प्रयोजनमूलक हिन्दी के अभिप्राय को स्पष्ट करते हुए उसका हिन्दी से क्या अन्तर है? स्पष्ट करते हुए प्रयोजनमूलक हिन्दी की प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
प्रयोजनमूलक हिन्दी- भारतीय संविधान में हिन्दी भाषा को राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है। संविधान के अनुसार भारत की संघीय भाषा हिन्दी ही है। इसलिये जब भारत से भाषा की प्रयोजनमूलकता की बात आती है तो उसका सीधा अर्थ व्यावहारिक भाषा या राजभाषा के रूप में हिन्दी की स्थिति से लगाया जाता है। इसलिये प्रयोजनमूलक हिन्दी से अभिप्राय शिक्षा, विधि एवं प्रशासन में प्रयुक्त होने वाली हिन्दी के स्वरूप से है।
26 जनवरी, 1950 से भारतीय संविधान के ढाँचे के आधार पर भारत में गणतन्त्र की स्थापना हुयी। अतः संविधान के अनुसार उसी दिन से हिन्दी भारत की राजभाषा है परन्तु संविधान में यह व्यवस्था भी की गयी है जब तक हिन्दी का प्रयोजन मूलक स्थिर नहीं हो जाता तब तक अंग्रेजी का प्रयोग उन सारे प्रयोजनों के लिये होता रहेगा, जिसकी अवधि 15 वर्ष अर्थात् 26 जनवरी, 1995 तक रहेगी। राजभाषा अधिनियम 1976 ने हिन्दी के राजभाषा स्वरूप को द्विभाषिक बना दिया है, अत: हिन्दी और अंग्रेजी दोनों का प्रयोग चलता रहेगा।
अत: प्रयोजनमूलक हिन्दी से हमारा अभिप्राय राजभाषा के रूप में हिन्दी के क्रियान्वयन से है। प्रशासनिक एवं अन्य सार्वजनिक क्षेत्रों में हिन्दी का प्रयोग किस रूप में हो और उसकी व्यवस्था कैसे की जाये, यह निर्णय करना सरकार का दायित्व था और इस दिशा में संविधान में अनके निर्धारित की गयी थी।
प्रयोजनमूलक एवं साहित्यमूलक हिन्दी में अन्तर-
अखिल भारतीय सम्पर्क भाषा के रूप में हिन्दी के एक स्वरूप के विकास का यत्न प्रशासनिक तथा अन्तः प्रादेशिक स्तरों पर हो रहा है जिसकी ओर संकेत हमारे संविधान की 351 की धारा दो में किया गया है।… इस स्तर पर तालमेल का अभी अभाव है।… इसी कारण केन्द्रीय सरकार ने कार्यालयों में जिस हिन्दी का थोड़ा-बहुत प्रयोग हो रहा है, वह पूरी तरह से वही हिन्दी नहीं है, जिसका उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान आदि हिन्दी प्रदेशों की सरकार कर रही है। वस्तुतः इसके लिए काफी प्रभावी ‘कोआर्डिनेशन’ की आवश्यकता है। कार्यालय भी विभिन्न क्षेत्रों में और स्तरों पर कई प्रकार के (कचहरी, बैंक ऊपर से नीचे तक के प्रशासनिक स्तर के कमिश्नर, कलेक्टरी, तहसील, परगना आदि) है, और उन सभी की अपनी अलग-अलग अभिव्यक्ति आवश्यकताएं और परम्पराएं हैं। अत: इन सभी में हिन्दी के जो रूप हैं और विकसित हो रहे हैं, किसी-न-किसी रूप में एक साहित्यिक विधाओं (जैसे- काव्य, नाटक, कथा-साहित्य, आलोचना), संगीत, आभूषणों के बाजारों, कपड़ों के बाजारों, विभिन्न प्रकार के सट्टा बाजारों, समाचारों-पत्रों, धातुओं आदि के क्रय-विक्रय की दुनिया (जिसकी एक झांकी किसी भी दैनिक पत्र के सम्बद्ध पृष्ठ से ली जा सकती है) फिल्मी, चिकित्सा व्यवसाय खेतों खलिहानों, विभिन्न शिल्पों और कलाओं, विभिन्न कसरतों-खेलों के अखाड़ों, कोर्टो और मैदानों या उनकी मेजों इत्यादि में प्रयुक्त हिन्दी पूर्णत: एक नहीं है। ध्वनि, शब्द (कभी-कभी) रूप-रचना, वाक्य-रचना, मुहावरों आदि की दृष्टि से उनमें कभी थोड़ा कमी, अधिक स्पष्ट अन्तर है और ये सारे हिन्दी के ही अलग-अलग प्रयोजनमूलक रूप है।
