वैश्विक तापमान में वृद्धि के कारणों, परिणामों एवं नियन्त्रण के उपायों का वर्णन कीजिए।
वैश्विक तापमान में वृद्धि— हरित गृह गैसों का उत्सर्जन, धरती के तापमान में वृद्धि के कारण आने वाले संकट का अंदाजा पर्यावरणविदों व वैज्ञानिकों को तो है परन्तु आम आदमी इसकी गंभीरता को नहीं समझ पा रहा है। विश्व पटल पर ग्लोबल वार्मिंग को लेकर गंभीर चिन्ता व चिन्तन के दौर चल रहे हैं। यदि वर्तमान स्थिति बनी रही तो बढ़ेगा पृथ्वी का तापमान, सूखेंगी नदियाँ और डूबेगी दुनिया। हाल में आयोजित जोहान्सबर्ग पृथ्वी सम्मेलन में ग्लोबल वार्मिंग गंभीर चिन्ता का विषय रहा। अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के मुखर विरोध, रूस के उदासीन रवैये के मध्य यूरोपीय संघ द्वारा विकासशील देशों के साथ मिलकर ग्लोबल वार्मिंग रोकने सम्बन्धी क्वेटो प्रोटोकाल को प्रभावी बनाने के पक्ष में गंभीर मुहिम चलायी गयी। इसका परिणाम यह रहा कि यूरोपीय देशों सहित रूस, चीन, कनाडा इस प्रोटोकाल के अनुमोदन पर सहमत हो गये। इससे पृथ्वी के बढ़ते तापमान पर अंकुश लगाने की आशा बलवती हुई है।
वैश्विक तापमान में लगातार वृद्धि हो रही है। 20वीं सदी का अंतिम दशक अब तक का सर्वाधिक गर्म दशक रहा। पृथ्वी के बढ़ते औसत ताप के चलते कल तक की कपोल कल्पित संभावनायें आज सच होने लगी हैं। बाढ़, सूखा, भीषण आँधी-तूफान, चक्रवात व मौसम परिवर्तन अब अधिक भयावह रूप लेने लगा है। अगर अगले कुछ वर्षों में पृथ्वी का तापमान बढ़ाने वाली गैसों पर प्रभावी अंकुश न लग सका तो आने वाला समय भारी उथल-पुथल वाला होने जा रहा है।
पृथ्वी के चारों तरफ वायुमण्डल है। इसमें नाइट्रोजन 78.09 प्रतिशत, ऑक्सीजन 20.95 प्रतिशत, आर्गन 0.93 प्रतिशत, कार्बन डाईऑक्साइड 0.03 प्रतिशत तथा शेष अन्य गैसें पायी जाती हैं। वायुमण्डल में पायी जाने वाली कुछ गैसों जैसे-कार्बन डाईऑक्साइड, मीथेन, नाइट्स क्लोरोफ्लोरो कार्बन, हाइड्रोफ्लोरो कार्बन, पर फ्लोरो कार्बन, ओजोन में ऊष्मा सोखने की क्षमता होती है इसीलिए इन्हें हरित गृह गैसें कहा जाता है। इन गैसों के कारण पृथ्वी पर एक विशेष तापमान की स्थिति पायी जाती है। जिसको हरित गृह प्रभाव कहा जाता है। इन गैसों की वायुमण्डल में उचित उपस्थिति पृथ्वी पर जीवन योग्य तापमान बनाये रखने के लिए जरूरी है परन्तु पिछले कुछ दशकों में इनकी बढ़ती मात्रा के चलते पृथ्वी के तापमान में विनाशकारी वृद्धि हो रही है।
वैश्विक तापमान वृद्धि का प्रभाव
वैश्विक तापमान में वृद्धि का सर्वाधिक प्रभाव ग्लेशियरों पर पड़ रहा है। बढ़ते तापमान के कारण ग्लेशियर पिघल रहे हैं। एक अध्ययन के अनुसार गंगा के जल का स्रोत गंगोत्री हिमनद सहित हिमालय के ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। तापमान बढ़ने के कारण दक्षिणी ध्रुव में महासागरों के आकार के हिमखण्ड टूटकर अलग हो रहे हैं। कुछ वर्ष पूर्व अंटार्कटिका के लार्सन हिमक्षेत्र का 500 अरब टन का एक हिमशैल टूटकर अलग हो गया। अनुमान लगाया जा रहा है. कि यदि ताप वृद्धि का वर्तमान दौर जारी रहा तो 21वीं सदी के अंत तक पृथ्वी के तापमान में 5.8 डिग्री सेन्टीग्रेड तक वृद्धि हो सकती है। इससे ध्रुवों पर जमी बर्फ तथा हिमनदों के पिघलने में समुद्र का जल स्तर 5 मीटर तक बढ़ सकता है। परिणामस्वरूप मालदीव जैसे द्वीप सहित भारत व यूरोप के कई देशों के तटीय क्षेत्र पानी में डूब जायेंगे।
