अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की संकल्पना एवं प्रकृति
अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की संकल्पना (Concept of international Organization)- अन्तर्राष्ट्रीय संगठन वैश्विक स्तर पर एक संकल्पना है जो दो परस्पर विरोधी तत्त्वों जैसे राष्ट्रीय संप्रभुता एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर एक राष्ट्र का दूसरे राष्ट्र पर निर्भरता के बीच आपसी समझौते का एक महत्त्वपूर्ण प्रयास है।
सम्प्रभुता की एक प्रमुख अपेक्षा है कि राष्ट्रीय हित को सर्वोपरि करके अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर समझौते किए जाएँ, एवं अपनी इच्छा को दूसरे राष्ट्र की इच्छा पर थोपा न जाए इसके विपरीत एक राष्ट्र की दूसरे राष्ट्र की निर्भरता की अपेक्षा है कि राष्ट्र अपने अस्तित्व तथा विकास के लिए अन्य राष्ट्रों का सहयोग करें उनकी सहायता लें तथा करें। वर्तमान समय में जिस गति से औद्योगिक एवं आर्थिक युग का विकास हुआ है तथा समय या परिस्थिति का जो प्रचलन है उसमें राष्ट्रों के बीच आपसी निर्भरता से हटा नहीं जा सकता है नहीं तो यह उनके लिए एक आत्मघाती परिणाम होगा।
उदार लोकातंत्रिक प्रक्रिया पर निर्मित राष्ट्रीय सरकारों की भाँति ही अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों के लिए भी सबसे बड़ा खतरा गलत निर्णय लेना नहीं है बल्कि निर्णय लेने में असफल रहना है। विशेषतया उस समय जबकि अविलम्ब निर्णय लेना हो । अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में इतिहास का जो प्रवाह अब तक रहा है उस आधार पर यह कहा जा सकता है कि अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की प्रक्रिया के मध्य भविष्य के बारे में सजग तथा नियंत्रित आशावाद की जरूरत है।
अन्तर्राष्ट्रीय संगठन एक प्रक्रिया है जबकि विभिन्न अन्तर्राष्ट्रीय संगठन उस प्रक्रिया की गति या रूप के प्रतिनिधि पहलू हैं। कूटनीति, संधि, समझौते सम्मेलन, अन्तर्राष्ट्रीय कानून आदि साधनों के माध्यम से अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की प्रक्रिया निरन्तर प्रवाहमान है जो मूर्तरूप में अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों को जन्म देती हैं। अन्तर्राष्ट्रीय संबंधों की वृद्धिमान जटिलता अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों के अस्तित्व के लिए उत्तरदायी हैं जो विश्व संगठन की प्रक्रिया में निहित है।
यह विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि यदि मनुष्य का कोई भविष्य है तो ठीक उसी प्रकार अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की प्रक्रिया का भविष्य है। यह निकट भूत की ही उपज है तथापि एक प्रमाणित प्रवृत्ति बन चुकी है। अन्तर्राष्ट्रीय संगठन के अन्तर्गत राष्ट्र संघ, संयुक्त राष्ट्र संघ आदि आ सकते हैं पर अन्तर्राष्ट्रीय संगठन को कायम रहना है।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों का विकास विश्व समाज की जरूरत का परिणाम हैं। आधुनिक राष्ट्र राज्य न तो पूरी तरह एक दूसरे से अलग रह सकते हैं और न एक दूसरे के अधीन। वे अपनी सुरक्षा एवं आर्थिक प्रगति के लिए दूसरों पर निर्भर रहते हुए भी अपनी संप्रभुता को सर्वधा सुरक्षित रखना चाहते हैं। अन्तर्राष्ट्रीय संगठन इन परस्पर विरोधी शक्तियों, राष्ट्रीय संप्रभुता एवं अन्तर्राष्ट्रीय अन्योन्याश्रय के मध्य समझौते का एक प्रयास है। अन्तर्राष्ट्रीयवाद, लोक कल्याण की भावना, विश्व शांति एवं सुरक्षा की व्यवस्था, राष्ट्रीय महत्त्वाकांक्षाओं पर रोक एवं निर्बाध राष्ट्रीय शक्ति पर नियंत्रण की जरूरत ने अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों को जन्म दिया है। अन्तर्राष्ट्रीय जीवन में इन संगठनों की उपयोगिता निर्विवाद रूप में सिद्ध हो चुकी है। अन्तर्राष्ट्रीय जीवन का शायद ही ऐसा कोई पहलू होगा जो इन संगठनों के प्रभाव से अछूता हो। पराधीन राष्ट्र को मुक्ति दिलाने, युद्धों को संक्रामक रोगों को रोकने तथा लोगों का जीवन स्तर ऊँचा उठाने की दिशा में इन संगठनों ने उल्लेखनीय कार्य किया है। अन्तर्राष्ट्रीय संगठन अपूर्ण अवस्था में ही सही आज के अन्तर्राष्ट्रीय जगत की जगमगाती वास्तविकता है। मन बुद्धि एवं विवेक ने इससे आगे कोई ऐसा विचार ही नहीं दिया है। जो व्यवहार में उतारा जा सका हो । विश्व सरकार, विश्व राज्य या विश्व समाज जैसे विचार अभी भी कल्पना एवं आदर्श की ही वस्तु है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि अन्तर्राष्ट्रीय संगठन निष्क्रियता एवं पूर्णतया स्वतंत्र की बीच की स्थिति में होते हैं। ऐसे संगठन न तो वे निष्क्रिय हैं और न ही पूर्ण स्वतंत्र ।
अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की प्रकृति
अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की प्रकृति (Nature of International Organization)- अन्तर्राष्ट्रीय संगठन अन्तर्राष्ट्रीय संबंध एवं अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति से भिन्न हैं। अन्तर्राष्ट्रीय संबंध से मतलब राज्यों के मध्य परस्पर सामान्य संबंधों से है। इसके अन्तर्गत राज्यों के बीच सरकारी, गैर सरकारी, राजनीतिक, गैर-राजनीतिक सभी संबंध आते हैं। इसका मुख्य विषय राज्यों के भौगोलिक, तकनीकी, सामाजिक, एवं राजनीतिक संबंधों से सम्बद्ध है।
अन्तर्राष्ट्रीय संगठन अपने वास्तविक रूप में निजी अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों से भिन्न हैं। व्यापार, यातायात, संचार, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि क्षेत्रों में अनेक गैर सरकारी अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों की स्थापना भी होती रही है। उनमें से बहुतों के संगठन स्थायी हैं एवं इनके सदस्य राष्ट्र नियमित रूप से मिलते रहते हैं। इनके अपने-अपने कार्यालय एवं कर्मचारी हैं। उनका उद्देश्य सर्वराष्ट्रीयता को बढ़ावा देना है। उनकी प्रेरणा से कभी-कभी सरकारी अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों की स्थापना भी होती है। फिर भी, उन्हें अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की संज्ञा नहीं दी जा सकती।
पॉटर के अनुसार- “वास्तव में ये न तो अन्तर्राष्ट्रीय संगठन हैं और न इनका रूप अन्तर्राष्ट्रीय हैं।”
अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की प्रकृति के संबंध में क्लॉड ने दो विचारधाराओं की चर्चा की है। पहली विचारधारा यथार्थवादी विचारकों की एवं दूसरी कल्पनावादी आदर्शवादी विचारकों की है। पहली विचारधारा के अनुसार अन्तर्राष्ट्रीय संगठन वर्तमान राज्य व्यवस्था के संतोषप्रद कार्य सम्पादन के साधन हैं। इसकी स्थापना बहुराज्यीय व्यवस्था के संदर्भ में होती है। संप्रभुता सम्पन्न राज्य इसकी आधारभूत इकाई है। कारण यह है कि अन्तर्राष्ट्रीय संगठन के द्वारा किसी ऐसी सर्वोपरि सरकार की स्थापना नहीं होती जो राज्यों की संप्रभुता को समाप्त कर उनकी सरकारों के सभी कार्यों को अपने हाथों में ले ले। अन्तर्राष्ट्रीय संगठन अन्तर्राज्य संबंधों के संचालन के पुराने तरीकों की जगह नवीन तथा श्रेयस्कर तरीकों की स्थापना करता है, राज्यों के ऐच्छिक सहयोग को सुगम बनाने तथा उसे प्रोत्साहित करने के लिए नए अभिकरणों की स्थापना करता है, उनकी नीतियों के बीच समन्वय कायम रखने का प्रयास करता है तथा उनके कूटनीतिक व्यवहार के लिए समुचित रूप से अधिक संगठित ढाँचा प्रस्तुत करता है।
इसके विपरीत एक दूसरी विचारधारा है जो यह मानती है कि अन्तर्राष्ट्रीय संगठन के द्वारा ऐसी प्रक्रिया का सूत्रपात होता है जिसक द्वारा विश्व-सरकार का स्वप्न साकार होगा। यह एक ऐसी प्रक्रिया का प्रतिनिधित्व करता है जो वर्तमान राष्ट्रीय राज्य व्यवस्था का अतिक्रमण करके एवं आधार भूत रूप में नयी व्यवस्था स्थापित करके विश्व बन्धुत्व एवं मातृत्व के पुराने स्वप्न को साकार करना चाहती है। इस विचार के प्रतिपादकों का कहना है कि जब सारा विश्व एक सरकार के अधीन हो जाएगा तो युद्धों का स्वरूप ही बदल जाएगा। प्रथम तो युद्ध होंगे ही नहीं एवं यदि होंगे भी तो महायुद्ध न होकर गृहयुद्ध मात्र होंगे। 20 दिसम्बर 1956 को संयुक्त राष्ट्रसंघ की महासभा में भाषण देते हुए पंडित नेहरू ने कहा था कि वर्तमान युग में “हम संकुचित दृष्टिकोण नहीं रख सकते। हमें अनागत की ओर देखना चाहिए। इसके लिए निश्चित रूप से केवल एक ही मार्ग है- विश्व सरकार या एक विश्व का उद्भव”। इस संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि संयुक्त राष्ट्रसंघ विश्व सरकार के निर्माण की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम हैं। इसके द्वारा परम्परागत राष्ट्र संप्रभुता को काफी नियंत्रित किया गया है एवं इस प्रकार विश्व सरकार की स्थापना के लिए आवश्यक दशा तैयार करने में ममहत्त्वपूर्ण योगदान किया है।
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