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वित्तीय प्रणाली की अवधारणा | वित्तीय प्रणाली के प्रमुख अंग अथवा संघटक

वित्तीय प्रणाली की अवधारणा
वित्तीय प्रणाली की अवधारणा

वित्तीय प्रणाली की अवधारणा

वित्तीय प्रणाली की अवधारणा- किसी अर्थव्यवस्था में विनियोगकर्त्ता तथा वित्त की माँग करने वालों के मध्य सेतु के रूप में जो तन्त्र कार्य करता है, उसे ही वित्तीय प्रणाली कहा जाता है। इसके अन्तर्गत बचत, विनियोग, विनियोगों का प्रभावपूर्ण आबंटन तथा वित्तीय संसाधन विकास आदि तत्व सम्मिलित किये जाते हैं। वित्तीय प्रणाली के माध्यम से बचत एवं विनियोग को गतिमान कर आर्थिक विकास के लक्ष्य प्राप्त किये जाते हैं। देश के विनियोगों के माध्यम से पूँजी निर्माण की गति बढ़ायी जा सकती है, फलस्वरूप उत्पादन में वृद्धि होती है, उत्पादन में वृद्धि के कारण आय में वृद्धि होती है, आय वृद्धि से पुनः विनियोग में वृद्धि होती है और नवीन विनियोग आय का सृजन करता है। इस प्रकार कोष के इस चक्राकार प्रवाह से अर्थव्यवस्था को विकास की ओर प्रवृत्त किया जाता है।

वित्तीय प्रणाली के माध्यम से आर्थिक विकास के लक्ष्य प्राप्त किये जा सकते है। आर्थिक विकास के फलस्वरूप पूँजी निर्माण होता है, नये-नये उद्योगों का विकास होता है। उद्यमियों को लाभ प्राप्त होता है। समाज के हर वर्ग के लिये आय एवं रोजगार में वृद्धि होती है, फलस्वरूप बचत की मात्रा बढ़ती है। सुदृढ़ वित्तीय प्रणाली के कारण बैंकिंग आदत का विकास होता है, फलस्वरूप सम्पूर्ण बचत विनियोग में परिवर्तित होती है। यह विनियोग आर्थिक अभाव वाली इकाइयों की वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं, परिणामस्वरूप आय सृजन की दर बढ़ने लगती है। आय में वृद्धि वित्तीय प्रणाली के फलस्वरूप विनियोग की जनक होती है। नवीन विनियोग अर्थव्यवस्था में पूँजी निर्माण की गति बढ़ाते हैं। अतएव उत्पादन वृद्धि दर भी बढ़ने लगती है और आय एवं रोजगार में वृद्धि होती है तथा आर्थिक विकास के लक्ष्य को प्राप्त किया जाता है।

निष्कर्ष- देश के आर्थिक विकास में सुदृढ़ वित्तीय प्रणाली की महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती है। देश की प्रभावपूर्ण माँग को पूरा करने हेतु बचत एवं विनियोग को गति प्रदान कर आधिक्य क्षेत्र तथा अभाव क्षेत्र में सेतु का कार्य कर संसाधनों को सन्तुलित ढंग से आबंटित कर विकास की गति को वित्तीय प्रणाली के माध्यम से तीव्र किया जाता है।

वित्तीय प्रणाली के प्रमुख अंग अथवा संघटक

भारत की वित्तीय प्रणाली के मुख्य अंग का वर्णन इस प्रकार है-

1. वित्तीय बाजार- वित्तीय बाजार ऐसी व्यवस्था है जो वित्तीय सम्पत्तियों का लेन देन सुविधाजनक बनाती है। इसके अन्तर्गत मुद्रा बाजार तथा पूँजी बाजार की क्रियायें सम्मिलित होती हैं। इन वित्तीय बाजारों में बॉण्ड, सरकारी प्रतिभूतियाँ, अंश-पत्रों आदि प्रपत्रों का लेन-देन होता है। अल्पकालीन तथा मध्यकालीन प्रपत्रों के लेन-देन की व्यवस्था को मुद्रा बाजार कहा जाता है। दीर्घकालीन अवधि के प्रपत्रों का जहाँ लेन-देन होता है वह पूँजी बाजार कहलाता है। इसी प्रकार वित्तीय बाजार में नवीन निर्गमनों का क्रय-विक्रय किया जाता है तो वह प्राथमिक वित्तीय बाजार कहलाता है। जब मौजूदा वित्तीय प्रपत्रों का क्रय-विक्रय होता है तो वह द्वितीयक मुद्रा बाजार कहलाता है। यह वित्तीय बाजार संगठित क्षेत्र तथा असंगठित क्षेत्र में होता है।

