वाणिज्य / Commerce

भारतीय मुद्रा बाजार या वित्तीय बाजार की विशेषताएँ बताइए।

भारतीय मुद्रा बाजार या वित्तीय बाजार की विशेषताएँ बताइए।

भारतीय मुद्रा बाजार या वित्तीय बाजार की विशेषताएँ- भारतीय मुद्रा बाजार या वित्तीय बाजार की सामान्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं।

1. स्पष्ट विभाजन – भारतीय मुद्रा बाजार ‘संगठित’ एवं ‘असंगठित’ क्षेत्रों के बीच स्पष्ट रूप से विभाजित है, यद्यपि नियोजनकाल में संगठित क्षेत्र का सतत विस्तार हुआ है तथा असंगठित क्षेत्र का प्रभुत्व पर्याप्त घट गया है। मुद्रा बाजार के संगठित क्षेत्र में भारतीय रिजर्व बैंक भारतीय स्टेट बैंक तथा इसके सहायक 20 राष्ट्रीयकृत बैंक, निजी संयुक्त स्कन्थ बैंक और विनिमय बैंक सम्मिलित है। इसका असंगठित क्षेत्र में साहूकार और स्वेदशी बैंक सम्मिलित हैं। में मुद्रा बाजार के सहकारी क्षेत्र को संगठित एवं असंगठित क्षेत्रों के बीच का क्षेत्र माना जाता है।

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2. असंगठित क्षेत्र पर नियन्त्रण का अभाव- यद्यपि देश की वित्तीय संरचना में साहूकारों और स्वदेशी बैंकरों का अपना महत्व है, किन्तु ये भारतीय रिजर्व बैंक के नियन्त्रण के अन्तर्गत आने से हिचकिचाते हैं। इससे मुद्रा बाजार पर रिजर्व बैंक का नियन्त्रण शिथिल हो जाता है। यद्यपि समय-समय पर रिजर्व बैंक के साथ साहूकारों और स्वदेशी बैंकरों को जोड़ने के प्रयास किये गये हैं, तथापि ये प्रयास फलहीन रहे हैं। साहूकार और स्वदेशी बैंकर यदा-कदा अपनी कार्यवाहियों से मुद्रा बाजार को अस्त-व्यस्त कर देते हैं।

3. सहयोग एवं समन्वय का अभाव – मुद्रा बाजार के विभिन्न क्षेत्रों के बीच सहयोग और समन्वय का अभाव पाया जाता है। 1935 ई. में रिजर्व बैंक की स्थापना से पूर्व इम्पीरियल बैंक देश के केन्द्रीय बैंक के रूप में कार्यरत था। यह वाणिज्य बैंक के रूप में भी कार्य करता था। परिणामतः बैंकों के बैंक और अन्तिम ऋणदाता के रूप में इम्पीरियल बैंक की भूमिका कमजोर बनी रही। आजकल विनिमय बैंक स्वयं को पृथक् वर्ग मानते हैं। साहूकार और स्वेदशी बैंकर मुद्रा बाजार के संगठित क्षेत्र से सम्बन्धित नहीं हैं।

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4. ब्याज दरों की बहुलता- सुविकसित मुद्रा बाजार वाले देशों में प्रचलित ब्याज की दरों में अधिक अन्तर पाया जाता है। परन्तु भारतीय मुद्रा बाजार में न केवल संस्थाओं द्वारा वसूली जाने वाली ब्याज दरों से अधिक भिन्नता पायी जाती है, अपितु ये दरें मौसम के अनुसार भी बदलती रहती हैं। उदाहरणार्थ, साहूकारों और स्वदेशी बैंकरों द्वारा वसूली जाने वाली ब्याज दारों की मिश्रित पूँजी बैंकों द्वारा वसूली जाने वाली ब्याज दरों के साथ कोई तुलना नहीं ठहरती । मिश्रित पूँजी बैंकों के सम्बन्ध में भी ब्याज की दरें एकरूप नहीं हैं। इससे केन्द्रीय बैंक द्वारा लागू की जाने वाली बैंक दर नीति की कार्यक्षमता सीमित हो जाती है। विभिन्न स्थानों के बीच कोषों की अगतिशीलता को ब्याज दरों की बहुलता का प्रमुख कारण माना जा सकता है।

