पल्लवन के तत्व निर्धारित करते हुए उसकी विधि या प्रक्रिया पर अपने विचार लिखिए।
पल्लवन की प्रक्रिया संक्षेपण प्रक्रिया के ठीक विपरीत है। संक्षेपण में मूल सामग्री का सार लेख में प्रस्तुत किया जाता है, जबकि पल्लवन में मूल कथन या सूक्ति का विस्तार। पल्लवन में कथन के खंडन-मंडन की स्वतंत्रता नहीं होती। भावपूर्ण कथन पल्लवन द्वारा संक्षिप्त निबन्ध का रूप ले लेता है, किन्तु पल्लवन निबन्ध नहीं है। पल्लवन-विधि में हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि विस्तारण में विषय से सम्बन्धित तथ्यों का उल्लेख अवश्य किया जाये, परन्तु अनावश्यक वृद्धि और अनपेक्षित शब्दों का प्रयोग वर्जित होना चाहिए। बहरहाल किसी विषय, सूक्ति, मुहावरा, कहावत, कथन, लोकोक्ति आदि के पल्लवन और विस्तार के लिए हमें उस विषय को कई बार चबा-चबाकर पढ़ने के अलावा उसकी रूपरेखा, लिखित रूप देने तथा लिखित रूप देने के अलावा तथा उसका पुनरीक्षण आदि प्रक्रिया करनी चाहिए। उसके साथ ही-
- मूल कथन के विस्तारण के समय हमें अपने कथन के साक्ष्य और प्रमाण के लिए कुछ उद्धरण और उदाहरण देना चाहिए।
- यदि पल्लवनकर्ता किसी विचार या कथन से सहमत नहीं है तो उसे असहमति व्यक्त करने का अधिकार नहीं है।
- चूँकि पल्लवन या विस्तारण की आवश्यकता अधिकांशतया वरिष्ठ अधिकारियों, सलाहकारों, मंत्रियों या कार्यपालकों तथा विद्यालयों में विद्यार्थियों को ही होती है, इसलिए इसकी भाषा पर हमें ध्यान देना चाहिए।
- अत: चमत्कार या चमत्कृत करने वाली भाषा के प्रयोग से पल्लवन की प्रक्रिया में बचना चाहिए, भाषा विषयानुकूल, सरल, सुबोध एवं शुद्ध होनी चाहिए। कुल मिलाकर भाषा विषय और भाव के अनुकूल होनी चाहिए।
- मूल भाव का विस्तार अन्य पुरुष में होना चाहिए।
- विस्तारण की प्रक्रिया मूल के अनुसार क्रमबद्ध होनी चाहिए, कहीं से अटपटेपन की गंध न उठे,
- पल्लवन की प्रक्रिया में हमारा प्रयास होना चाहिए कि मूल स्थल की केन्द्रीय आत्मा पल्लवन में आ जाये
- विद्यार्थियों को चाहिए कि यदि पल्लवन की प्रक्रिया से कुछ तयशुदा शब्दों में करने का आदेश है तो वे इस आदेश का कतई उल्लंघन न करें,
- भाव-विस्तारण बोझिल न हो, अनावश्यक तथ्यों को बेमुरौव्वत निकाल, पल्लवन को अर्थपूर्ण बनाना चाहिए।
- व्यास शैली का प्रयोग कर पल्लवन की प्रक्रिया पूरी होनी चाहिए और अन्त में पल्लवित स्थल को ध्यान से पढ़कर यह देख लेना चाहिए कि कहीं फिजूल के तथ्यों की भर्ती न हो गई हो, कहीं व्याकरणिक अशुद्धियां तो नहीं रह गयी हैं, विरामादि चिन्ह उपयुक्त जगह प्रयुक्त हुए हैं या नहीं।
पल्लवन के तत्व-
पल्लवन या विस्तारण के लिए कुछ बहुत जरूरी तत्व या अनुशासन हिन्दी में तय किये गये हैं। किसी भी पल्लवन करने वाले के लिए इनका पालन बहुत जरूरी होता है। यदि इन बिन्दुओं या तत्वों पर ध्यान नहीं दिया गया तो पल्लवन के स्खलित या खंडित हो जाने का खतरा निरन्तर बना रहता है-
1. भाषा सरल और सीधी हो- पल्लवन की भाषा कठिन न हो, सामान्य पाठक का वृदयंगम कर सके। वह चमत्कारिता के मोह से मुक्त होनी चाहिए। कहीं किसी भाषिक फंतासी और कुहारम की छुअन दूर-दूर तक न हो। शिल्यगत और सपेषणीय हो। कुल मिलाकर भाषा पारदर्शी होनी चाहिए।
2. सुन्दर और श्रेष्ठ शब्द चित्र- श्रेष्ठ शब्द चित्र किसी भी रचना के पाठको आस्वाद को बढ़ाते है। अतः हमें पल्लवन करते समय हमेशा इस बात का ख्याल रखना पड़ेग कि इन शब्द चित्रों में किसी तरह की दुरूहता, कठिनता, समझ का धुंधलापन और अस्पष्टता आने पाये।
3. वस्तुगत गहराई- पल्लवन में कलात्मक प्रौढ़ता और वस्तुगत गहराई का ध्यान रखना चाहिए। हमें यह सदैव ध्यान रखना होगा कि पल्लवन करते समय जीवन के उपेक्षित और साधारण अनुभवों का अंकन छूटने न पाये क्योंकि ये अनुभव मामूली दिखने के बावजूद जिन्दगी के नाजुक पहलुओं से हमारा अनुभव कराते हैं। छोटी सी दिखने वाली बात भी कभी-कभी दैनिक जीवन में बड़े हर्ष या विषाद का कारण बन जाती है। अत: ऐसी स्थिति में अनुभूत सत्य के करीब तथ्यों का पल्लवन में उल्लेख अवश्य होना चाहिए।
4. सन्तुलित कलेवर- पल्लवन का दायरा निश्चित जद और कलेवर में होना चाहिए। पल्लवनकर्ता को चाहिए कि पल्लवन का शिल्प और गठन उसे सुन्दर ‘कैरीकेचर’ दे। पल्लवन को लोक शैली और लोक भाषा के लुभावने बाने में ढालने में सक्षम हो।
5. आश्वस्तकारी हो- पल्लवन नये विन्यास में तो प्रस्तुत होना ही चाहिए, वह आश्वस्तकारी तथा विचारोत्तेजक भी होना चाहिए। प्रत्येक वाक्य क्रमबद्ध हो। कहीं किसी तरह की शिथिलता और बिखरापन न हो। पल्लवन करने से पूर्व उस स्थल का मनोयोगपूर्वक गहरा अध्ययन कर लेना चाहिए।
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