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राजस्व का अर्थ, परिभाषा,क्षेत्र, प्रकार, प्रकृति | राजस्व को विज्ञान एवं कला के रूप में

राजस्व का अर्थ
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राजस्व का अर्थ | Meaning of public Finance in Hindi

राजस्व का अर्थ (Meaning of public Finance)- राजस्व शब्द दो उपशब्दों से मिलकर बना है-राजन+स्व । ‘राजन् ‘ का अर्थ है ‘राजा’ तथा ‘स्व’ का अर्थ है ‘धन’। इस प्रकार ‘राजस्व’ का अर्थ है ‘राजा का धन’ । इस प्रकार राजस्व के अन्तर्गत हम राजा के धन का अध्ययन करते हैं अर्थात् राजा धन कहाँ से लाता है और कहाँ खर्च करता है, इन सब बातों का अध्ययन राजस्व या वित्तीय प्रणाली के अन्तर्गत किया जाता है।

अग्रेंजी का शब्द ‘Public Finance’ भी दो उपशब्दों से मिलकर बना है-Public + Finance, ‘Public’ का अर्थ है ‘जनता’ तथा Finance’ का अर्थ ‘थन’। इस प्रकार ‘Public Finance’ का अर्थ हैं ‘जनता का धन’। इस प्रकार Public Finance के अन्तर्गत हम जनता के धन का अध्ययन करते हैं ।

इस प्रकार यदि हम हिन्दी शब्द ‘राजस्व’ को लेते हैं तो अर्थ निकलता है कि इस विषय के अर्न्तगत हम राजा के धन का अध्ययन करते हैं और यदि अंग्रेजी शब्द को लेते हैं तो अर्थ निकलता है कि इसमें हम जनता के धन का अध्ययन करते हैं। तो अब हमारे सामने यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि इसमें राजा के धन का अध्ययन करते हैं अथवा जनता के धन का ? वास्तविकता यह है कि इसमें हम न तो राजा के व्यक्तिगत धन का अध्ययन करते हैं और न ही जनता के व्यक्तिगत धन का, बल्कि जनता का प्रतिनिधित्व करने वाली केन्द्र स्तर पर केन्द्र सरकार, राज्य स्तर पर राज्य सरकार तथा स्थानीय स्तर पर स्थानीय सरकार के वित्त अर्थात् उसके आय-व्यय का अध्ययन करते हैं।

राजस्व की परिभाषा 

राजस्व की भिन्न-भिन्न अर्थशास्त्रियों ने भिन्न-भिन्न परिभाषाएँ दी हैं जो कि निम्नलिखित हैं-

1. डॉ. डाल्टन के अनुसार, “राजस्व का सम्बन्ध लोक सत्ताओं के आय और व्यय से तथा एक दूसरे के साथ समायोजन से है।”

2. बैस्टेबिल के अनुसार, “राजस्व सार्वजनिक सत्ताओं के आय-व्यय उनके पारस्परिक सम्बन्ध वित्तीय प्रशासन एवं नियन्त्रण से सम्बन्ध, रखता है।”

3. फिन्डले शिराज के मतानुसार, “राजस्व सार्वजनिक संस्थाओं की आय की प्राप्ति तथा व्यय से सम्बन्धित सिद्धान्तों का अध्ययन है।”

4. श्रीमती उर्सला हिक्स ने अनुसार, “लोक वित्त के अध्ययन में उन पद्धतियों और प्रणालियों का विश्लेषण किया जाता है, जिसके अनुसार प्रशासनिक संस्थाएँ जन साधारण के हित में धनराशि एकत्र करके सामूहिक सुख सुविधाओं की व्यवस्था करती हैं।’

5. ए. स्मिथ के अनुसार, “राजकीय व्यय और राजकीय आय की प्रकृति तथा उसके सिद्धान्तों की खोज को लोक वित्त कहते हैं। ” 6. एच. एल. लुट्ज के अनुसर, “लोक वित्त उन साधनों की व्यवस्था, सुरक्षा और वितरण का अध्ययन करता है, जो राजकीय अथवा प्रशासनिक कार्यों को चलाने के लिये आवश्यक होते हैं। “