5. कोषों की मौसमी कठोरता- यदि नबम्बर से लेकर जून तक के व्यस्त मौसम में कोषों की न्यूनता अनुभव की जाती है, तब जून से लेकर नवम्बर तक के अव्यस्त मौसम में निष्क्रिय कोष संचित हो जाते हैं। दोनों ही प्रकार के मौसम में कोषों की पूर्ति बेलोचदार (कठोर) बनी रहती है। वस्तुतः वार्षिक साख बजट के ढाँचे के अन्तर्गत त्रैमासिक साख बजट लागू कर से मौसम के आधार पर साख स्थिति का अधिक महत्व नहीं रह जाता है। नयी बजट प्रणाली का सार साख की माँग और कोषों की पूर्ति का वार्षिक प्रारूप तैयार करना है ताकि प्रायोजित निर्गत वृद्धि एवं साख आपूर्ति के बीच अर्थपूर्ण सह-सम्बन्ध स्थापित किया जा सके। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए भारतीय रिजर्व बैंक ने व्यस्त अथवा अव्यस्त मौसम आरम्भ होने से पूर्व साख नीति घोषित करके अपना सामान्य व्यवहार छोड़ दिया है।

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6. सुविकसित विपत्र बाजार की अनुपस्थिति- रिजर्व बैंक के प्रयास के बावजूद भारत में विपत्र बाजार अविकसित बना हुआ है। सुविकसित विपत्र बाजार की अनुपस्थिति अनेक कारणों से हैं, जैसे-देश के विभिन्न भागों में लिखी जाने वाली हुण्डियों में समरूपता का अभाव, व्यापारियों और व्यवसायियों द्वारा नकद साख के रूप में ऋण की अधिक माँग, हुण्डियों पर स्टाम्प शुल्क की अधिकता, भण्डार गृहों एवं निर्गम गृहों का अभाव, हुण्डियों की पुनर्कटौती की असुविधा आदि। अविकसित विपत्र बाजार समूचे मुद्रा बाजार को तरलता से वंचित रखता है।

7. विशिष्ट वित्तीय संस्थाओं की अपर्याप्तता- यद्यपि कृषि उद्योग, व्यापार एवं आवास की वित्त व्यवस्था हेतु विगत नियोजन काल में कुछ विशिष्ट वित्तीय संस्थाएँ स्थापित हुई। हैं, तथापि आज भी भारत में बट्टा गृह, स्वीकृति गृह, बचत बैंक, विक्रय वित्त कम्पनियाँ, किराया क्रय वित्त कम्पनियाँ और साख संघ सरीखी विशिष्ट संस्थाएँ। अनुपस्थित हैं।

8. अपर्याप्त बैंकिंग सुविधाएँ- निस्सन्देह प्रमुख वाणिज्य बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद बैंक शाखाओं का तेजी से विस्तार हुआ है तथा प्रति बैंक कार्यालय के पीछे व्यक्तियों की है संख्या जनू 1969 से 65 हजार से घटकर मार्च 2018 में 15 हजार रह गयी है, तथापि देश के विस्तृत क्षेत्रफल तथा विशाल जनसंख्या को देखते हुए आज भी बैंकिंग सुविधाओं की अपर्याप्तता से इंकार नहीं किया जा सकता।

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भारतीय मुद्रा बाजार या वित्तीय बाजार के प्रकार (Indian Money Market or Types of Financial Market)

