अन्तर्राष्ट्रीय संगठन के उद्देश्य (Objects of International Organization)
अन्तर्राष्ट्रीय संगठन के सामान्यतः स्वीकार किए जाने वाले उद्देश्य निम्नवत् हैं-
- युद्ध की रोकथाम या शान्ति एवं सुरक्षा बनाए रखना,
- उन विभिन्न समस्याओं का निदान करना जो राज्यों के समक्ष उनके वैदेशिक सम्बन्धों के संदर्भ में उपस्थित होती है।
युद्ध की रोकथाम अथवा विश्व में शान्ति एवं सुरक्षा की स्थापना अन्तर्राष्ट्रीय संगठन का सर्वोपरि उद्देश्य होता है। राष्ट्र-संघ (League of Nations) की संविदा (Covenant) की प्रस्तावना के अनुसार संघ का उद्देश्य अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों की स्थापना करके भावी युद्धों को टालना तथा संसार के राष्ट्रों के मध्य सहयोग को प्रोत्साहन देता था। इसी प्रकार वर्तमान संयुक्त राष्ट्र संघ का लक्ष्य अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा की रक्षा करना, राष्ट्रों के मध्य मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध विकसित करना तथा अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग प्राप्त करना है।
जिस प्रकार कोई भी समाज सुरक्षित एवं सभ्य तभी बना रह सकता है जब उसके सदस्य किसी भी व्यक्ति के विरुद्ध आक्रमणात्मक कार्यवाहियों को सम्पूर्ण समुदाय की शान्ति एवं कल्याण के लिए एक खतरा माने, ठीक उसी प्रकार राष्ट्रों के मध्य अर्थात् अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में भी शान्ति एवं व्यवस्था तभी सुरक्षित रह सकती है जब किसी भी एक राष्ट्र पर किया गया आक्रमण सम्पूर्ण विश्व के लिए एक संकट समझा जाए। यही भावना इस बात के लिए प्रेरित करती है कि राष्ट्रीय सरकार अपने देश में अराजकता की अवस्था को समाप्त कर नागरिकों को शान्ति एवं सुरक्षा प्रदान करने तथा अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में विश्व के राष्ट्र ऐसे सर्वमान्य संगठन की स्थापना करें जो विभिन्न उपायों से राष्ट्रों के मध्य सहयोग एवं सामंजस्य बनाए रखें ताकि आक्रमणात्मक कार्यवाहियों को प्रोत्साहन न मिल सके। इसलिए प्रथम महायुद्ध के बाद जब राष्ट्र संघ की स्थापना हुई तो उसके संविधान के अनुच्छेद 11 में उल्लेख किया गया है कि- “कोई भी युद्ध या युद्ध की धमकी चाहे संघ के सदस्यों को तुरन्त प्रभावित कर रहा हो या नहीं संपूर्ण संघ के लिए चिंतनीय विषय (Matter of Concern) समझा जाएगा।” इसी प्रकार संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर के अनुच्छेद- 2 में इस सिद्धान्त का समावेश किया गया है कि “संघ के सभी सदस्य संघ की किसी भी उस कार्यवाही में, जो वर्तमान चार्टर के अनुकूल हो, संघ को हर प्रकार का सहयोग देंगे…… “
दुर्भाग्यवश व्यवहार में दोनों ही अन्तर्राष्ट्रीय संगठन घोषित सिद्धान्तों के अनुकूल पूरा आचरण नहीं कर पाए। उदाहरणार्थ, जब इथोपिया पर इटली का आक्रमण हुआ तो राष्ट्र संघ अपने सामूहिक उत्तरदायित्व से विमुख हो गया एवं प्रभावकारी प्रतिबंध (Effective Sanctions) लागू नहीं कर सका। राष्ट्र संघ असफल ही मुख्यतः इसलिए हुआ कि सदस्य राष्ट्रों ने संघ के प्रति खुलकर प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से दायित्वहीनता प्रदर्शित की। कुछ मामलों में इसी प्रकार का रवैया संयुक्त राष्ट्र संघ का रहा है। उदाहरणार्थ, सन् 1950 में संघ के अधिकांश सदस्यों ने उत्तरी कोरिया के आक्रमण को रोकने में संघ के उद्देश्य के प्रति सहानुभूति प्रकट की लेकिन कार्यवाही के लिए केवल 16 राष्ट्रों ने ही अपनी सैन्य टुकड़ियाँ दी।
अन्तर्राष्ट्रीय संगठन का दूसरा उद्देश्य संसार के राष्ट्रों के समक्ष अपने वैदेशिक सम्बन्धों के निर्वहन के संबंध में उठने वाली विभिन्न समस्याओं का शान्तिपूर्ण ढंग से हल निकालने में यथासम्भव सहयोग देना है। यह उद्देश्य बहुत विस्तृत अर्थात् बहुमुखी हैं जिसमें किसी भी अन्तर्राष्ट्रीय संगठन को बड़ी सूझ-बूझ, निष्पक्षता, कूटनीतिक चातुर्य एवं प्रभावशाली अनुशासनात्मक कार्यवाही का आश्रय लेना पड़ता है। इस उद्देश्य का क्षेत्र स्वास्थ्य से लेकर आर्थिक विकास एवं डाक दरों से लेकर बाहर आन्तरिक तथ्य व्यापक हैं। प्रतिवर्ष अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों के सम्मुख नई-पुरानी विविध समस्याओं अंबार लगा रहता है जिन्हें नित्य बदलती हुई परिस्थितियों के अनुकूल सुलझाना पड़ता है। संगठन का नैतिक प्रभाव प्रायः प्रभावशाली ढंग से कार्य करने में सक्षम होता है। आर्थिक, सामाजिक, स्वास्थ्य आदि के क्षेत्रों में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा की जाने वाली कार्यवाहियाँ इसका प्रमाण है।