प्रयोजनमूलक हिन्दी व्यावहारिक पक्ष को उजागर करने के लिए भाषायी रूप है यह भाषायी रूप सामाजिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए विशेष रूप से प्रयुक्त होता है और इसका प्रयोजनमूलक’ विश्लेषण इसके व्यावहारिक तथा कामकाजी पक्ष को अधिक स्पष्ट करता है। साहित्यमूलक हिन्दी काव्य नाटक तथा साहित्य की अन्य विधाओं में प्रयोग की जाने वाली हिन्दी है। विविध प्रयोजनों में प्रयोग की जाने वाली भाषा में शब्दावली, वाक्य रचना और शैली के स्तर पर भेद देखने को मिलता है। यह भेद छात्रों को पढ़ाने वाले अध्यापक और न्यायाध गीश के समक्ष अपने मुवक्किल का पक्ष प्रस्तुत करने वाली वकील के भाषिक संप्रेषण की शब्दावली ‘वाक्य-रचना, पदबंध, शैली और लहजे में अन्तर स्पष्ट करता है।
यह अन्तर मुख्यतः शब्द प्रयोग, सहप्रयोग तथा वाक्य-रचना के स्तर पर मिलते हैं, किन्तु कभी-कभी ध्वनि, रूप-रचना तथा अर्थ के स्तर पर भी अन्तर होता है। शब्द प्रयोग के अन्तर से मेरा आशय है, विशिष्ट क्षेत्रों में एक अर्थ में विशिष्ट शब्दों के प्रयोग से। उदाहरण के लिए सामान्य भाषा में जिस चीज के लिए ‘नमक’ शब्द का प्रयोग होता है, रसायनशास्त्र में उसे ‘लवण’ कहते हैं। सहप्रयोग से आशय है दो या अधिक शब्दों का साथ-साथ प्रयोग। मंडियों की भाषा में चाँदी और सोना के साथ ‘लुढ़कना’ और उछलना क्रिया का प्रयोग होता है किन्तु हिन्दी के अन्य रूपों में इन संज्ञा शब्दों के साथ इन क्रियाओं का प्रयोग नहीं मिलेगा। वाक्य-रचना विषयक रूपान्तर बहुत अधिक मिलते हैं। संज्ञीकरण सर्वनामीकरण, कर्मवाच्यीकरण, भाववाच्यीकरण, लोपीकरण अथवा संक्षेपीकरण आदि। ध्वनि की दृष्टि से अन्तर-जैसा कि ऊपर संकेत है- कम मिलते हैं, किन्तु मिलते हैं। मंत्र-मंत्र, यंत्र-जंतर मीन-मेख के प्रयोग क्षेत्र कई स्तरों तक एक सीमा तक लगाए जा सकते हैं। अर्थ की अभिव्यक्ति में शास्त्रीय अथवा दफ्तरी भाषा में अभिधा पर बल रहता है तो सार्वजनात्मक साहित्य में लक्षण व्यंजन पर। ऐसे ही सामान्य भाषा में टीका लगाना तिलक लगाना है, किन्तु चिकित्सा से संबद्ध भाषा में सुई लगाना । काव्यशास्त्र में व्युत्पत्ति का एक अर्थ है तो भाषाशास्त्र में दूसरा संगीत में संगत करना का एक अर्थ है तो सामान्य भाषा में दूसरा।
प्रयोजनमूलक हिन्दी भाषा की विशेषताएं –
भारतीय संविधान में राजभाषा स्वीकृत होने के बाद हिन्दी के व्यवहारपरक पक्ष की ओर विद्वानों का ध्यान गया। विद्वनों का विचार था कि जब प्रयोग और कामकाज के स्तर पर हिन्दी का व्यवहार नहीं होगा, तब तक इसकी प्रगति अधूरी ही मानी जायेगी। बहरहाल, इस कल्पना ने प्रयोजनमूलक हिन्दी के रूप में मूर्त रूप अख्तिायार किया, आप जानते हैं हिन्दी सदा ही संघर्ष की भाषा रही हैं। इसने अपना जीवत्व सदैव अपने जन से प्राप्त किया, अपने समाज से राज से नहीं। यह कितना ही विस्मयकारी और चकित कर देने वाला तथ्य है कि इस देश की बहुलतावादी संस्कृति परम्परा और विलक्षणता का अपूर्व समंजन अपने भीतर करने वाली हिन्दी को यहाँ की राजकाज की भाषा बनने का अधिकार नहीं मिला। अंग्रेजी, फारसी और कभी-कभार उर्दू ने निरन्तर इसे दबाया-दबोचा। हाँ. साहित्यिक हिन्दी में यहां के कवियों ने अपनी स्मृतियों और अहसास के रंगतों तथा रोमानीमन को बेखौफ व्यक्त किया।
प्रयोजनमूलक हिन्दी की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
1. प्रयोजनमूलक हिन्दी की विशेष और अलग शब्दावली है।
2. प्रयोजनमूलक हिन्दी भाषा के समस्त मानक रूपों को समेटे रहती है।
3. भाषा का यह रूप साध्य नहीं, केवल साधन है।
4. प्रयोजनमूलक हिन्दी अधिगमित (विशेष उद्देश्य से प्रयत्नपूर्वक सीखी जाने वाली) भाषा
5. इसमें सर्वजन संवेद्यता और समरूपता अपेक्षित होती है।
6. इसकी वाक्य-रचना विशिष्ट एवं प्रयोजन सापेक्ष होती है।
7. शब्दों की सुनिश्चित एकार्थकता प्रमुख होती है।
8. इसके लिखित और वाचन रूप में शत-प्रतिशत समानता होती है।
9. संवैधानिक, कार्यालयी औपचारिकता और भाषिक मानसिकता इसके प्रमुख अंग हैं।
10. प्रयोजनमूलक हिन्दी का सम्बन्ध जीविकोपार्जन न नित्य जीवन से हैं।
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