भारतीय मुद्रा बाजार को तीन भागों में बाँटा जा सकता है = (i) संगठित क्षेत्र (ii) असंगठित क्षेत्र तथा (iii) सहकारी क्षेत्र मुद्रा बाजार के संगठित क्षेत्र में भारतीय रिजर्व बैंक, भारतीय स्टेंट बैंक, विदेशी विनिमय बैंक, मिश्रित पूँजी बैंक, बीमा कम्पनियों तथा अर्द्ध सरकारी वित्तीय संस्थाओं के साथ-साथ वित्तीय मध्यस्थों को भी सम्मिलित किया जाता है। कार्यों की दृष्टि से मुद्रा बाजार के संगठित भाग के चार प्रमुख अंग होते हैं। (अ) याचना राशि बाजार (ब) वाणिज्य विपत्र बाजार (स) कोषागार विपत्र बाजार तथा (द) समपर्विक ऋण बाजार। भारतीय मुद्रा बाजार के असंगठित क्षेत्र में साहूकारों तथा देशी बैंकरों को सम्मिलित किया जाता है। इस क्षेत्र में अल्पकालीन या दीर्घकालीन ऋणों तथा उधारदान के विभिन्न उद्देश्यों के बीच स्पष्ट भेद नहीं किया जाता । इस क्षेत्र की कार्यविधि में एकरूपता का अभाव पाया जाता है। मुद्रा बाजार के सहकारी क्षेत्र में सहकारी साख समितियों, जिलों एवं राज्य सहकारी बैंकों तथा भूमि विकास बैंकों को सम्मिलित किया जाता है।

बाद हुआ। 1949 में भारतीय रिजर्व बैंक का राष्ट्रीयकरण हुआ। 1955 में इम्पीरियल बैंक का भारत में संगठित बाजार का वास्तविक विकास 1935 में रिजर्व बैंक की स्थापना के  राष्ट्रीयकरण करते हुए भारतीय स्टेट बैंक की स्थापना हुई। इससे संगठित मुद्रा बाजार के विकास में भारी सहायता मिली। जुलाई 1969 में 14 तथा अप्रैल 1980 में 6 प्रमुख वाणिज्य बैंकों का राष्ट्रीयकरण भारतीय मुद्रा बाजार को संगठित बनाने की दिशा में महत्त्वपूर्ण सरकारी प्रयास था।

कार्यों की दृष्टि से भारतीय संगठित मुद्रा बाजार को तीन भागों में बाँटा जा सकता है-

(i) याचना राशि बाजार- इस बाजार में व्यापारिक बैंकों द्वारा अति अल्पकालीन ऋणों का लेन-देन किया जाता है ।

(ii) समपाश्विक ऋण बाजार- इस बाजार में ऋणकर्त्ताओं द्वारा बैंक के पास व्यतिगत जमानत के अतिरिक्त योग्य ऋण आधार, जमानत के रूप में प्रस्तुत करना पड़ता है।

(iii) विपत्र बाजार- इस बाजार में अल्पकालीन विपत्रों का क्रय-विक्रय किया जाता है।

मुद्रा बाजार के असंगठित क्षेत्र में साहूकारों और देशी बैंकरों का प्रभुत्व है। इनकी हुण्डियों से यह पता नहीं चल पाता कि वे व्यापारिक हैं या मात्र आर्थिक सहायता देने के उद्देश्य से लिखी जाने के कारण भारत में बट्टा-गृहों एवं स्वीकृति गृहों का उचित विकास नहीं हो पाया है। व्यस्त मौसम में देशी बैंकरों को कटौती सुविधाएँ स्टेट बैंक से मिल जाती हैं। कुछ व्यापारिक बैंक भी देशी बैंकरों को कटौती सुवधाएँ प्रदान करते हैं। व्यापारिक बैंकों तथा देशी बैंकरों के मध्य सहकारी बैंकों का वर्ग है, जो ग्रामीणों को कृषि एवं लघु उद्योगों के लिये साख-सहायता प्रदान करता है। सहकारी बैंकों को विपत्रों के आधार पर रिजर्व बैंकों से भरपूर आर्थिक सहायता प्राप्त होती है।

भारतीय मुद्रा बाजार के प्रमुख अंग या संघटक

भारतीय मुद्रा बाजार के प्रमुख संघटक इस प्रकार गिनाये जा सकते हैं-(i) रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया (ii) स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया तथा उसके सहायक बैंक (iii) राष्ट्रीयकृत व्यापारिक बैंक (iv) अन्य व्यापारिक बैंक (v) विदेशी विनिमय बैंक (vi) औद्योगिक बैंक (vii) सहकारी बैंक (viii) भूमि विकास बैंक (ix) साहूकार और देशी बैंकर ।

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