7. प्लेहन के अनुसार, “राजस्व रयजकोषीय आय-व्यय की नीतियों का एक अध्ययन हैं। “

8. डी. मार्को के अनुसार, “राजस्व राज्य की उन उत्पादक क्रियाओं का अध्ययन करता है जिनका उद्देश्य सामूहिक आवश्यकताओं को पूरा करना होता है। “

निष्कर्ष – “वित्तीय प्रणाली अर्थशास्त्र की वह शाखा है जिसमें केन्द्र स्तर पर केन्द्र सरकार, राज्य स्तर पर राज्य सरकारों तथा स्थानीय स्तर पर स्थानीय सरकारों के आय व्यय तथा ऋण आदि से सम्बन्धित सिद्धान्तों, नीतियों, समस्याओं और प्रक्रियाओं का अध्ययन किया जाता है।”

राजस्व के क्षेत्र तथा प्रकार

राजस्व का क्षेत्र बहुत व्यापक है, जिसे हम अध्ययन की सुविधा के लिए छः अनुभागों या प्रकारों में बाँट सकते हैं जिसे वित्तीय प्रणाली की संरचना कहते हैं।

1. सार्वजनिक व्यय – राजस्व के इस अनुभाग में सार्वजनिक व्यय के विभिन्न उद्देश्यों, वर्गीकरण, सिद्धान्तों तथा राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था पर इसके विभिन्न प्रभावों आदि का अध्ययन किया जाता है। प्लेहन के मतानुसार, ‘राजस्व में ‘सार्वजनकि व्यय’ का वही महत्त्व है जो अर्थशास्त्र में ‘उपभोग’ का है।’ ‘सार्वजनिक व्यय सार्वजनिक आय एकत्र करने तथा राज्य की अन्य समस्त क्रियाओं का आदि एवं अन्त है। यदि सार्वजनिक व्यय की उपेक्षा की गयी, तब राज्य की अन्य सभी क्रियाओं के उद्देश्य समाप्त हो जायेंगे। यद्यपि सार्वजनिक व्यय की धाराओं का निश्चय राजनीतिशास्त्र द्वारा होता है, तथापि नीतिशास्त्र के सिद्धान्त को ध्यान में रखते हुए उसका स्वरूप, मात्रा तथा प्रभाव लोक वित्त का विषय है। राज्य के कार्यों में निरन्तर वृद्धि होने के कारण राजस्व में सार्वजनिक व्यय का महत्त्व दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। प्राचीन लेखकों ने सार्वजनिक व्यय पर विशेष ध्यान नहीं दिया था, क्योंकि उस समय राजकीय व्यय का ठीक प्रकार से वर्गीकरण नहीं हुआ था और राजकीय व्यय को निर्धारित करने वाले सिद्धान्तों का निरूपण नहीं हुआ था। डाल्टन का भी मानना है कि “प्राचीन अंग्रेज अर्थशास्त्रियों ने सार्वजनिक व्यय नीति के सिद्धान्तों के सम्बन्ध में बहुत कम लिखा है।”

अतः स्पष्ट है कि इन अर्थशास्त्रियों के लिये इस नीति का कोई महत्त्व नहीं था। सार्वजनिक व्यय की आवयश्यकता ध्यान में रखते हुए वर्तमान युग ‘ में इसके महत्त्व को स्वीकार किया गया।

2. सार्वजनिक आय- राजस्त के इस अनुभाग में राजकीय आय के विभिन्न स्रोतों तथा उनसे सम्बन्धित समस्याओं का अध्ययन किया जाता है। सार्वजनिक आय से राज्य को वे साधन प्राप्त होते हैं, जिनसे वह अपना समस्त कार्य तत्परता और कुशलतापूर्वक संचालित करता  है। ‘कराधान’ सार्वजनिक आय का प्रमुख स्रोत है। कराधान क्यों किया जाता है, इसके प्रमुख स्वरूप क्या हैं, यह किन सिद्धान्तों पर आधारित होना चाहिए, अर्थव्यवस्था पर कराधान के क्या-क्या प्रभाव पड़ते हैं तथा समाज के विभिन्न वर्गों पर किस प्रकार कर मार डाला जाये, आदि महत्त्वपूर्ण प्रश्नों का अध्ययन राजस्व के इस अनुभाग में किया जाता है।

