संस्कृति का क्या अर्थ है? इसकी परिभाषा दीजिए तथा मूल्य एवं संस्कृति के संबंध को स्पष्ट कीजिए ।
संस्कृति शब्द अंग्रेजी भाषा के ‘कल्चर’ शब्द का पर्याय है। यह लैटिन भाषा के ‘कल्ट या कल्टस’ से लिया गया है, जिसका अर्थ है जोतना, विकसित करना या परिष्कृत करना एवं पूजा करना। यह शब्द संस्कृत के ‘कृ’ धातु से ‘क्तिन’ प्रत्यय और ‘सम’ उपसर्ग को जोड़कर बना है। सम्+कृ+ क्तिन=संस्कृति। इसका अर्थ अत्यन्त व्यापक हैं, कुछ विद्वान् संस्कृति को संस्कार का रूपान्तरित शब्द मानते हैं, विभिन्न विद्वानों ने संस्कृति की परिभाषाएँ कुछ इस प्रकार दी हैं-
ह्वाइट के अनुसार- “संस्कृति एक प्रतीकात्मक, निरन्तर, संचयी एवं प्रतिशील प्रक्रिया है।”
रामधारी सिंह दिनकर के अनुसार- “संस्कृति मानव जीवन में उसी तरह व्याप्त है, जिस प्रकार फूलों में सुगन्ध एवं दूध में मक्खन। इसका निर्माण एक या दो दिन में नहीं होता, युग-युगान्तर में संस्कृति निर्मित होती है।”
टी.एस. इलियट के अनुसार शिष्ट व्यवहार, ज्ञानार्जन, कलाओं के आस्वादन इत्यादि के अतिरिक्त किसी जाति की अथवा वे समस्त राष्ट्रीय क्रियाएँ एवं कार्य-कलाप, जो उसे विशिष्टता प्रदान करते हैं, संस्कृति के अंग हैं।”
बायलर के अनुसार “संस्कृति वह जटिल पूर्णता है, जिसमें ज्ञान, विश्वास, कला, नैतिकता, रीति-रिवाज, नियम एवं समाज के सदस्य के रूप में मनुष्य द्वारा अर्जित की जानी वाली अन्य सोग्यताएँ तथा आदतें सम्मिलित रहती हैं।”
संस्कृति के सच्चे आधार विचार होते हैं। संस्कृति का मूल आधार मानव मन में होता है, न बाह्य अभिव्यक्ति में शिक्षाशास्त्रियों ने संस्कृति के दो रूप बतलाए हैं-
(1) भौतिक तथा (2) अभौतिक
भौतिक संस्कृति के अन्तर्गत वे सभी वस्तुएँ आती हैं, जिनका स्वरूप मूर्तवत् है, अर्थात् जिन वस्तुओं का निर्माण मानव जाति द्वारा किया गया है, जैसे- मकान, दुकान, वस्त्र, आभूषण, सड़क, इंजन, घड़ी, मशीन, रेडियो, टी.वी. एवं संगणक इत्यादि।
अभौतिक संस्कृति में वे सभी बाते आती हैं, जिनका स्वरूप अमूर्त है। इन बातों का विकास जाति के सामूहिक रूप में रहने से होता है। जैसे- धर्म, भाषा, संगीत, कला, साहित्य, रूढ़ियाँ, रीति-रिवाज, जनरीतियाँ, आचार-विचार, प्रथाएँ, संस्कार एवं संस्थाएँ आदि अभौतिक संस्कृति के परिचायक हैं।
मूल्य एवं संस्कृति में सम्बन्ध-
मूल्य एवं संस्कृति का अत्यंत घनिष्ठ सम्बन्ध है। एक के अभाव में दूसरे का कोई अस्तित्व नहीं है। अर्थात् संस्कृति विहीन मूल्य निस्सार एवं निष्प्रयोजन है। यदि किसी समाज की शिक्षा में कोई विशेषता पायी जाती है तो उसका एक मात्र कारण उस समाज की संस्कृति है। प्रायः प्रत्येक समाज अपनी अस्तित्व को बनाए रखने के लिए विविध प्रकार के संस्कृति की सेवा एवं सहायता करती है। साथ ही अपने कार्यों को सम्पन्न करने के लिए संस्कृति का सहयोग प्राप्त करती है। इस प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि शिक्षा संस्कृति की सहयोगिनी है। मूल्य व संस्कृति के घनिष्ठ संबंध के विषय में कुछ तथ्य इस प्रकार हैं-
