वाणिज्य / Commerce

भारतीय मुद्रा बाजार के दोष अथवा वित्तीय बाजार की कमियाँ

भारतीय मुद्रा बाजार के दोष
भारतीय मुद्रा बाजार के दोष

भारतीय मुद्रा बाजार के दोष अथवा वित्तीय बाजार की कमियाँ

भारतीय मुद्रा बाजार या वित्तीय बाजार के दोष- भारतीय मुद्रा बाजार या वित्तीय बाजार की सामान्य विशेषताएँ ही उसके दोष हैं। भारतीय मुद्रा बाजार के प्रमुख दोष निम्नलिखित है-

1. मुद्रा बाजार के विभिन्न अंगों के बीच सहयोग का अभाव- हमारे देश में – कोई अखिल भारतीय मुद्रा-बाजार नहीं है। अधिकांश मुद्रा-बाजार स्थानीय हैं जिनके बीच सम्पर्क एवं सहयोग का अभाव है। मुद्रा बाजार के विभिन्न अंगों के बीच प्रतिस्पर्धा विद्यमान है। मुद्रा बाजार के एक ही क्षेत्र के सदस्यों में भी आपसी असहयोग देखा जा सकता है। उदाहरणार्थ भारतीय स्टेट बैंक और व्यापारिक बैंक, विदेशी विनिमय बैंक तथा मिश्रित पूँजी बैंक एक-दूसरे को अपना प्रतिस्पर्द्धां समझते हैं। यद्यपि बैंकिंग विधान के विकास में विभिन्न बैंकों की उधारदान एवं निवेश नीतियों तथा ब्याज दरों में बहुत कुछ एकरूपता आयी है, तथापि उनके बीच की प्रतियोगिता पूर्णतः समाप्त नहीं हो सकी है।

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2. असंगठित क्षेत्र पर रिजर्व बैंक का नियन्त्रण नहीं- मुद्रा बाजार के संगठित भाग की साख सुविधाएँ बड़े-बड़े किसानों, उद्योगपतियों तथा व्यापारियों को ही सुलभ है। मुद्रा बाजार के असंगठित भाग पर भारतीय रिजर्व बैंक का किसी भी तरह का नियन्त्रण नहीं है, यद्यपि बैकिंग विधान के अन्तर्गत रिजर्व बैंक को मुद्रा बाजार के संगठित और सहकारी क्षेत्रों पर नियन्त्रण के विस्तृत अधिकार प्राप्त हैं। साहूकार और स्वदेशी बैंकरी यदा-कदा अपनी कार्यवाहियों से बाजार को अस्त-व्यस्त कर डालते हैं। मुद्रा

3. विशिष्ट वित्तीय संस्थाओं का अभाव- भारतीय मुद्रा बाजार में विशिष्ट वित्तीय संस्थाओं जैसे-बट्टा-गृहों, स्वीकृति-गृहों, विक्रय-वित्त कम्पनियों, किराया क्रय-वित्त कम्पनियों, बचत बैंकों, साख संघों आदि) का अभाव बना हुआ है। फलतः न तो कृषि, उद्योग एवं व्यापार के लिये उचित मात्रा में साख मिल पाती है और न विपत्रों का प्रयोग ही बढ़ पाता है।

4. ब्याज दरों में भिन्नता- भारतीय मुद्रा बाजार के संगठित भाग में प्रचलित ब्याज की दरें असंगठित भाग में प्रचलित ब्याज की दरों से भिन्न होती हैं। बड़े-बड़े व्यापारिक और औद्योगिक केन्द्रों में प्रचलित ब्याज दरें छोटे-छोटे नगरों और कस्बों में प्रचलित ब्याज की दरों से भिन्न होती हैं। ब्याज की दरों में मौसमी भिन्नता भी पायी जाती है। ब्याज दरों से मित्रता के कारण रिजर्व बैंक को अपनी बैंक दर नीति में सफलता नहीं मिल पाती है।