ग्लेशियरों के पिघलने से सागर की सतह का तापमान बढ़ेगा, शुद्ध पानी की मात्रा घट जायेगी, अलनीनों का प्रभाव बढ़ेगा तथा वर्षा अनियमित हो जायेगी, बरसात चक्र बदल जायेगा, मौसम में भारी उलट-फेर होगा, कृषि व मत्स्य उद्योग खतरे में पड़ जायेंगे। बाढ़, तूफान, सूखा आदि की विभीषिका बढ़ेगी, मौसम गर्म होगा, बीमारियाँ व महामारियाँ फैलेंगी। प्रवाल द्वीप, कच्छ वनस्पति, सूक्ष्मजीव तथा अनेक जन्तु व वनस्पतियाँ नष्ट हो जायेंगी।
उल्लेखनीय है कि सभी ग्रीन हाउस गैसों में CO2 की उष्मायन क्षमता यद्यपि सबसे कम है तथापि वैश्विक तापमान वृद्धि में इसका योगदान अकेले 55 प्रतिशत है।
क्योटो प्रोटोकाल : अद्यतन स्थिति
1997 में जापान के क्वेटो शहर में तीसरा जलवायु परिवर्तन सम्मेलन हुआ था। इस सम्मेलन में बास्केट अप्रोच के तहत 6 हरित गृह गैसों की पहचान कार्बन डाईआक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड, हाइड्रोक्लोरो कार्बन, परक्लोरोकार्बन व सल्फर हेक्साफ्लोराइड। इनके उत्सर्जन में 1990 के स्तर से 5.2 प्रतिशत की कमी करने पर अमेरिका सहित 38 विकसित देशों ने सहमति व्यक्त की थी। विभेदनकारी व्यवस्था के अन्तर्गत अमेरिका के लिए 7% यूरोपीय संघ के लिए 8% जापान व कनाडा के लिए क्रमशः 6 व 3% कमी का कोटा निर्धारित किया गया था। भारत सहित विकासशील देशों के लिए कोई लक्ष्य निर्धारित नहीं किया गया था। इस प्रोटोकाल के अन्तर्गत कटौती 2008 से 2012 के मध्य होनी है। यह प्रोटोकाल तब प्रभावी होगा जब विश्व को सम्पूर्ण हरित गृह गैस का 55% भाग उत्सर्जित करने वाले देश जिनकी संख्या कम से कम 55 हो इस प्रोटोकाल का अनुमोदन कर दें।
हाल के वर्षों में अमेरिका तथा ऑस्ट्रेलिया के स्पष्ट विरोध के चलते इस प्रोटोकाल पर संदेह के बादल मंडराने लगे थे। यद्यपि प्रोटोकाल का अनुमोदन 89 देश कर चुके हैं परन्तु इनकी हरित हैं गृह जैसे उत्सर्जता 55% से कम है। जोहान्सबर्ग सम्मेलन में इस मुद्दे पर यूरोपीय देशों का विकासशील देशों के साथ आने से अमेरिका व आस्ट्रेलिया अलग-थलग पड़ गये। उल्लेखनीय है कि रूस ने थोड़े विरोध के बाद संधि के अनुमोदन की बात कही है। यूरोपीय यूनियन के बाद रूस, चीन व कनाडा द्वारा प्रोटोकाल के अनुमोदन के बाद उम्मीद है कि यह सन् 2004 में प्रभावी हो जायेगी।
नियंत्रणकारी उपाय
बढ़ते वैश्विक तापमान को रोकने के दो तरीके हैं। प्रथम, उन गतिविधियों को बढ़ाना जिनसे हरित गृह गैसों को सोखा जा सके। द्वितीय, उन गतिविधियों पर अंकुश लगाना जिनसे हरित गृह गैसों का उत्सर्जन होता है। पौधे प्रकाश संश्लेषण की क्रिया के माध्यम से वायुमण्डल की कार्बन डाईऑक्साइड को ऑक्सीजन में परिवर्तित करते हैं। अतः पौधों के विस्तार या वनीकरण से कार्बन डाईऑक्साइड कम होगी। वन तापमान भी नियंत्रित करते हैं, वर्षा की मात्रा एवं निरन्तरता बनाये रखते हैं तथा बाढ़ व आँधी तूफान की विभीषिका को नियंत्रित करते हैं। आटोमोबाइल, जीवाश्म ईंधन, कोयले, बिजली संयंत्रों, तेलशोधक कारखानों आदि से भारी मात्रा में हरित गृह गैसों का उत्सर्जन होता है। अतः ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती के लिए ऊर्जा का वैकल्पिक स्रोत के अनुप्रयोग तथा नये वैकल्पिक स्रोत खोजने पर कार्य करना होगा। ग्रीन हाउस गैसों पर नियंत्रण के लिए जन जागरूकता तथा अन्तर्राष्ट्रीय तालमेल व सहयोग और अधिक कारगार साबित हो सकते हैं। इसमें विकासशील देशों का प्रयास उतना ही जरूरी है जितना विकसित देशों द्वारा पर्यावरण सम्मेलनों में किये गये वादों पर अमल करना जरूरी है।
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