वाणिज्य / Commerce

कीमत का अर्थ | भारत में कीमत वृद्धि | कीमत वृद्धि के कारण | नियन्त्रण के उपाय

कीमत का अर्थ
कीमत का अर्थ

कीमत का अर्थ-Meaning of Price in Hindi

कीमत का अर्थ (Meaning of Price)- कीमत मुद्रा की वह मात्रा है जिसका भुगतान वस्तु या सेवा की एक इकाई के विनिमय के बदले में किया जाता है। बाजार व्यवस्था में प्रत्येक वस्तु की एक कीमत होती है। कीमत उन शर्तों का प्रतिनिधित्व करती है जिन शर्तों पर लोग या फर्म स्वेच्छा से विभिन्न वस्तुओं का विनिमय करते हैं।

किसी वस्तु का सेवा की कीमत से तात्पर्य यह है कि उस वस्तु या सेवा को प्राप्त करने के लिए क्या भुगतान करना पड़ेगा? उदाहरण के लिए यदि हमें कार खरीदनी है और जिससे हमें कार खरीदनी है वह उस कार के बदले हमसे 50,000 रूपये माँगता है और हम यह रकम उसे स्वेच्छा से देने को तैयार है तो यह 50,000 रूपये उस कार की कीमत होगी। सामान्यत: कीमत की भुगतान मुद्रा के रूप में ही किया जाता है अत: कीमत मुद्रा की वह मात्रा है जिसका भुगतान वस् या सेवा की एक इकाई के विनिमय के बदले में किया जाता है। यह निरपेक्ष कीमत है लेकिन भुगतान मुद्रा के अतिरिक्त किसी अन्य रूप में भी किया जा सकता हैं। यह इसकी सापेक्ष कीमत होगी।

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भारत में कीमत वृद्धि

भारत में कीमत वृद्धि सदैव एक समस्या रही है। भारतीय अर्थव्यवस्था में कीमत वृद्धि की स्थिति सदैव बनी रहती है। यद्यपि यह वृद्धि दर प्रत्येक वर्ष अलग-अलग होती है।

भारत में कीमतों की वृद्धि का दौर द्वितीय योजना काल से प्रारम्भ हुआ। इस काल में कीमतों की औसत वृद्धि 6.3 प्रतिशत थी। 1966-69 की अवधि में यह दर बढ़कर 8-1 प्रतिशत हो गयी। चौथी योजना काल में यह दर 9 प्रतिशत तथा छठी योजना काल में दर 9.3 प्रतिशत रही। सातवें दशक के समय कीमत वृद्धि की दर काफी तेज हो गयी। प्रायः यह देखने को मिला कि दूसरी योजना काल से ही भारत में आज तक प्रवृत्ति के रूप में कीमतों का बढ़ना जारी हैं और कीमतों के बढ़ने की दरकती रही।

भारत में कीमत वृद्धि के कारण (Cause of Price rise in India)

(1) जनसंख्या में भारी वृद्धि

सन 1951 में आज तक भारत की जनसंख्या तेजी के साथ बढ़ रही है। जनसंख्या वृद्धि के कारण यओं की मांग भी तेजी के साथ बढ़ी हैं। माँग में वृद्धि के कारण वस्तुओं के मूल्य में तेजी की स्थिति हमारी अर्थव्यवस्था में बनी रही है। जनसंख्या बढ़ने से जहाँ एक ओर वस्तुओं की मांग बढ़ती है वहीं दूसरी ओर सरकार की ओर से उपलब्ध करायी जाने वाली जनसुविधा सम्बन्धी वस्तुओं की मांग तेजी से बढ़ती है और उनकी कीमतें बढ़ने लगती है।

(2) आय में वृद्धि

भारत में कुल जनसंख्या का एक वर्ग धनवान एवं सम्पन्न हैं। जिसके कारण इनकी  आय बढ़ने से वस्तुओं को माँग में वृद्धि के कारण वस्तुओं की कीमत में वृद्धि हुयी है।

