“प्रयोजनमूलक हिन्दी वैविध्य से परिपूर्ण है।” कथन स्पष्ट कीजिए। अथवा प्रयोजनमूलक हिन्दी के विविध रूपों का उल्लेख कीजिए।
प्रयोजनमूलक हिन्दी विविधता से परिपूर्ण है, इस संबंध में डॉ. भोलानाथ तिवारी का कथन है, “स्वतन्त्रता के बाद हिन्दीभाषा का प्रयोग क्षेत्र बहुत बढ़ा है, और बढ़ता जा रहा है, तदनुकूल उसके प्रयोजनमूलक रूप भी बढ़े हैं और बढ़ते जा रहे हैं।
अखिन भारतीय सम्पर्क भाषा के रूप में हिन्दी के एक स्वरूप के विकास का यत्न प्रशासनिक तथा अंतः प्रादेशिक स्तरों पर हो रहा है जिसकी ओर संकेत हमारे संविधान की 351वीं धारा में किया गया है।…. इस स्तर पर ताल-मेल का अभी अभाव है। इसी कारण केन्द्रीय सरकार के कार्यालयों में जिस हिन्दी का थोड़ा-बहुत प्रयोग हो रहा है, वह पूरी तरह से वही हिन्दी नहीं है, जिसका उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान आदि हिन्दी- प्रदेशों की सरकारें कर रही हैं। वस्तुत: इसके लिए काफी प्रभावी कोऑर्डिनेशन की आवश्यकता है। कार्यालय भी विभिन्न क्षेत्रों में और स्तरों पर कई प्रकार के (कचहारी, बैंक, ऊपर से नीचे तक के प्रशासनिक स्तर के कमिश्नर कलक्टरी, तहसील, परगना आदि) हैं, और उन सभी की अपनी अलग-अलग अभिव्यक्ति आवश्यकताएं और परम्पराएँ हैं। अतः इन सभी में हिन्दी के जो रूप हैं वह और विकसित हो रहे हैं, किसी न किसी रूप में एक-साहित्यिक विधायों (जैसे-काव्य, नाटक, कथा-साहित्य आलोचना) संगीत, आभूषणों के बाजारों, कपड़ों के बाजारों, विभिन्न प्रकार के सट्टा बाजारों, समाचार-पत्रों, धातुओं आदि के क्रय-विक्रय की दुनिया (जिसकी एक झांकी किसी भी दैनिक पत्र के संबद्ध पृष्ठ से ली जा सकती है ) फिल्मी चिकित्सा व्यवसाय, खेतों, खलिहानों, विभिन्न शिल्पों और कलाओं विभिन्न कसरतों-खेलों के अखाडों कोर्टो और मैदानों या उनकी मेजों आदि इत्यादि में, पर प्रयुक्त हिन्दी पूर्णतः एक नहीं है। ध्वनि, शब्द, (कभी-कभी) रूप-रचना वाक्य रचना मुहावरों आदि की दृष्टि से उनमें कभी थोड़ा कभी अधिक स्पष्ट अन्तर है और ये सारे हिन्दी के ही अलग-अलग प्रयोजनमूलक रूप हैं।
कुछ उदाहरणों द्वारा उपर्युक्त बात स्पष्ट की जा सकती है शेयरों में सुधार सटोरियों की पयन सटोरियों की बिकवाली, चीनी में तेजड़ियों की पकड़ ढीली, दस्ती डेलिवरी वायदा शेयर, चाँदी में गिरावट सोना उछाला स्टैंडर्ड सोना खामोशी के साथ 318 पर खुला दिसावर के मंदे समाचारों से चना-चावल नरम, चाँदी लुढ़की जैसे प्रयोगों से युक्त हिन्दी का प्रयोग मंडियों और शेयर बाजारों में होता है तो सामान्य भाषा का प्रयोग आप कृपया इसे बैंक में जमा कर दें बैंक के कागजों पर जमा कर दें रह जाता है जिसमें कर्ता ओर कर्म गायब है। बोलचाल की सामान्य हिन्दी कर्ता- प्रधान है, किन्तु कार्यालयी हिन्दी में कर्ता का लोप कर दिया जाता है वहाँ अधिकारी आम जनता को सूचित करते हैं किन्तु कार्यालयी हिन्दी में कर्ता का लोप कर दिया जाता है। वहाँ अधिकारी आम जनता को सूचित करते हैं वे स्थान पर आम जनता को सूचित किया जाता है। आप वहाँ बिल्डिंग बनवा दें के स्थान पर जहाँ बिल्डिंग बनवा दी जाए आदि। वस्तुत: वहाँ व्यक्ति शासनतंत्र का अंग है, अत: आज्ञा या सूचना शासनतंत्र की ओर से आती है, व्यक्ति की ओर से नहीं इसी कारण वह महत्वपूर्ण नहीं रह जाता। ऐसे प्रयोगों की जड़ में कदाचित यही मनोविज्ञान है फाइलों पर तुरन्त’, ‘आवश्यक’, ‘अत्यन्त आवश्यक’, ‘अतितुरन्त’ पूरे वाक्य का अर्थ देते हैं।
