पूँजी बाजार का अर्थ और उसके उपकरण
पूँजी बाजार का अर्थ (Meaning of Capital Market)- पूँजी बाजार में विभिन्न संस्थाएँ और प्रक्रियाएँ होती हैं जिनके माध्यम से मध्यम अवधि और दीर्घावधि की निवियाँ एकत्र की जाती हैं और व्यक्तियों, व्यवसायियों तथा सरकार को ऋण दिये जाते हैं। इनमें विभिन्न प्रकार की प्रतिभूतियाँ शामिल हैं जिन्हें ऋणियों को निधियाँ प्रदान करने और निवेशकों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए खरीदा और बेचा जाता है।
संक्षेप में, पूँजी बाजार दीर्घकालीन कोषों की माँग करने वाले (ऋणियों) और उनकी पूर्ति करने वाले (ऋणदाताओं से मिलकर बना है। इस प्रकार पूँजी बाजार में निम्नलिखित दो पक्ष होते हैं
(I) पूँजी की माँग (Demand for Funds)- पूँजी बाजार में दीर्घकालीन कोषों की माँग साधारणतः निगमीय संस्थाओं और सरकार द्वारा की जाती है दीर्घकालिक साख की माँग अनेक तरह के कार्यक्रमों के वित्तीयन के लिए की जाती है। इसी तरह यदा-कदा कृषि क्षेत्र द्वारा भी दीर्घकालिक निधियों की माँग की जाती है।
(II) सरकार (Government)- सामान्यतः सरकारों (इसमें केन्द्रीय, राज्य एवं स्थानीय सभी स्तर की सरकारें शामिल है) के पास उपलब्ध वित्तीय संसाधन, उनकी आवश्यकता की तुलना में कम पड़ जाते हैं। इन वित्तीय घाटों की आपूर्ति पूँजी बाजार से संसाधन जुटा कर की जाती है।
(III) पूँजी की पूर्ति पक्ष- पूँजी बाजार में कोषों की पूर्ति व्यक्तिगत एवं संस्थागत बचतकर्ताओं तथा सरकारी आधिक्यों का उपयोग किया जाता है। मोटे तौर पर पूँजी बाजार में कोषों की पूर्ति निम्नलिखित संस्थाओं द्वारा की जाती है।
(I) व्यापारिक बैंक, (ii) भारतीय जीवन बीमा निगम, (iii) भारतीय साधारण बीमा निगम, (iv) प्राविडेण्ट फण्ड, (v) विशिष्ट संस्थाएँ; जैसे-भारतीय औद्योगिक विकास बैंक (IDBI), भारतीय औद्योगिक वित्त निगम (IFCI), भारतीय औद्योगिक साख एवं विनियोग निगम (ICICI) और यूनिट टुस्ट ट्रस्ट ऑफ इण्डिया (UTI), एवं (V) पारस्परिक निधियाँ आदि।
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पूँजी बाजार तथा मुद्रा बाजार में अन्तर (Difference between Capital Market and Money Market)
(i) पूँजी बाजार में दीर्घकालीन वित्त की व्यवस्था की जाती है, जबकि मुद्रा बाजर में तरल कोषों कीव्यवस्था तथा बैंकिंग व्यवस्था के माध्यम से इनका व्यापार तथा उद्योग में अल्पकालीन नियोजन किया जाता है।
(ii) पूँजी बाजार औद्योगिक इकाइयों के अंश पत्र, ऋण-पत्र और बॉण्ड तथा सरकार के बॉण्ड्स एवं प्रतिभूतियों; जैसे- दीर्घकालीन प्रतिभूतियों आदि उपकरणों का उपयोग किया जाता है, जबकि मुद्रा बाजार में वचन पत्र विनिमय बिल, ट्रेजरी बिल, जमा प्रमाण-पत्र, वाणिज्य कागज पत्र आदि प्रपत्रों का प्रयोग किया जाता है।
(iii) पूँजी बाजार और मुद्रा बाजार में कार्यरत संस्थाएँ एक दूसरे से पृथक होती हैं। पूंजी बाजार में वाणिज्य बैंक जनता भविष्य निधियाँ, बीमा निगम, विकास बैंक, पारस्परिक निधियाँ, निवेश ट्रस्ट आदि पूँजी बाजार प्रपत्रों में व्यवहार करते हैं, जबकि केन्द्रीय बैंक, वाणिज्य बैंक, गैर-वित्तीय मध्यस्थ तथा बिल दलाल मुद्रा बाजार में व्यवहार करते हैं।
(iv) पूँजी बाजार के उपकरणों के सामान्यतया द्वितीयक बाजार (Secondary Market) होते हैं, जबकि मुद्रा बाजार के उपकरणों के द्वितीयक बाजार नहीं होते हैं।
(v) पूँजी बाजार में औपचारिक स्थान (Formal Place) स्टॉक केन्द्र (Stock Exchange) में सौदों का लेन-देन होता है, जबकि मुद्रा बाजार में सामान्यतः फोन व ई-मेल, इण्टरनेट पर सौदे अर्थात् कोई औपचारिक स्थान नहीं होता है।
(vi) पूँजी बाजार में संव्यवहार (Transactions) केवल अधिकृत डीलर्स (authorised Dealers) के द्वारा सम्पादित किये जाते हैं, जबकि मुद्रा बाजार में बिना दलाल के सौदे सम्पादित किये जाते हैं।
(vii) पूँजी बाजार में प्रत्येक उपकरण कम मूल्य के होते हैं, जैसे प्रत्येक अंश पत्र का मूल्य रूपये 10 या रूपये 100 होता है। प्रत्येक ऋण-पत्र का मूल्य रूपये 100 या रूपये 1,000 आदि होते है जबकि मुद्रा बाजार में प्रत्येक उपकरण बड़े मूल्य का होता है; जैसे-भारत में प्रत्येक ट्रेजरी बिल का न्यूनतम मूल्य रूपये 1 लाख होता है।
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पूँजी बाजार एवं मुद्रा बाजार में परस्पर सम्बन्ध
पूँजी बाजार व मुद्रा बाजारों में परस्पर निर्भरता निम्नलिखित बिन्दुओं से स्पष्ट होती है:
(i) कुछ संस्थाएँ मुद्रा बाजार एवं पूँजी बाजार दोनों जगह काम करती हैं।
(ii) मुद्रा-लेन-देन के कुछ सौदे दोनों ही बाजारों में हो पाते हैं।
(iii) दोनों तरह के बाजारों पर केन्द्रीय बैंक का नियंत्रण रहता है।
(iv) दोनों बाजार में ब्याज दरें प्रायः समान दिशा में परिवर्तित होती हैं। यदि मुद्रा बाजार में अल्पकालिक साख की ब्याज दर बढ़ जाती है तो प्राय, पूँजी बाजार में दीर्घकालिक निधियों की भी ब्याज दर बढ़ जाती है।
(v) जब खजाना राजकोषीय प्रतिभूतियों वाले परिपक्वता बिलों को वित्तीय सहायता प्रदान करता है अथवा जब कोई बैंक परिपक्व ऋण की प्राप्ति को किसी फर्म को अल्पकालीन आधार पर देता है तो निधियाँ दोनों बाजारों के बीच इधर-उधर प्रवाहित होती हैं।
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