- संस्कृति की निरन्तरता में सहायता करना
- संस्कृति के हस्तान्तरण में सहायता करना।
- संस्कृति के परिवर्तन में सहायता करना।
- व्यक्ति के सांस्कृतिक विकास में सहायता करना।
- व्यक्ति के विकास में सहयोग देना।
- शिक्षा में संस्कृति का समावेश करना।
प्रायः संस्कृति किसी भी जाति या वर्ण के इतिहास का शुद्ध निष्कर्ष मात्र होती है। यह उन रीतियों और परम्पराओं के सहयोग से बनती हैं, जिनमें उस जाति के लम्बे समय के अनुभवों का निचोढ़ होता है। मूलतः व्यक्ति हर बात को नए रूप में सीखता है। सिखाना मूल्य शिक्षा व संस्कृति का कार्य है। यही कारण है कि व्यक्ति समाज के सदस्य के रूप में संस्कृति को ग्राह्य करता है। इतना ही नहीं, बल्कि ग्राह्य संस्कृति को दूसरी पीढ़ी तक हस्तान्तरित करता है। हस्तान्तरण के इस कार्य में शिक्षा अपना अपूर्व योगदान देती है। यह सत्य है कि व्यक्ति अज्ञात रूप में संस्कृति की प्रत्येक बातें सीखता है परन्तु यह भी सत्य है कि इस सीखने का माध्यम शिक्षा ही होती है। ओटावे का कथन हैं कि “शिक्षा का एक कार्य समाज के सांस्कृतिक मूल्यों और व्यवहार के प्रतिमानों को अपने तरुण एवं समर्थ सदस्यों को हस्तान्तरित करना है।”
सामान्यतः बालक के व्यक्ति का विकास, संस्कृति के सहयोग के बिना संभव नहीं हो सकता है। यही कारण है कि मूल्य शिक्षा बालक को संस्कृति के अनेक उपकरण उपलब्ध कराती हैं जिनका प्रयोग बालक के बौद्धिक, चारित्रिक, संवेगात्मक और आध्यात्मिक विकास के लिए करती है। ओटावे ने लिखा है- “जिस संस्कृति में व्यक्तित्व का विकास होता है, उसके द्वारा उसका आंशिक निर्माण किया जाता है। “
मूल्य शिक्षा व्यक्ति के सांस्कृतिक विकास में सहायता करती है। भारतीयों में जो ज्ञान आदिकाल से आज तक का संचित है वह सब हमारी संस्कृति का ही एक अंग हैं। प्रायः अमर योगियों की जीवनियों को अनुप्राणित करने वाला वर्णन तथा वीरों की महानता की एक झलक भी हमारी संस्कृति के विकास के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है। शिक्षा के माध्यम से इतिहास का अध्ययन सांस्कृतिक झलकियों को प्रकाशित करता रहता है।
मूल्य शिक्षा परिवर्तन संस्कृति के परिवर्तन में सहायता करती है। शिशु जैसे बड़ा होता जाता है वह वैसे-वैसे अपनी संस्कृति को अपनाता जाता है। वह समाज, परिवार के रीति-रिवाजों, आदतों, नियमों आदि को सीखता जाता है। सामान्यतः इन बातों को अपने माता-पिता, परिवार, समाज के लोगों तथा विद्यालय के गुरुजनों से सीखता है। इसके फलस्वरूप उसके व्यवहार में निरन्तर परिवर्तन होता जाता है। परिवर्तन का यह कार्य चेतन और अचेतन दोनों प्रकार होता रहता है।
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