संक्षेप में, प्लानो तथा रिग्ज के शब्दों में, “अन्तर्राष्ट्रीय संगठन के उद्देश्य लगभग असीम है। अधिक सामान्य रूप में इन बहुमुखी उद्देश्यों (Manifold Purposes) को तीन मोटे लक्ष्यों में व्यक्त किया जा सकता है शान्ति (Peace), समृद्धि ( propensity) एवं व्यवस्था (Order) |” शान्ति के उद्देश्यों की सफलता मुख्यतः इस बात पर निर्भर है कि हिंसात्मक कार्यवाही के प्रति प्रभावशाली प्रतिरोधात्मक व्यवस्थाएँ कहाँ तक लागू की जाती हैं एवं अन्तर्राष्ट्रीय विवादों के शान्तिपूर्ण समाधान का संयंत्र कहाँ तक उपयुक्त रूप से प्रभावशाली होता है। समृद्धि की उपलब्धि तभी संभव है जब प्राविधिक समस्याओं (Technical Problems) में सहयोग करके आर्थिक गतिविधियों का प्रसार अधिकाधिक सम्भव बनाया जाए, विशेषकर विश्व के विकासशील क्षेत्रों में आर्थिक विकास एवं अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के विस्तार की ओर उपयुक्त ध्यान दिया जाए।
अन्तर्राष्ट्रीय संगठन के सभी उद्देश्य किसी न किसी रूप में एक-दूसरे के पूरक हैं, अतः किसी एक उद्देश्य या कुछ उद्देश्यों की उपलब्धि का प्रभाव अनिवार्य रूप से दूसरे क्षेत्रों में पड़ता है। यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों के उद्देश्य सामान्यतः व्यापक किन्तु अस्पष्ट होते हैं। उद्देश्यों की शब्दावली प्रायः गोलमोल भाषा में व्यक्त की जाती है ताकि संगठन को विश्व व्यापी समर्थन प्राप्त हो सके एवं सभी राष्ट्र उसकी सदस्यता प्राप्त करने हेतु आकर्षित हों। उद्देश्यों में न्याय, स्वतन्त्रता, शान्ति, सुरक्षा, सहयोग आदि ऐसे शब्द जोड़ दिए जाते हैं जो विश्व जनमत के अनुकूल होते हैं एवं कोई भी राष्ट्र उनसे असहमति प्रकट करने का खतरा मोल नहीं लेना चाहता। वर्तमान संयुक्त राष्ट्र संघ इसका अच्छा उदाहरण है इसके विपरीत जिन संगठनों के उद्देश्य स्पष्ट रूप से परिभाषित होते हैं उनकी सदस्य संख्या प्रायः सीमित होती है; यद्यपि शक्ति की दृष्टि से वे अधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं। ऐसे संगठनों के सदस्यों में सहमति अधिक ही पायी जाती है। स्पष्ट उद्देश्य वाले संगठन में वे ही राष्ट्र सम्मिलित होते हैं, जो इस उद्देश्य या उद्देश्यों को अपनी नीतियों एवं हितों के अनुकूल समझते हैं। सामान्यतः ऐसे संगठन क्षेत्रीय, सैनिक आदि होते हैं।
अन्तर्राष्ट्रीय संगठन का महत्त्व (Importance of International Organisation)
आज वर्तमान युग में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के विकास में चतुर्दिक क्रान्ति की धूम मचा दी है। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी क विस्तार ने सारे विश्व को एक मंच पर खड़ा करने के लिए विवश किया है। चाहे कोई क्षेत्र हो, धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, स्वास्थ्य, खेलकूद सभी का विश्व व्यापी क्षेत्र हो गया है। इस विश्व व्यापकता ने किसी राज्य को अलग-अलग रहने की स्वतन्त्रता समाप्त कर दी है। अन्योन्याश्रित का भाव प्रत्येक क्षेत्र में प्रबल हो उठा है जिससे समाज की समस्याएँ राष्ट्र की समस्याएँ न होकर विश्व समस्याएँ बन गयी हैं। इस विश्व व्यापकता के परिणामस्वरूप अन्तर्राष्ट्रीय संगठन प्रकाश में आए हैं। आज आवश्यकता भी उनकी अत्यधिक है।
समस्याओं का समाधानों के वैश्वीकरण से राज्य सरकारों के दायित्वों में भी भौगोलिक सीमाओं का अस्तित्व नहीं रह गया है वे केवल प्रतीक मात्र हैं जो विशिष्ट समुदाय की पहचान बनाए रखने में सहयोगी हैं। राज्यों को भी अपना अस्तित्व विश्व समुदाय में ही खोजना पड़ता है। व्यापार, शिक्षा, स्वास्थ्य, सांस्कृतिक, आदि सभी क्षेत्रों में सरकारों का राष्ट्रीय दायित्व की अपेक्षा अन्तर्राष्ट्रीय दायित्व बढ़ गया है। अतएव अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं की माँग प्रबल से प्रबलतर होती जा रही हैं।
एक ओर जहाँ विज्ञान एवं तकनीक के विकास ने मानव सुख के द्वार खोले हैं वहीं मानवता नाश के कारण को भी संचित किया है। वर्तमान में सम्पूर्ण विश्व एक बारूद के ढेर पर विद्यमान इसलिए शक्ति संतुलन बनाए रखने तथा भावी विनाश से बचने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की महती आवश्यकता अनुभव की जा रही है, जो अन्तर्राष्ट्रीय संगठन के विकास का शुभ संकेत हैं।
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