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(3) सरकारी ब्याज में वृद्धि

योजनाकाल में सरकारी व्ययों में भारी वृद्धि हुईं प्रत्येक – योजनाकाल में विकास के नाम पर अन्धाधुन्ध खर्च किया गया जिसमें केन्द्र और राज्य सरकारें बराबर की भागीदार रही हैं। जिससे विकास के नाम पर सरकारों द्वारा खर्च किये गये उस दर से उत्पादन में वृद्धि नहीं हुई तथा परणाम यह हुआ कि वस्तुओं की कीमतें बढ़ी। विकास सम्बन्धी व्ययों को नकारा नहीं जा सकता और न ही इनकी उपयोगिता से ही इन्कार किया जा सकता है। परन्तु यदि इनका स्वरूप आवश्यकता और उपलब्ध संसाधनों से अधिक हो तो समस्या खड़ी हो सकती है। भारतीय अर्थव्यवस्था में विकास के नाम पर अपव्यय किये गये और राजनेताओं और अधिकारियों के व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ति हुई तथा उत्पादन की स्थिति जस की तस बनी रही। जिसके कारण कीमतों में वृद्धि हुईं।

(4) घाटा वित्तीयन

योजनाओं के लिए वित्त प्राप्त करने के उद्देश्य से किया गया घाटा वित्तीयन भी कीमतों को बढ़ाने में सहायक रहा है। वित्त प्राप्त करने के इस तरीके से बाजार में अतिरिक्त मुद्रा की आपूर्ति होती है जिसके परिणास्वरूप कीमतें बढ़ने लगती है। घाटा वित्तीयन का वह भाग जो अनुत्पादक मदों में व्यय किया जाता हैं उससे केवल कीमतें ही बढ़ती है।

(5) मुद्रा आपूर्ति में वृद्धि

आर्थिक विकास, अर्थव्यवस्था के वाणिज्यीकरण औ लेनदेन के मौद्रीकरण के कारण मुद्रा की आपूर्ति में वृद्धि आवश्यक हो जाती है। भारत के परिप्रेक्ष्य में आपूर्ति में यह वृद्धि औचित्यपूर्ण नहीं है। मुद्रा की यह अतिरिक्त आपूर्ति बैंकों द्वारा साख उपलब्ध कराने तथा घाटा वित्तीयन के कारण होती है। मुद्रा की यह अतिरिक्त आपूर्ति उत्पादन को कम बढ़ाती है बल्कि कीमतों में वृद्धि के लिए अधिक उत्तरदायी होती है।

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(6) कृषि उत्पादन में कमी

कम कृषि उत्पादन मूल्य वृद्धि का एक प्रमुख कारण रहा है जिस अनुपात में जनसंख्या में वृद्धि हो रही है कृषि क्षेत्र के उत्पादन उस अनुपात में नहीं बढ़ रहा है। अतः खाद्य वस्तुओं की कमी इनकी कीमतों में वृद्धि का कारण रही है।

(7) कम औद्योगिक उत्पादन

हमारे उद्योगों की उत्पादन क्षमता में कमी भी मूल्य व वृद्धि का करण रही है। उद्योगों में पूर्ण क्षमता पर उत्पादन नहीं होते जिससे वस्तुओं की लागत बढ़ती है और परिणास्वरूप कीमतें अधिक होती है।

(8) जमाखोरी

कुछ वस्तुओं की जमाखोरी वस्तुओं की कीमतों की वृद्धि में सहायक होती है। बाजार में जिन वस्तुओं की मांग अधिक होती है। कुछ व्यवसायी उसकी जमाखोरी करने लगते है। जिससे उनकी कीमतों में वृद्धि हो जाती है।

भारत में कीमतों पर नियन्त्रण के उपाय

भारत में आज आवश्यकता इस बात की है कि कीमतों को उनके वर्तमान स्तर से नीचे लाया जाय और उन्हें नियन्त्रित किया जाय। इस दृष्टिकोण से सर्वप्रथम बात यह है कि कीमतों को नियन्त्रित करने के जो वर्तमान उपाय हैं, जैसे-माँग का प्रबन्धन, आपूर्ति को बढ़ाना और जन वितरण प्रणाली आदि, उनको तेजी से और पूर्ण रूप लागू किया जाय। इसके अलावा कुछ और भी पहलू हैं जिन पर विशेष बल दिये जाने की आवश्यकता हैं। इनमें से कुछ महत्त्वपूर्ण बातें निम्नलिखित हैं-

