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भारतीय संदर्भ में विश्वशान्ति की अवधारणा | concept of world peace in the Indian context

भारतीय संदर्भ में विश्वशान्ति की अवधारणा
भारतीय संदर्भ में विश्वशान्ति की अवधारणा

भारतीय संदर्भ में विश्वशान्ति की अवधारणा स्पष्ट कीजिए।

भारतीय संदर्भ में विश्वशान्ति की अवधारणा- भारतीय संस्कृति व सभ्यता ने विश्व शान्ति को प्राचीन काल से ही महत्त्व प्रदान किया। वेदों में विश्व शान्ति की सुन्दर झलक मिलती है। मौर्य शासक सम्राट अशोक ने इस संदर्भ में धम्म नीति का अनुसरण किया। मध्यकाल में मुगल शासक अकबर ने विश्व शान्ति की दिशा में प्रयास किया। आधुनिक काल में स्वामी विवेकानन्द ने भारतीय मूल्यों से विश्व को परिचित कराया। उनके अनुसार, मूल्य एवं आध्यात्मिक विकास की शिक्षा प्रदान की जाए तो व्यक्ति का दृष्टिकोण समन्वित रूप में कार्य करेगा, वह नैतिकता के विकास में अपना सकारात्मक सहयोग करेगा तथा मानवीय हित का भी ध्यान रखेगा। भारतीय जीवन मूल्यों के अनुसार सामान्य रूप से सम्पूर्ण विश्व को समाज एवं वसुधैव कुटुम्बकम की भावना के आधार पर स्वीकार किया जाए तो हम विश्व के किसी भी व्यक्ति को कष्ट नहीं देंगे। इसमें सम्पूर्ण समाज में शान्ति की स्थापना होगी। इसलिए छात्रों को प्राथमिक स्तर से भारतीय जीवन मूल्यों के माध्यम से सामाजिक शान्ति उत्पन्न करने की प्रक्रिया का वर्णन निम्न रूप में किया जा सकता है-

(1) आदर्शवादी मूल्यों की शिक्षा- छात्रों को प्राथमिक स्तर से ही आदर्शवादी मूल्यों की शिक्षा प्रदान करनी चाहिए, जिससे वह सत्य आचरण कर सकें तथा हिंसा से दूर रह सकें। इससे समाज में शान्ति का माहौल सृजित होगा।

(2) मानवता की शिक्षा – सामान्य रूप से समाज में हिंसा की स्थितियाँ उत्पन्न हो जाया करती हैं। अतः शिक्षा के माध्यम से छात्रों में मानवता की भावना का विकास करना चाहिए, जिससे छात्र अपने जीवन में विश्व के प्रत्येक व्यक्ति को अपना सहयोगी समझें तथा मानवता के आधार पर कार्य करें। इससे समाज में शांति व्यवस्था उत्पन्न हो सकेगी।

(3) नैतिकता की शिक्षा- आध्यात्मिक विकास हेतु नैतिक शिक्षा दी जानी परमावश्यक है। शिक्षा के माध्यम से छात्रों में प्राथमिक स्तर से नैतिक शिक्षा का समावेश वैश्विक स्तर पर कर दिया जाता है तो सम्पूर्ण विश्व के छात्र नैतिकता का आचरण करने लगेंगे तथा समाज में शांति स्थापित हो जाएगी।

(4) प्रकृति प्रेम की शिक्षा- सामान्य रूप से प्रकृति के प्रति प्रेम तथा प्राकृतिक संसाधनों को अपने स्वार्थ के लिए विकृत न बनाना भी आध्यात्मिक विकास के लिए माना जाता है। जब हम प्रकृति से प्रेम करते हैं तो प्राकृतिक पर्यावरण के प्रति हमारा सकारात्मक दृष्टिकोण होता है। इससे हम विभिन्न प्रकार के प्रदूषणों को उत्पन्न नहीं करते, पेड़ नहीं काटत तथा नदियों के जल को प्रदूषित नहीं करते। इस प्रकार समाज को प्रकृतिजन्य आपदाओं से बचाया जा सकता है। इससे समाज में शांति की व्यवस्था वैश्विक स्तर पर सम्पन्न होती है।