3. सार्वजनिक ऋण- वर्तमान युग में राज्य के कार्यों में इतनी अधिक वृद्धि हो गयी है कि उन्हें पूरा करने के लिए कराधान से वांछित आय प्राप्त नहीं हो पाती तथा ऋण की शरण लेनी पड़ती है। सार्वजनिक ऋण एक तरह से सार्वजनिक आय का ही अंग है, तथापि इसका पृथक अध्ययन इसीलिए किया जाता है कि जहाँ अन्य साधनों से प्राप्त आय लौटायी नहीं जाती, वहीं सार्वजनिक ऋण से प्राप्त आय निश्चित अवधि के पश्चात् लौटानी पड़ती हैं। राज्य किन सिद्धान्तों के आधार पर ऋण प्राप्त करता है, सार्वजनिक ऋण के क्या उद्देश्य होते हैं, सार्वजनिक ऋण के विभिन्न स्वरूप क्या हैं तथा इन्हें प्राप्त करने के क्या तरीके हैं, सार्वजनिक ऋणों का भुगतान कैसे किया जाता है आदि बातों का अध्ययन इस अनुभाग में किया जाता है। वर्तमान समय में विकासशील देशों में सार्वजनिक ऋण नीति विकास के सन्दर्भ में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर रही है।

4. वित्तीय प्रशासन – राजस्व के इस अनुभाग में सरकार की वित्तीय क्रियाओं के प्रबन्ध (बजट-निर्माण) और लेखा परीक्षण) का अध्ययन किया जाता है दूसरे युद्ध के पश्चात् लोक वित्त में वित्तीय प्रशासन का महत्व अधिक बढ़ गया है। बेस्टेबिल (Bastable) के शब्दों में, “हमें प्रक्रियाओं (Processes) का ही निरीक्षण नहीं करना है अपितु उस यन्त्र का भी निरीक्षण करना है, जिसके द्वारा ये प्रक्रियाएँ आगे बढ़ायी जाती हैं। तब तक कोई भी वित्तीय ग्रन्थ पूर्ण नहीं हो सकता है, जब तक कि इनमें बजट की समस्याओं का वित्तीय प्रशासन पर विचार न किया गया हो।” सरकार वित्तीय क्रियाओं का प्रबन्ध किस प्रकार करती है, बजट कैसे तैयार किया जाता है, बजट निर्माण के क्या उद्देश्य होते हैं, घाटे का बजट और आधिक्य के बजट का क्या महत्व है, आदि बातों का अध्ययन राजस्व के इस अनुभाग में किया जाता है।

5. आर्थिक विकास- आर्थिक विकास हेतु राजकोषीय नीति का अध्ययन राजस्व की विषाय सामग्री का प्रमुख अंग है। अल्पविकसित देशों की प्रमुख समस्या अर्थव्यवस्था को निर्धनता के दुष्चक्र से मुक्ति दिलाने की होती है, जो नियोजित विकास द्वारा सम्भव है। ए. .आर. प्रैस्ट (A. R. Prest) के मतानुसार, “अब यह स्वीकार ही नहीं किया जाता अपितु आशा भी की जाती है कि आर्थिक विकास को बढ़ावा देने के उद्देश्य से सरकार को निश्चित काम करना चाहिए। राजकोषीय साधनों के माध्यम से सरकार यह कार्य सम्पन्न कर सकती है। ” विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में राजकोषीय नीति विकास के लिए साधनों को जुटाने में विशेष रूप में सहायक मानी जाने लगी है।

