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अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की प्रासंगिकता | Relevance of International Organization

अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की प्रासंगिकता
अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की प्रासंगिकता

अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की प्रासंगिकता की विवेचना कीजिए।

अन्तर्राष्ट्रीय संगठन बदलते आधुनिक विश्व की एक सोच है। संगठन से एक नये विश्व का प्रारम्भ हुआ है। अन्तर्राष्ट्रीय संगठन के द्वारा विश्व के राष्ट्र उस संगठन की प्रतिबद्धताओं से बंध जाते हैं। प्रत्येक राष्ट्र जो कथित संगठन के चार्टर पर हस्ताक्षर कर देता है वह उस अन्तर्राष्ट्रीय मानदण्डों का पालन करता है। चूँकि अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग एवं शांति मानव के जीवन का एक मूल मानक है। चूँकि अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग एवं शांति मानव के जीवन का एक मूल मानक है। अतः शांति मनुष्य के सकारात्मक पहलू प्रेम, सहानुभूति, सहयोग आदि का प्रतिनिधित्व करती है। इन्हीं दोनों के बीच मनुष्य अपने जीवन को जीने की कल्पना करता है। विधिशास्त्री विक्टर ह्यूगो के अनुसार- “एक दिन ऐसा आयेगा जब युद्ध भूमि सिर्फ तेजारत के लिए खुले बाजार एवं नये विचारों के प्रति खुले दिमाग में ही रह जाएगी। एक दिन ऐसा आयेगा जब गोली एवं बम का स्थान मतदान एवं राष्ट्रों के व्यापक मताधिकार ले लेंगे। उनकी जगह सार्वभौम सीनेट क पंचनिर्णय फैसलों द्वारा निर्णय लिए जाएँगे। उसका वही महत्त्व होगा, जो संसद का इंग्लैण्ड में डाइट का जर्मनी में और विधान सभा का फ्रांस में हैं। एक दिन आएगा जब तोपों को सार्वजनिक अजायबघरों में यंत्रणा के यंत्र के रूप में लोगों को दिखाया जाएगा एवं लोग आश्चर्य करेंगे कि आखिर यह आया कहाँ से?”..

अन्तर्राष्ट्रीय संगठन एवं संप्रभुता- सम्प्रभुता के नियम अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में अत्यन्त ही विवादास्पद मुद्दा रहा है। वर्तमान समय में यह अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में यह राज्य के आवश्यक तत्त्वों में से एक माना जाता है। संप्रभुता के बिना राज्य के अस्तित्व का कोई स्थान नहीं है। संप्रभुता के आधुनिक सिद्धान्त के जन्मदाता 16वीं शताब्दी के फ्रांसीसी विचारक जॉन बोदाँ थे। उन्होंने अपनी पुस्तक “सिक्स लेबर द लॉ रिपब्लिक” में संप्रभुता की परिभाषा देते हुए कहा था- “संप्रभुता नागरिकों एवं प्रजा पर राज्य का सर्वोच्च अधिकार है, जो कानून से बद्ध नहीं होता।” इस मतानुसार संप्रभुता का मुख्य कार्य विधि-निर्माण है, संप्रभु विधि का स्रोत है, अतः विधि के अधीन नहीं विधि के ऊपर हैं। बोदों ने राजा की सर्वोच्च शक्ति को उसकी प्रजा के संबंध में अभिव्यक्त किया एवं उसने यह भी कहा कि संप्रभु प्राकृतिक एवं नैतिक विधि से ऊपर नहीं है किन्तु उसने इस परिसीमाओं के व्यावहारिक प्रयोग के विषय में कोई संकेत नहीं किया। सामान्यतः इसी अर्थ में ह्यूगो प्रोशस ह्यूगो ग्रोशस (Hugo Grotius) ने संप्रभुता शब्द का प्रयोग किया, किन्तु उस समय यह शब्द बाह्य नियंत्रण से स्वतंत्रता के साथ-साथ राज्यों में सर्वोच्चता के तत्त्व को भी ध्वनित करता था। कुछ विधिवेत्ताओं का कहना है कि ग्रोशस ने ही संप्रभु समानता के सिद्धान्त पर बल दिया जिसके अनुसार प्रत्येक संप्रभु परस्पर समान है और अपनी इच्छानुसार दूसरे देशों के साथ संबंध स्थापित कर सकता है। पर वह बाह्य हस्तक्षेप से बिल्कुल स्वतंत्र है। इतना होते हुए भी ग्रोशस ने सभी संप्रभुओं पर कुछ बंधन लगाये जो सामान्य अन्तर्राष्ट्रीय विधि पर आधारित हैं। राज्यों की संप्रभुता एवं स्वाधीनता के सिद्धान्त ने सर्वप्रथम अपनी वैधिक अभिव्यक्ति, वेस्टफालिया की संधि (1648 ई.) में प्राप्त की।

