प्रयोजनमूलक हिन्दी से आप क्या समझते हैं? इसकी दिशा का वर्णन कीजिए।
प्रयोजन शब्द जब सामने आता है तो इसका यही अर्थ लागाया जा सकता है कि किसी खास प्रयोजन के लिये और प्रयोजनमूलक हिन्दी का भी यही अर्थ है- किसी खास प्रयोजन के लिए व्यवहृत होने वाली हिन्दी ही प्रयोजनमूलक हिन्दी है। इसके लिये व्यावहारिक हिन्दी शब्द भी बताया गया है। डॉ. रमा प्रसन्न नायक का कथन है, “प्रयोजनमूलक शब्द ऐसी ध्वनि उत्पन्न करता है जैसे कोई ऐसी भी हिन्दी होती है जो निष्प्रयोजन होती है। इसीलिए उनकी मान्यता है कि व्यावहारिक हिन्दी कहना अधिक उचित है।”
डॉ. नगेन्द्र एवं ब्रजेश्वर वर्मा इस मत से सहमत नहीं हैं। डॉ. नगेन्द्र की मान्यता है- प्रयोजनमूलक विशेषण सांकेतिक एवं अर्थ गर्भित है और पदार्थ के रूप में यदि कोई हिन्दी है तो वह आनन्दमूलक हिन्दी है। आनन्द व्यक्ति सापेक्ष होता है जबकि प्रयोजन समाज सापेक्ष । आनन्द स्वकेन्द्रित होता है जबकि प्रयोजन का ताल्लुक समूचे मानव समाज से है।
डॉ. बृजेश्वर वर्मा- निष्प्रयोजन हिन्दी की अवधरणाा को अमानय करते हुये कहते हैं कि प्रयोजनमूलक विशेषण हिन्दी के व्यावहारिक पक्ष को अधिक उजागर करने के लिए प्रयुक्त हुआ है। आज प्रयोजनमूलक शब्द अंग्रेजी के Functional Language के रूप में प्रयुक्त हो रहा है। भाषा सम्प्रेषण सम्पर्क साहित्य में प्रयुक्त होती है जहाँ लिखित रूप व्यवहार होता है, साथ ही व्याकरण समस्त प्रयोग वहाँ नितान्त अपेक्षित है, भाषा की सब प्रकार की शुद्धता महत्त्वपूर्ण है। व्यवहार की भाषा आम लोगों के व्यवहार से बनती है, संवरती है, जिसमें विचार विनिमय का आग्रह कुछ ज्यादा होता है।
डॉ. माहुरी सत्यनारायण ने प्रयोजनमूलक हिन्दी का विचार करते हुये कहा है- जीवन की जरूरत की पूर्ति के लिए उपयोग में लाई जाने वाली हिन्दी ही प्रयोजनमूलक हिन्दी है। यहाँ इस बात का उल्लेख करना वाजिब होगा कि वस्तुतः भाषा के दो पक्ष होते है। एक का रिश्ता वास्ता हमारी व्यक्तिगत सौन्दर्यानुभूति से होता है। यह आत्मसुख एवं सन्तुष्टि का आधार होता है। इस प्रकार यह स्वकेन्द्रित होता है।
दूसरा पक्ष सामाजिक होता है। इसका जुड़ाव जीवन से होता है। ऊपर से रिश्ते से भले ही यह व्यक्तिगत लगता है पर होता है समाज परक । दूसरा हमारा रोजी-रोटी का गहरा लगाव होता है यह सेवा माध्यम के रूप में प्रयुक्त होता है। भाषा का यह दूसरा पक्ष ही प्रयोजनपरक होता है। इसलिए प्रयोजनमूलक हिन्दी उसे कहते हैं जो सेवा के अन्तर्गत संस्था के माध्यम के लिहाज से प्रयोग में लाई जाती है। यदि उसकी परिभाषा ही देनी हो तो इस प्रकार कहा जा सकता है।
प्रयोजनमूलक हिन्दी, भाषा का वह रूप है जिसका प्रयोग किसी विशिष्ट प्रयोजन हेतु किया जाता है। अवधारणा का क्रमिक विकास-
आचार्य केसरी राजकुमार का कथन है, हिन्दी आम आदमी की आवश्यकता हेतु प्रकृति की कोख से उत्पन्न हुई है यह नहीं कहा जा सकता कि यह भाषा कब प्रकाश और प्रयोग में आयी। जिस आम आदमी की भाषा के रूप में विकसित हुई उस आदमी की सन्तति मानव के हर क्षेत्र में, प्रत्येक चौराहे पर और हर बाजार तीर्थ, श्रमिकों भिखमंगों की गलियों में, क्रान्तिकारियों में हर जमात में मिल जायेगी, यह आदमी परिस्थिति और प्रकृति दोनों देश में सामाजिक संस्कृति का संवाहक रहा है। यह मानना निराधार नहीं है कि हिन्दी का विकास भारत की लोक चेतना का विकास है रूढ़ियों से मुक्त भारतीय संस्कृति की भूल चेतना से संरक्षण का इतिहास है।
