राष्ट्रीय सद्भावना हेतु शिक्षा की भूमिका
Role of Education for National Understanding
राष्ट्रीय सद्भावना के स्वरूप को सुन्दरतम् बनाने में शिक्षा महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। आज हमें ऐसी शिक्षा की आवश्यकता है जो समस्त प्राणी मात्र को एकरूप में संगठित करे। वह अपने और पराये के भेद को समाप्त कर दे। ऊँच-नीच की खाई को सदैव के लिये पाट दे। भारत की बदलती हुई परिस्थितियों में शिक्षा ही एक ऐसा अभीष्ट साधन है, जिसके द्वारा राष्ट्र की एकता को सबल तथा संगठित किया जा सकता है। शिक्षा ही एक ऐसा साधन है, जो हमें पहले भारतीय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेगा और भाषा, धर्म तथा राजनीति की बात, इसके बाद मस्तिष्क में आने देगा। माध्यमिक शिक्षा आयोग’ के अनुसार शिक्षा तभी तक राष्ट्रीय सद्भावना के विकास में सहायक हो सकती है, जबकि इसका उद्देश्य ‘देश-प्रेम’ (Patriotism) हो। आयोग ने देश-प्रेम के अन्तर्गत शिक्षा में निम्नलिखित चार बातों का समावेश किया है-
- राष्ट्रीय हित के लिये व्यक्तिगत हित का त्याग ।
- देश की दुर्बलताओं को स्वीकार करने की तत्परता ।
- देश की सामाजिक एवं सांस्कृतिक प्राप्तियों का उचित मूल्यांकन।
- व्यक्ति की योग्यतानुसार देश की सर्वोत्तम सेवा।
डॉ. सम्पूर्णानन्द कमेटी ने राष्ट्रीय सद्भावना की समस्या पर विचार किया तथा कई सुझाव सरकार के सामने रखे। कमेटी ने अपने प्रतिवेदन में कहा है- राष्ट्रीय सद्भावना के निर्माण में शिक्षा महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर सकती है। यह अनुभव किया जाता रहा है कि शिक्षा केवल ज्ञान ही प्रदान नहीं करती, अपितु वह छात्र के व्यक्तित्व का सम्पूर्ण विकास करती है, त्याग एवं सहनशीलता की भावना का निर्माण करती है, जिससे समूहों के संकीर्ण स्वार्थ बड़े स्वार्थों में निहित हो सकें। राष्ट्रीय सद्भावना के लिये इस समिति ने अनेक सुझाव रखे थे। इनमें मुख्य रूप से निम्नलिखित हैं-
(1) शिक्षा में इस बात पर बल दिया गया है कि वर्तमान पाठ्यक्रम अनुपयोगी है। अतः एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की आवश्यकताओं को दृष्टि में रखते हुए इसका पुनर्गठन किया जाना आवश्यक है।
(2) समिति ने सुझाव दिया कि वर्ष में एक या दो बार छात्रों, शिक्षकों तथा अभिभावकों का सम्मेलन बुलाया जाय और राष्ट्र हित के कार्यों की सबसे शपथ ग्रहण करायी जाय।
(3) समिति ने इस बात पर बल दिया कि शाला का दैनिक कार्यक्रम प्रार्थना से आरम्भ हो तथा सामूहिक रूप से राष्ट्रीय गीत का गान करवाया जाय।
(4) पाठ्य सहगामी क्रियाएँ अत्यन्त उपयोगी होती हैं। इन्हें सुनियोजित ढंग से आयोजित किया जाय। इन क्रियाओं के अन्तर्गत महापुरुषों की जन्मतिथियाँ, राष्ट्रीय उत्सव, शैक्षणिक-भ्रमण, स्काउटिंग शिविर, वाद-विवाद, नाटक, एन.सी.सी. आदि पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिये। इन क्रियाओं से बालक- बालिकाओं में बन्धुत्व तथा एकता का भाव उत्पन्न होता है, उनमें सहनशीलता तथा विशाल हृदयता का दृष्टिकोण भी विकसित होता है, यह आदर्श नागरिक होने के लिये आवश्यक है।
(5) समिति ने सामाजिक विज्ञान के शिक्षण पर विशेष बल दिया है। इसके माध्यम से बालक-बालिकाओं को अपनी ऐतिहासिक, भौगोलिक तथा सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के बारे में जानकारी प्राप्त होती है। इस विषय को प्राथमिक स्तर से स्नातकोत्तर स्तर की शिक्षा तक अनिवार्य रूप से पढ़ाया जाय। इस विषय की पुस्तकों में रामायण, महाभारत की कहानियों के अतिरिक्त अनेक महान् पुरुषों के पाठ रखे जायें।
(6) वर्तमान पाठ्य-पुस्तकें भी बदली जायें। नवीन पुस्तकें उपरोक्त तथ्यों पर लिखी जायें। ऐतिहासिक तथ्य ऐसे हों ताकि राष्ट्रीय एवं भावात्मक एकता लिये वातावरण बन सके।
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