वित्तीय बाजार का वर्गीकरण, उन्हें बेचे तथा खरीदे जाने वाले प्रपत्रों के आधार पर भी किया जा सकता है। इनके अन्तर्गत ऋण बाजार, शेयर बाजार तथा वित्तीय सेवा बाजार आते है। ऋण बाजारों में वित्तीय निधियाँ प्राप्त होती हैं। शेयर बाजार के माध्यम से स्थायी निधि संग्रहित होती है। यह बाजार अवधि के आधार पर भी वर्गीकृत किये जाते हैं जो अल्पकालीन, माध्यमकालीन और दीर्घकालीन कहलाते हैं। वित्तीय बाजारों में दलालों, बैंकों, गैर बैंकिंग वित्तीय संस्थाओं तथा रिजर्व बैंक के द्वारा लेन-देन किया जाता है। वित्तीय सेवा बाजारों का उपयोग बैंक तथा दलाल करते हैं। बैंक जमायें संग्रहित करने तथा ऋण देने सम्बन्धी वित्तीय सुविधाएँ देते हैं, साथ ही पूँजी बाजार के प्रमुख शेयर, बॉण्ड, ऋणपत्र का क्रय-विक्रय करते हैं। सामान्यतया बैंकों द्वारा प्रथम निर्गमन का ही लेन-देन किया जाता है। द्वितीयक सेवा दलालों द्वारा प्रदान की जाती है।

2. वित्तीय संस्थायें- वित्तीय बाजार में जो संस्थायें क्रियाशील रहकर वित्तीय प्रपत्रों के क्रय-विक्रय में सहायक होती हैं, वे वित्तीय संस्थायें कहलाती हैं। वित्तीय बाजार में सक्रिय संस्थायें सामान्यतः दो तरह का कार्य करती हैं। प्रथम जमायें स्वीकार करना तथा द्वितीय गैर जमाओं सम्बन्धी कार्य। इसी आधार पर वित्तीय संस्थाओं को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। जमायें स्वीकार करने वाली संस्थायें जैसे व्यापारिक बैंक, बचत एवं ऋण संगठन, म्यूचुअल बचत बैंक, सहकारी साख संस्थायें आती हैं जो व्यक्तियों, फर्मों, कम्पनियों से नकद रूप में जमायें स्वीकार करती हैं और उन्हें आवश्यकतानुसार ऋण एवं अग्रिम भी प्रदान करती हैं।

इसी प्रकार वित्तीय बाजार में गैर जमा संस्थायें भी होती हैं, जो वित्तीय मध्यस्थों के रूप में वित्तीय बाजार में कार्य करती हैं। यह संस्थायें जोखिम के विरुद्ध बीमा करने वाली कम्पनियाँ होती हैं जो दीर्घकालीन कार्यों हेतु धन उधार देती हैं, जैसे-गृह निर्माण के लिये ऋण प्रदान करना आदि। बीमा कम्पनियाँ जीवन बीमा, वाहन बीमा, अग्नि बीमा, दुर्घटना बीमा आदि के माध्यम से धनराशि संग्रहित करती हैं तथा दीर्घकालीन कार्यों हेतु निवेश करती हैं। इसके अतिरिक्त स्थानीय सरकारों, केन्द्र तथा राज्य सरकार द्वारा कर्मचारियों के लिये कोष संग्रहीत किया जाता है। यह पेन्शन कोष सरकार द्वारा दीर्घकालीन सम्पत्तियों में निवेश किया जाता है। गैर जमा संस्थाओं के अन्तर्गत म्यूचुअल फण्ड भी आता है जो मुद्रा बाजार के अन्तर्गत क्रियाशील होता है तथा अल्पकालीन परिसम्पत्तियों में निवेश किया जाता है। यह सभी संस्थाओं गैर जमा संस्थाएँ के रूप में विभाजित की जा सकती हैं।

3. वित्तीय साधन- वित्तीय बाजार के अन्तर्गत जिन प्रपत्रों के माध्यम से कोषों का विनियोजन होता है वे वित्तीय साधन कहलाते हैं। वित्तीय साधनों को अवधि के आधार पर विभाजित किया जाता है। मुद्रा बाजार के वित्तीय साधन अल्पकालीन तथा मध्यमकालीन श्रेणी के होते हैं। इनमें प्रतिज्ञा-पत्र, विनिमय बिल, ट्रेजरी बिल, अल्प अवधि सूचना मुद्रा व्यापारिक प्रपत्र, व्यापारिक प्रपत्र, जमा प्रमाण-पत्र आदि आते हैं। पूँजी बाजार में दीर्घकालीन अवधि के वित्तीय साधन सम्मिलित किये जाते हैं जिसमें अंश-पत्र, ऋण-पत्र, बॉण्ड, स्टॉक तथा दीर्घ अवधि की सरकारी प्रतिभूतियाँ सम्मिलित की जाती हैं।

4. वित्तीय सेवायें – वित्तीय बाजार में वित्तीय संस्थाओं द्वारा बाजार सम्बन्धी कई सेवायें प्रदान की जाती हैं। ये सेवायें वित्तीय सेवायें कहलाती हैं। ऋणों की गॉरटी देना, अंशों का अभिगोपन करना, बिलों की कटौती करना, रिजर्व बैंक द्वारा वित्तीय संस्थाओं को पुनर्वित्तीय आदि सेवायें, वित्तीय सेवाओं के अन्तर्गत आती हैं। वित्तीय संस्थाओं द्वारा प्रदत्त सेवाओं को वित्तीय सेवा बाजार की संज्ञा दी जाती है।

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