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5. बैंकिंग सुविधाओं की अपर्याप्तता- द्वितीय महायुद्ध से पूर्व तक भारत में वाणिज्य बैंकों के प्रबन्धकों का दृष्टिकोण शाखाएँ स्थापित करने के सम्बन्ध था। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद वाणिज्य बैंकों ने शाखाएँ स्थापित करने का कार्यक्रम चालू किया। 1951 ई. में स्टेट बैंक की स्थापना तथा 1969 ई. में प्रमुख वाणिज्य बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बहुत रूढ़िवादी बाद ग्रामीण और अर्द्ध-शहरी क्षेत्रों में शाखा विस्तार कार्यक्रम पर विशेष बल दिया गया है। परन्तु देश के विस्तृत क्षेत्रफल तथा विशाल जनसंख्या को देखते हुए आज भी कुलज मिलाकर बैंकिंग सुविधाओं की सामान्य अपर्याप्ता से इन्कार नहीं किया जा सकता।

6. संगठित विपत्र बाजार का अभाव- देश के विभिन्न भागों में लिखित हुण्डियों में समरूपता का अभाव, व्यापारियों एवं उधारकर्त्ताओं द्वारा नकद साख के रूप में ऋण की अधिक हुण्डियों पर स्टाम्प शुल्क की अधिकता, भण्डार गृहों एवं निर्गम गृहों का अभाव हुण्डियों की पुनर्कटौती की असुविधा आदि कारणों से में विपत्र बाजार का समुचित विकास नहीं हो सका है। फलतः मुद्रा बाजार और साखरूपी यन्त्र का सुविधापूर्वक संचालन कठिन हो गया है।

7. मुद्रा बाजार का मौसमी स्वरूप- भारतीय मुद्रा बाजार में प्रतिवर्ष नवम्बर से लेकर जून तक के व्यस्त मौसम में धन की कमी रहती है, जिसके कारण ब्याज की दर ऊँची हो जाती है। इसके विपरीत जुलाई से लेकर अक्टूबर तक के अव्यस्त मौसम में मुद्रा और साख की माँग कम हो जाने के कारण ब्याज की दर नीची हो जाती है। दोनों ही प्रकार के मौसम में मुद्रा और साख की पूर्ति बेलोचदार रहती है, जिसका देश के आर्थिक विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

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भारतीय मुद्रा बाजार या वित्तीय बाजार में सुधार के उपाय (Suggestions for Improvements)

भारतीय मुद्रा बाजार में विद्यमान त्रुटियों को सुधारने के लिए निम्न उपाय सुझाये जा सकते हैं-

1. भण्डार गृहों का निर्माण- भारतीय बैंकों को माल की जमानत पर ऋण देने में विशेष कठिनाई होती है क्योंकि उनके पास अपने भण्डार गृह नहीं हैं। ऋण व्यवसाय को सुविधाजनक बनाने के लिए बैंकों द्वारा अनुज्ञापत्र युक्त भण्डार गृहों का निर्माण किया जाना चाहिए। इस कार्य में राज्य सरकारें आवश्यक सहायता और प्रोत्साहन दे सकती हैं।

2. साख पत्रों की पुनर्कटौती सुविधाओं का विस्तार- वाणिज्य पत्रों तथा ऋण पत्रों के प्रयोग को बढ़ावा देने के लिये साख पत्रों की पुनर्कटौती सुविधाओं का विस्तार किया जाना चाहिए। अभी तक रिजर्व बैंक इस तरह की सुविधाएँ सीमित मात्रा में ही प्रदान कर सका है, क्योंकि उसके द्वारा केवल विशिष्ट श्रेणी के विपत्रों की पुनर्कटौती की जाती है। मुद्रा-बाजार के विकास हेतु मुद्दती विपत्रों की पुनर्कटौती तथा उनके आधार पर उधरदान सुविधाओं का विस्तार किया जाना चाहिए।