सम्प्रभुता के विभिन्न रूप- प्रारम्भ में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में संप्रभुता राज्य का पर्याय थी। लेकिन बाद में यह जनता में निहित हुई तथा आगे चलकर यह राज्य तथा सरकारों में निहित हो गयी। परन्तु इस परिवर्तन के बावजूद संप्रभुता की आवश्यक विशेषता आज भी कायम है। आज भी जब हम कहते हैं कि अमुक राज्य सम्प्रभु है तो हमारे कहने का आशय यह होता है कि कानूनतः उस राज्य के कार्यों पर बाह्य सत्ता का नियंत्रण नहीं है। संप्रभुता के दो पक्ष हैं- आन्तरिक एवं बाय। पहले पक्ष की आशय यह है कि राज्य को अपने क्षेत्र के भीतर पूर्ण कानूनी अधिकार है। उसकी सीमा के अन्तर्गत कोई भी व्यक्ति या समुदाय राज्य इच्छा के अधीन है। वह राज्य की सत्ता को चुनौती नहीं दे सकता। इसके बाह्य पक्ष का आशय यह है कि बाह्य क्षेत्र में राज्य को स्वतंत्रता प्राप्त है वैदेशिक मामलों का मार्ग वह स्वयं तय करता है। युद्ध, शांति या तटस्थता की नीति वह स्वयं अपनी इच्छानुसार बरतता है किसी बाहरी सत्ता में दबाव में आकर नहीं।

राष्ट्र राज्यों की समानता के सिद्धान्त को अमरीकी सर्वोच्च न्यायालय के भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश मार्शल ने अपने सशक्त शब्दों में इस तरह व्यक्त किया था- “राष्ट्रों की पूर्ण समानता से अधिक कॉमनलॉ का कोई नियम सर्वमान्य नहीं है। रूस एवं जिनेवा के अधिकार समान हैं। इस समानता से ही यह बात निकलती है कि कोई भी राज्य न्यायिक रूप से दूसरे राज्य पर कोई नियम नहीं लाद – सकता।” अन्य कई मुकदमों, जैसे फ्रांसीसी जहाज ‘दि लुइस’ ‘स्कोसिया’ आदि के मामले में संप्रभु समानता के सिद्धान्त का समर्थन किया गया। इस सिद्धान्त को संयुक्त राष्ट्र में भी सदस्य राज्यों की संप्रभु समानता की उद्घोषणा द्वारा संपुष्ट किया गया।

राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय संगठन- 18वीं शताब्दी के प्रारम्भ में ही राष्ट्रीय राज्यों का उदय हुआ। यह संप्रभु राज्यों की व्यवस्था में मौलिक एवं क्रांतिकारी परिवर्तन था। अब संप्रभु राज्यों के स्थान पर संप्रभु राष्ट्रीय राज्यों का उदय हुआ। इस परिवर्तन के परिणामस्वरूप एक राष्ट्र से अपने को भिन्न समझ लगे। परन्तु वर्तमान समय में राष्ट्रीय राज्य अपने राष्ट्रीय हित को विश्वहित में समाविष्ट समझने के लिए – तैयार हो गए हैं। इसके चलते अन्तर्राष्ट्रीय संगठन का भविष्य उज्ज्वल मालूम पड़ने लगा है।

एक राज्य का दूसरे राज्य पर निर्भरता- वर्तमान समय में एक राज्य की दूसरे राज्य पर निर्भरता अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण है। लेबी के मतानुसार यही वह शक्ति है जो राष्ट्र राज्यों को अन्तर्राष्ट्रीय संगठन बनाने के लिए प्रेरित करती है। अन्योन्याश्रयता का अभिप्राय राष्ट्रों की आपसी निर्भरता का है। आज अन्तर्राष्ट्रीयता के युग में कोई भी राष्ट्र दूसरे राष्ट्र के सहयोग के बिना नहीं रह सकता। इस सहयोग के पीछे सबसे प्रमुख हाथ आर्थिक निर्भरता का रहा है। आज युग भी राज्य आर्थिक दृष्टिकोण से स्वालम्बी नहीं है। कोई भी राज्य अपनी जरूरत की सभी चीजों का उत्पादन नहीं करता। आवश्यक कच्चा माल, वातावरण भूमि एवं उत्पादन के लिए आवश्यक उत्पादनों की दृष्टि से विभिन्न देशों के बीच काफी विभिन्नताएँ पायी जाती हैं।

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