सामाजिक न्याय से क्या तात्पर्य है?
सामाजिक न्याय (Social Justice) – सामाजिक न्याय से तात्पर्य, सभी मनुष्यों को समान मानकर किसी भी व्यक्ति के सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक स्थिति के आधार पर भेदभाव न करने से है। सभी व्यक्तियों के पास इतने न्यूनतम संसाधन होने चाहिये, जिससे वे अपनी पुरानी रूढ़िगत परम्पराओं को समाप्त कर जीवन जीने की आजादी प्राप्त होनी चाहिये। सामाजिक न्याय के सन्दर्भ में अनेक विद्वानों के अलग अलग दृष्टिकोण हैं जिन्हें मुख्य रूप से तीन रूपों में विभक्त किया गया है जो निम्न प्रकार हैं
1. सामाजिक अनुबन्ध स्वरूप-
इस मत के अनुसार, जो ज्यादा उत्पादक होगा वह ज्यादा सुख प्राप्त करेगा साथ ही जो उत्पादक नहीं होगा वह कष्ट सहेगा तथा वह समाज से बाहर हो जायेगा। परन्त अपनी खामियों के चलते यह मत सर्वव्यापी नहीं है।
2. व्यावहारिक स्वरूप –
इस मत के अनुसार, समाज एक संस्था है जो अपने सदस्यों को आवश्यक संसाधन उपलब्ध कराता है। इसका प्रत्येक सदस्य अकेला होता है। इसका मुख्य उद्देश्य वस्तुओं एवं सेवाओं को ज्यादा से ज्यादा उत्पादित करना है। समाज इस मत को स्वीकार नही करता है क्योंकि इसके अनुसार इस दृष्टिकोण को अपनाने से सामाजिक स्वार्थ के लिये व्यक्तिगत सुखों तथा सामूहिक सुखों का त्याग करना आवश्यक है। इस प्रकार यह मत व्यवसायीकरण को बढ़ावा देता है।
3. श्रद्धात्मक स्वरूप-
इस मत के अनुसार, समाज व्यक्तियों के लिये सामाजिक व्यवस्थाओं के माध्यम से सम्मान का भाव निहित रखता है।समाज में सभी लोग समान हैं तथा संसाधन पर सभी को समान अधिकार है। समाज का कर्तव्य है कि समाज में सभी को सुखी रहने का समान अवसार प्रदान करें। इसी मत के आधार पर मूल अधिकार, राजनीतिक समानता, अधिकारों का बिल आदि पारित हुये तथा ‘अस्तित्व में आये।
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