों के साथ समायोजन/ सन्तुलन स्थापित करना सीखता है जिससे बालक का बौद्धिक विकास परिपक्वता की ओर अग्रसर होता है। इस प्रकार व्यवस्थापन ही सन्तुलन कहलाता है।

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