(5) भारतीय संस्कृति की वैश्विक स्तर पर स्थापना- विश्व स्तर पर आध्यात्मिक विकास की स्थिति छात्रों एवं समाज में उत्पन्न करती है तो इसका सबसे सरल उपाय यही है कि वैश्विक स्तर पर भारतीय संस्कृति का व्यापक प्रभाव हो । व्यक्ति सर्वजन हिताय एवं सर्वजन सुखाय की भावना से परिपूर्ण हो जाय। इससे सम्पूर्ण मानव समाज में शान्ति स्थापित हो सकेगी। प्रत्येक व्यक्ति अपने आत्मिक सुख की प्राप्ति के लिए दूसरों को सुख प्रदान करेगा। भौतिक सुख हेतु दूसरों को दुःख नहीं देगा।

(6) पशु प्रेम की शिक्षा- भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता में पशुओं की पूजा की जाती है। अनेक जीव-जन्तुओं के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण रखा जाता है। बालकों को पशुओं के प्रति सकारात्मक भाव उत्पन्न किए जाने अत्यावश्यक है।

(7) सार्वजनिक हित की शिक्षा- भातीय संस्कृति एवं समाज में प्राचीन काल से ही मानव हित एवं सार्वजनिक हित को महत्त्व प्रदान किया गया है। भारतीय समाज में किसी एक व्यक्ति को ज्ञात हो जाए कि एक व्यक्ति के प्राण त्यागने से सौ व्यक्तियों की प्राण रक्षा हो सकती है तो वह व्यक्ति अपने प्राणों को न्योछावर कर देता था। ऐसा कार्य महर्षि दधीची ने अपने प्राण त्याग करके सार्वजनिक हित के लिए रक्षा की थी।

(8) त्याग की भावना का विकास- सामान्य रूप से भारतीय संस्कृति को त्याग की खुली किताब माना जाता है। यहाँ समाज के उत्थान के लिए तथा मानव हित के लिए व्यक्तियों ने सुख एवं विलासी जीवन को ठोकर मार दी। जैसे- महात्मा बुद्ध, भगनान राम, भरत आदि के नाम अग्रगण्य हैं। अतः त्याग की भावना सम्पूर्ण विश्व में शान्ति की स्थापना करती है।

(9) ईश्वर में विश्वास- वर्तमान मानव में ईश्वर के प्रति आस्था के भाव में कमी आयी है। मानव ईश्वर के अस्तित्व पर सवाल खड़ा कर रहा है, जिससे सामाजिक गतिविधियों में मूल्यों के हास की स्थिति पैदा हो रही है। अतः हमें ईश्वर के प्रकृत्व एवं उसे परमसत्ता सम्पन्न मानते हुए हमें धर्म के आचरण पर चलना चाहिए। ईश्वरीय आदेशों जैसे- हमें किसी व्यक्ति को मन, वचन एवं कर्म से कष्ट नहीं पहुँचाना चाहिए। इससे समाज में शान्ति उत्पन्न होगी। प्रत्येक जीव जन्तु सुख का अनुभव करेंगे।

(10) पाप-पुण्य को परिभाषित करना- भारतीय संस्कृति में पाप-पुण्य की स्पष्ट व्याख्या की गई है। पाप समाज एवं मानव दोनों के लिए घातक होता है। वहीं पुण्य मानव एवं समाज दोनों के हित. “में होता है। पाप-पुण्य के बार में सार रूप में लिखा गया है

अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम्, परोपकाराय पुण्याय पापाय परपीडनम्।

इससे सिद्ध होता है कि मानव को परोपकारी होना चाहिए, एवं दूसरों को कष्ट, पीड़ा कभी भी नहीं पहुँचानी चाहिए। इस प्रकार मूल्यों की शिक्षा द्वारा समाज एवं सम्पूर्ण विश्व में शान्ति स्थापित की जा सकती है।

(11) वसुधैव कुटुम्बकम- यह भारतीय सनातन धर्म का मूल संस्कार तथा विचारधारा है। वसुधैव कुटुम्बकम की अवधारणा महाउपनिषद सहित कई बार ग्रंथों में लिपिबद्ध है। इसका शाब्दिक अर्थ है ‘धरती ही परिवार है’।

(12) सर्व धर्म समभाव- भारतीय धर्मानुसार धर्म की प्रासंगिकता एवं प्रयोजन शीलता शान्ति, व्यवस्था, स्वतंत्रता, समता, प्रगति एवं विकास से सम्बन्धित समाज सापेक्ष परिस्थितियों के निर्माण में निहित हैं। क्योंकि धार्यते इति धर्मः।’ जो धारण करने योग्य हो, वरेण्य हो वही धर्म होता है। अतएव सभी धर्म अनुचित कार्यों को करने की सलाह कभी नहीं देते हैं। धार्मिक शिक्षाएँ एक सभ्य मानव को जन्म देती हैं, जो विश्व शांति में सहायक होते हैं।

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