1. सार्वजनिक वितरण प्रणाली का पुर्नगठन

वर्तमान सार्वजनिक वितरण प्रणाली में, जिसके द्वारा सामान्यत: अमीर और गरीब सबके लिए ज्यादा से ज्यादा आवश्यक वस्तुओं को वितरित करने का प्रयास किया जा रहा है, गरीबों के लिए कुछ विशेष व्यवस्था करने की आवश्यकता है। यह सुझाव दिया गया है कि सम्पूर्ण देश में (शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों ) जनसंख्या के कमजोर वर्गों के लिए एक न्यूनतम मात्रा में अनाज की व्यवस्था की जानी चाहिए। इस कार्यक्रम के अन्तर्गत उगाही, वितरण और गरीब वर्ग के लिए पर्याप्त क्रय शक्ति की व्यवस्था के सिलसिले में उपाय अपनाने की आवश्यकता होगी। क्रय-शक्ति सम्बन्धी उपाय का अर्थ है कि गरीब-वर्ग के लिए रोजगार की व्यवस्था करना, ताकि वे एक न्यूनतम मात्रा में अनाज खरीद सकें। इस प्रकार मूल्य नीति को विकास एवं सामाजिक न्याय को बढ़ाने की आर्थिक नीति के एक अंग के रूप में देखने की आवश्यकता है।

2. कीमतों और आय के बीच तालमेल

चूँकि आय का सृजन वस्तुओं और सेवाओं के विक्रय से होता हैं, इसलिए कीमत भी आय होती हैं। कीमतों को स्थिर और औचित्यपूर्ण बनाने के लिए विभिन्न प्रकार की कीमतों एवं विभिन्न प्रकार की आयों में मजदूरी, वेतन, ब्याज, लाभ, लगान आदि में एक उचित सम्बन्ध स्थापित किया जाना चाहिए। कीमत के ढाँचें और आय के ढाँचें में भी तालमेल होना चाहिए। इस कीमत और आय के ढाँचे के अन्तर्गत किसी भी उत्पादन साधन की आय में वृद्धि उस वस्तु के उत्पादन और उत्पादिता में हुई वृद्धि के अनुरूप होनी चाहिए। यदि आय का सम्बन्ध कीमतों और उत्पादिता से जुड़ा हो, तो मुद्रा की आपूर्ति अर्थव्यवस्था की वास्तविक आवश्यकता के ऊपर नहीं बढ़ पायेगी। इसलिए आवश्यक है कि मूल्य नीति का निर्धारण आय-नीति के सन्दर्भ में किया गया।

3. संसाधनों के भीतर विकास

कीमत और आय में स्थिरता लाने और विकास प्रक्रिया को निर्विघ्न बनाने के लिए यह आवश्यक है कि विकास प्रयास को उपलब्ध संसाधनों और वास्तविक बचत के अन्दर ही रखा जाय। कहने का तात्पर्य यह है कि सामान्यतः सरकार को आर्थिक विकास के लिए घाटा-वित्तीयन का सहारा नहीं लेना चाहिए। सरकार को चाहिए कि हर सम्भव उपाय से अपनी आय को बढ़ाये और अपने गैर-योजना खर्च में भारी कटौती करें जिससे कि बजट में घाटे की स्थिति पर रोक लग सके। फिर भी यदि घाटा वित्तीयन अनिवार्य हो, तो जहाँ तक सम्भव हो इसका प्रयोग ऐसी परियोजनाओं में किया जाय जिनसे उत्पादन शीघ्र ही शुरू होने की सम्भावना हो । वहाँ भी इसका उपयोग बिल्कुल सीमित होना चाहिए। विकास दर में तेजी के लिए बचत दर में वृद्धि लाना जरूरी है। समस्या के इस पहलू पर सर्वाधिक ध्यान दिया चाहिए।

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