जैसे- ‘वह पत्र अत्यन्त आवश्यक है’ का ‘अत्यन्त आवश्यक’ आदि। बोलचाल की भाषा नाटकों कथा-साहित्य के कथनाकथन में वाक्य के अनेक शब्दों का लोप करके उसे एक या दो शब्दों का कर लेते हैं। आपका नाम? तिवारी। ऐसे ही अवश्य, जरूर-जरूर, हाँ-हाँ, बखुशी, जहे किस्मत, अहोभाग्य, वाह क्या कहने, आदि। हिन्दी में बोलचाल में संज्ञा क्रिया की पुनरुक्तियों का प्रयोग बहुत अधिक होता है कुछ चाय-वाय मंगाओ तुम्हें चलना-वलना तो हैं नहीं …..किन्तु आलोचना कविता या शास्त्रीय विवेचना में यह बात नहीं मिलेगी। ये अन्तर मुख्यतः शब्द प्रयोग, सहप्रयोग तथा वाक्य रचना के सतर पर मिलते हैं, किन्तु कभी-कभी ध्वनि रूप रचना तथा अर्थ के स्तर पर भी अन्तर होता है। शब्द प्रयोग के अन्तर से मेरा आशय है, विशिष्ट क्षेत्रों में एक अर्थ में विशिष्ट शब्दों के प्रयोग से। उदाहरण के लिए सामान्य भाषा में जिस चीज के लिए नमक का प्रयोग होता है। रसायनशास्त्र में उसे लवण कहते हैं। सहप्रयोग से आशय है दो या अधिक शब्दों का साथ-साथ प्रयोग। मीडिया की भाषा में चाँदी और सोना के साथ लुढ़कना और उछलना क्रिया का प्रयोग होता है। किन्तु हिन्दी के अन्य रूपों में इन संज्ञा शब्दों के साथ इन क्रियाओं का सहप्रयोग नहीं मिलेगा। वाक्य-रचना विषयक रूपान्तर बहुत अधिक मिलते हैं। संज्ञीकरण, विशेषणीकरण सर्वनामीकरण कर्मवाध्यीकरण, भाववाच्यीकरण, लोपीकरण अथवा संक्षेपीकरण आदि। ध्वनि की दृष्टि से अन्तर जैसाकि ऊपर संकेत है। कम मिलते हैं, किन्तु मिलते हैं। मंत्र-मंतर, यंत्र-जंतर, मीन-मेख के प्रयोग क्षेत्र कई स्तरों तक एक सीमा तक लगाए जा सकते हैं। अर्थ की अभिव्यक्ति में शास्त्रीय अथवा दफ्तरी भाषा में अभिधा पर बल रहता है तो सर्वजनात्मक साहित्य में लक्षणा व्यंजना पर ऐसे ही सामान्य भाषा में ‘टीका लगाना’ तिलक लगाना है, किन्तु चिकित्सा से संबद्ध भाषा में सुई लगाना। काव्यशास्त्र में व्युत्पत्ति का एक अर्थ है तो भाषाशास्त्र में दूसरा, संगीत में संगत करना का एक अर्थ है तो सामान्य भाषा में दूसरा। अंतरों की यह सूची काफी बढ़ाई जा सकती है। वस्तुतः इस दिशा में अभी काम करने की आवश्यकता है।
समवेत हिन्दी के मुख्य प्रयोजनमूलक रूप सात हैं-
- बोलचालीय हिन्दी।
- व्यापारी हिन्दी- (इसमें भी मंडियों की भाषा, सर्राफ के दलालों की भाषा, सट्टा बाजार की भाषा आदि कई रूप हैं)
- कार्यालयी हिन्दी- (कार्यालय भी कई प्रकार के होते हैं और उनमें भी भाषा के स्तर पर कुछ अन्तर होता है।
- शास्त्रीय भाषा- (विभिन्न शास्त्रों में प्रयुक्त भाषाएँ भी शब्द के स्तर पर कुछ अलग है। इसमें संगीतशास्त्र, काव्यशास्त्र, भाषाशास्त्र, दर्शनशास्त्र, योगशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, विधिशास्त्र, आदि की भाषाएँ हैं।
- तकनीकी हिन्दी- (इंजीनियरी, बढ़ईगिरी, लुहारी, प्रेस, फैक्टरी मिल आदि की तकनीकी भाषा)
- समाजी हिन्दी- (इसका प्रयोग सामाजिक कार्यकर्ता करते हैं।)
- साहित्यिक हिन्दी- (इसमें कविता कला, साहित्य तथा नाटक की भाषा में अन्तर होता है।)
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