मध्यकालीन संत- हिन्दी के विषय में यह बहुत महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि हिन्दी के प्रचार-प्रसार में मध्यकालीन सन्तों की भूमिका विलक्षण रही है साथ ही तीर्थयात्रियों का भी योगदान कम नहीं हैं भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम 1857 से लेकर 1947 तक हिन्दी ही एक ऐसी भाषा थी, जिसने उत्तर-दक्षिण पूरब-पश्चिम को एक सूत्र में बाँधने की भूमिका निभायी, इसके महत्त्व को हमारे देश के नेताओं -राजा राममोहन राय, केशवचन्दसेन, दयानन्द, आदि ने समझा और इसके प्रचार-प्रसार हेतु पत्रिकाओं का प्रकाशन किया। उदंतमार्तण्ड, सत्यार्थ प्रकाश पत्रिकायें इसके ही उदाहरण है फोर्ट विलियम कॉलेज का उद्देश्य भी कुछ ऐसा ही था, साथ ही ईसाई मिशनरियों के योगदान को भी नकारा नहीं जा सकता। इस प्रकार यह माना जाता है कि हिन्दी प्रयोग की बात अहिन्दी भाषी क्षेत्रों से ही प्रारम्भ हुईं यह भी महत्त्वपूर्ण है कि मुसलमान कवियों ने भी इसमें कम योगदान नहीं दिया। दक्खिनी हिन्दी के नाम से जानी गयी हिन्दी, इसके द्वारा ही विकसित हो सकी। साथ ही राजकीय भाषा के रूप में भी प्रयोग दक्खिनी मुगलों द्वारा प्रारम्भ हुआ। यह भी सर्वसमान्य तथ्य है कि हमारी जनचेतना के विकास का आधार हिन्दी भी रही है।
भाषा प्रयोग से अपने आप संवरती चली जाती है फिर भी राष्ट्र के बुद्धिजीवी समुदाय ने यहाँ भाषा को सजाने और संवारने का कार्य बुद्धिजीवियों द्वारा ही होता है और बराबर होता रहा है, जिसमें देश ही नहीं पाश्चात्य मनीषियों की भी भूमिका महत्त्वपूर्ण रही है।
डॉ. गिल काइस्ट, कैप्टन शेबर, जॉन कीट्स, जार्ज ग्रियर्सन, फ्रेडरिक, फादर पिन काट, फादर कामिल बुलके आदि नाम उल्लेखनीय हैं।
लगभग हजारों वर्षों से हिन्दी ही एक ऐसी भाषा रही है जिसके माध्यम से समूचे देश में सम्पर्क सूत्र जोड़ा गया । धार्मिक सांस्कृतिक कार्य सम्पादन होते रहे हैं। व्यापार का संचालन होता रहा है। बंगाल के सिद्धों, नाथपंथियों, सूफी सन्तों ने इसी का सहारा लेकर अपने विचारों का प्रचार-प्रसार किया है।
अत: यह मानना स्वाभाविक है कि हिन्दी हमारे प्रयोजन की परम्परागत भाषा है साथ ही हमारे चिन्तन और सांस्कृतिक जीवन की यही एक कड़ी भी है। अत: इसकी उपयोगिता है और रहेगी।
वर्तमान प्रयोजन और हिन्दी की दिशा- भारत में अंग्रेजी छायी हुई थी, गयी तो आज भी नहीं है पर धीरे-धीरे हिन्दी अब बढ़ रही है। आज यह आवश्यक हो गया है कि आम आदमी से जुड़ने हेतु यह एक ऐसी भाषा है जिसको अपनाया जाना चाहिए। इसी कारण राजभाषा, राष्ट्रभाषा के रूप में इसी की मान्यता है।
जहाँ तक प्रयोजन का प्रश्न है, भाषा के मुख्य दो प्रयोजन माने जाते हैं पहला भाषा का रूप है जो आदमी अपनी रोजमर्रा की जिन्दगी में प्रयोग करता है। दूसरा है जिसका उपयोग वह किसी विशेष प्रयोजन या संदर्भ में करता है पहला प्रयोग सरल है उसमें व्याकरण का झंझट नहीं है। व्यक्ति अपने चारों ओर बिखरी भाषा के माध्यम से काम चला लेता है। विशिष्ट प्रयोजन की भाषा सीखनी पड़ती है उसका अभ्यास भी करना होता है। यही भाषा प्रयोजनमूलक मानी जाती है।
आज यह हिन्दी बढ़ रही है। हिन्दी क्षेत्र के राज्यों में तो समस्त कामकाज हिन्दी में ही हो रहा है। दूरसंचार, दूरदर्शन, समाचार-पत्र पत्रिकायें, सिनेमा, विज्ञापन, प्रवचन, आदि के क्षेत्र में हिन्दी का प्रयोग हो रहा है।
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