” मुद्रा एक अच्छा सेवक है, किन्तु बुरा स्वामी” विवेचना कीजिए तथा मुद्रा के दोषों का वर्णन कीजिए।
‘मुद्रा एक अच्छा सेवक है, किन्तु बुरा स्वामी”– जार्ज एन. हॉम के शब्दों में, ‘निःसन्देह मुद्रा बाजार अर्थव्यवस्था के संचालन हेतु एक अपरिहार्य आवश्यकता है तथापि साथ ही साथ वह गम्भीर खतरे का स्रोत भी हो सकती है” आधुनिक विचारक मुद्रा को एक ‘आवश्यक बुराई’ या एक ‘अमिश्रित वरदान’ या एक ‘बहुमूल्य किन्तु खतरनाक आविष्कार’ या एक ‘अच्छा स्वामी किन्तु बुरा सेवक’ स्वीकार करते हैं। एक सेवक के रूप में मुद्रा मानव जाति की अनेक प्रकार से बहुमूलय सेवा करती है। परन्तु जब मेनुष्य मुद्रा को अपना स्वामी या जीवन का साध्य स्वीकार कर लेता है तब मुद्रा समाज में विभिन्न प्रकार की बुराइयों को जन्म देती है।
मुद्रा के दोष
मुद्रा के प्रमुख सामाजिक-आर्थिक दोष (बुराइयॉ) निम्नलिखित हैं-
1. ऋणग्रस्तता, अति पूँजीकरण और अति उत्पादन को प्रोत्साहन – मुद्रा ने उधार लेन-देन की क्रियाओं को सरल बना दिया है, जिसके कारण अदूरदर्शी व्यक्तियों को ऋण लेने का प्रोत्साहन मिला है। उद्योगपतियों को सहज रूप से पूँजी उधार मिल जाने के कारण कभी-कभी उद्योगों में अति पूँजीयन हो जाता है तथा अर्थव्यवस्था में अत्युत्पादन का संकट उत्पन्न हो जाता है।
2. आर्थिक विषमता और वर्ग संघर्ष का जन्म – मुद्रा ने समाज को ‘धनी’ एवं ‘निर्धन’ वर्गों में विभक्त करके वर्ग संघर्ष को जन्म दिया है। चूँकि मुद्रा ‘सामान्य माँग की वस्तु’ है, इसलिए मुद्रा के स्वामी को अन्य प्राकर की परिसम्पत्तियाँ रखने वाले व्यक्तियों की तुलना में विशेष आर्थिक शक्ति प्राप्त हो जाती है, जिसके द्वारा वह दुर्बल व्यक्तियो का शोषण करने में सफल हो जाता है।
3. मुद्रा व्यापार चक्रों को जन्म देती है- मुद्रा व्यापार चक्र के लिए उत्तरदायी है। प्रो. केन्ज के अनुसार, बचत तथा निवेश में असमानता होने के कारण ही व्यापार चक्र प्रचलित होता है। मुद्रा रहित अर्थव्यवस्था में व्यापार चक्र समाप्त हो जाता है, जिस कारण न तेजी रहती है और न मन्दी |
4. मुद्रा के मूल्य में स्थिरता का अभाव – मुद्रा के मूल्य में परिवर्तनों के फलस्वरूप के स्फीति की स्थिति उत्पन्न हो जाती है यह अस्थिरता व्यापार और उद्योग के लिए हानिकारक होती है
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