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3. हुण्डियों का मानवीकरण- विपत्र बाजार के विकास तथा देशी हुण्डियों के प्रयो को बढ़ावा देने के लिये हुण्डियों का मानवीकरण किया जाना चाहिए अर्थात् हुण्डियों की भाषा और लेखन विधि में एकरूपता लायी जानी चाहिए। इससे बैंकों के लिए हुण्डियों की वास्तविक प्रकृति समझने में सुविधा होगीं।

4. देशी बैंकरों का नियन्त्रण- साहूकारों तथा देशी बैंकरों को रिजर्व बैंक के सीधे नियन्त्रण के अन्तर्गत लाया जाना चाहिए। अन्य बैंकों की तरह देशी बैंकरों को भी रिजर्व बैंक ऋण तथा अन्य प्रकार की सुविधाएँ मिलनी चाहिए। साहूकारों और देशी बैंकरों का रजिस्ट्रेशन होना चाहिए।

5. समाशोधन गृहों का पुनर्गठन- साख पत्रों के प्रयोग को बढ़ावा देने तथा बैंकों के आपसी लेन-देन को सुगमतापूर्वक निपटाने के लिये समाशोधन गृहों का गुणत्मक एवं परिमाणात्मक दृष्टि से पुनर्गठन किया जाना चाहिए।

7. प्रेषण सुविधाओं का विस्तार- रिजर्व बैंक तथा स्टेट बैंक द्वारा देश के विभिन्न भागों में प्रेषण सुविधाओं का विस्तार किया जाना चाहिए, ताकि धन का लेन-देन सरलता से हो सके तथा व्यापारिक सुविधाओं में वृद्धि हो ।

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8. स्वीकृति गृहों एवं बट्टा गृहों की स्थापना- विपत्र बाजार के विकास हेतु भारत में स्वीकृति गृहों एवं बट्टा गृहों (जो लन्दन मुद्रा बाजार में संगठित विपत्र बाजार विकसित करने में सहायक रहे हैं।) की स्थापना का भी सुझाव दिया जाता है। इस सुझाव को स्वीकार करने से पूर्व हमें यह तथ्य समझ लेना चाहिए कि भारत में लन्दन सरीखे मुद्रा बाजार का निर्माण अव्यवहारिक होगा, जैसा कि पल्मपत्रे ने लिखा है, “विकासशील देशों की आवश्यकता वित्तीय परिपक्वता की सजावट करना नहीं है, अपितु उन्हें ऐसी संस्थाओं की आवश्यकता है, जो उनके आर्थिक एवं राजनीतिक आधार से जुड़ी हो । स्वल्प पूँजी को अत्यन्त आवश्यक प्रयोगों में आवण्टित करने की आवश्यकता के साथ बाजारों की स्थापना एवं विकास पूँजी की अस्त-व्यस्तता एवं बर्बादी को जन्म दे सकती है।’

विगत वर्षों में रिजर्व बैंक ने भारतीय मुद्रा बाजार के दोषों के निराकरण का प्रयास किया है तथा इस दिशा में उसे बहुत कुछ सफलता भी मिली है। कृषि, उद्योग, विदेशी व्यापार एवं आवास के वित्त प्रबन्धन हेतु विशिष्ट संस्थाओं की स्थापना हुई है। ग्रामीण और अर्द्ध-शहरी क्षेत्रों में बैंक शाखाओं का तेजी से विस्तार हुआ है। रिजर्व बैंक ने विपत्र बाजार स्कीम आरम्भ की है तथा ब्याज दरों की भिन्नता समाप्त करने का प्रयास किया है। आजकल यह गैर बैंकिंग वित्तीय क मध्यस्थों के क्रियाकलापों को नियन्त्रित करने में रुचि ले रहा है। इन सब प्रयासों से मुद्रा बाजार से में संगठित क्षेत्र का प्रभुत्व बढ़ा है तथा असंगठित क्षेत्र का प्रभुत्व घटा है।

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