6. आर्थिक स्थिरता – विकसित अर्थव्यवस्था में राजकोषीय नीति की भूमिका विकास दर का स्थिरीकरण करने की होती है, जबकि अल्पविकसित अर्थव्यवस्था में राजकोषीय नीति को आर्थिक विकास के यन्त्र के रूप में काम करना पड़ता है। सर्वप्रथम कीन्स ने राजकोषीय नीति को आर्थिक स्थिरता लाने का प्रमुख उपाय बताया। राजस्व के इस अनुभाग में बताया जाता है कि सरकार देश में आर्थिक स्थिरता बनाये रखने के लिए राजकोषीय यन्त्रों का प्रयोग कैसे कर सकती है।

राजस्व की प्रकृति | राजस्व को विज्ञान एवं कला के रूप में

राजस्व की प्रकृति-‘राजस्व की प्रकृति’ से आशय यह निश्चिय किया जाना है कि राजस्व ‘विज्ञान’ है या ‘कला’ या दोनों। यद्यपि राजस्व की प्रकृति के विषय में मतभेद है, तथापि स्वतन्त्र और निरपेक्ष दृष्टि से यही सिद्ध होता है कि राजस्व ‘विज्ञान’ और कला दोनों है।

राजस्व ‘विज्ञान’ के रूप में

विज्ञान में तथ्यों का क्रमबद्ध या नियमबद्ध ढंग से एकत्रीकरण वर्गीकरण तथा विश्लेषण किया जाता है । इसके अध्ययन में वैज्ञानिक रीतियाँ अपनायी जाती हैं। राजस्व वास्तविक’ तथा ‘आदर्श दोनों प्रकार का विज्ञान है। वास्तविक विज्ञान किसी कार्य के ‘कारण’ तथा ‘परिणाम’ के बीच सम्बन्ध स्थापित करता है । यह वस्तु स्थिति का अध्ययन करता है तथा उद्देश्यों के बीच तटस्थ होता है। दूसरी ओर, आदर्श विज्ञान का आदर्शात्मक पहलू होता है। यह बताता है कि ‘क्या होना चाहिए’। समाज के प्रति अर्थशास्त्री के दो प्रकार के दायित्व हैं-एक तो वह आर्थिक पद्धति का विश्लेषण करे तथा दूसरे, वह अमुक विश्लेषण के आधार पर सुधार के लिये सलाह दे। इस प्रकार, अर्थशास्त्र का अनुशासन दो स्पष्ट धाराओं में बँटा हुआ है। पहली धारा वास्तविक विज्ञान से सम्बन्धित है तथा दूसरी आदर्श विज्ञान से । कोई नया कर या कर परिवर्तन अर्थव्यवस्था पर क्या प्रभाव डालेगा, यह वास्तविक विज्ञान से सम्बन्धित विश्लेषण है। परन्तु करों के प्रभाव का विश्लेषण स्वयं कोई साध्य नहीं है अपितु सर्वोत्तम नीति चुनने की प्रक्रिया मात्र है। अधिकतम सामाजिक कल्याण, धन के वितरण में समानता, कीमतों में स्थिरता तथा रोजगार में वृद्धि ये सब आदर्श हैं तथा राजस्व में इन आदर्शो का भी ध्यान रखा जाता है।

राजस्व ‘कला’ के रूप में

कीन्स के अनुसार, “कला (Art) निश्चित उद्देश्य की प्राप्ति के लिए नियमों की एक प्रणाली है।” विज्ञान खोज तथा व्याख्या करता है, जबकि कला निर्देशन करती है, समस्याएँ हल करने का उपाय बताती है । ‘कर’ लगाना सरल कार्य नहीं है। प्रत्येक ‘कर’ का विरोध होता है अतः कब, कितना ‘कर’ लगाया जाये इसकी योजना बनानी पड़ती है। ‘कर’ लगाने की क्रिया निश्चित रूप से एक कला है। इसी प्रकार, जो धन प्राप्त हुआ है, उसे व्यय करना होता है। किस मद पर कितना व्यय किया जाये – यह निश्चित करना होता है । बजट बनाना स्वयं एक बड़ी कला है। श्रीमती उर्सला हिक्स के शब्दों में, “राजस्व एक कला है। इसका सम्बन्ध वास्तविक समस्याओं से है।”

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