भारतीय संविधान में शक्ति पृथक्करण सिद्धान्त को किस सीमा तक अपनाया गया है? स्पष्ट कीजिये। To what extent does the power distribution principle is adopted in Indian Constitution? Explain.
शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धान्त की व्याख्या सर्वप्रथम फ्रांसीसी विधिवेत्ता माण्टेस्क्यू (Montesquieu) ने की थी। यद्यपि उनके पूर्व दार्शनिक अरस्तू तथा राजनीतिशास्त्री लॉक ने इस सिद्धान्त का उल्लेख किया था तथा उसके महत्व पर प्रकाश डाला था। माण्टैस्क्यू के अनुसार, इस सिद्धान्त का अर्थ है कि, किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह को राज्य की तीनों शक्तियों, अर्थात् कार्यकारिणी, विधायी एवं न्यायिक शक्तियों का निर्वहन नहीं करना चाहिये। विधायिका को कानून बनाना चाहिये, उसका लागू करने का कार्य उसका नहीं है। कार्यकारिणी को अपने मनचाहे कानून को प्राप्त करने के लिए विधायिका पर नियन्त्रण नहीं करना चाहिये और न ही उसको न्यायिक कार्यों का निर्वहन करना चाहिये। यदि ऐसा नहीं होगा तो न्याय के मनमाना तथा पक्षपातपूर्ण होने की सम्भावना बढ़ जाती है। न्यायपालिका को कार्यकारिणी तथा विधायी दोनों से स्वतन्त्र होना चाहिये।
इंग्लैण्ड के प्रसिद्ध विधिशास्त्री वेड तथा फिलिप्स ने अपनी पुस्तक “Constitutional Law (1960)” में शक्ति पृथक्करण के तीन प्रमुख अर्थ बताये हैं जो अग्रलिखित हैं-
- व्यक्तियों का एक ही समूह सरकार के तीन विभागों में से एक विभाग से अधिक विभाग का निर्माण न करे।
- एक विभाग दूसरे दो विभागों के कार्यों का निर्वहन न करे।
- एक विभाग अन्य दूसरे विभागों के क्षेत्राधिकार पर न तो किसी प्रकार का नियन्त्रण करे और न किसी प्रकार का उस पर हस्तक्षेप करे।
इस प्रकार यह शक्ति पृथक्करण का सिद्धान्त व्यक्तिपरक तथा कार्य सम्बन्धी पृथकता पर बल देता है। किसी भी आदर्श राज्य के इस प्रकार की पृथकता स्पष्ट तथा पूर्ण होनी चाहिये। विधायिका को कानून बनाना चाहिये। उसको लागू करने का कार्य उसका नहीं है। कार्यकारिणी को अपने मनचाहे कानून को प्राप्त करने के लिए विधायिका पर नियन्त्रण नहीं करना चाहिये और न ही उसको न्यायिक कार्यों का निर्वहन करना चाहिये, इन तीनों विभागों को एक दूसरे के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये और यदि ऐसा होता है तो न्याय के उद्देश्यों की प्राप्त नहीं होती है।
भारत में इस सिद्धान्त की कोई ऐतिहासिक पृष्ठभूमि नहीं है और न ही इस सिद्धान्त का कोई महत्त्व अमेरिका के समकक्ष ही है। हमारे यहाँ इस सिद्धान्त का महत्व इंग्लैण्ड के समकक्ष है जिसमें इंग्लैण्ड के संविधान में विधायिका, कार्यकारिणी तथा न्यायपालिका के कार्यों में कोई कठोर पृथक्करण नहीं किया गया है। भारतीय संविधान निर्मात्री समिति में यह प्रस्ताव रखा गया था कि इस सिद्धान्त को संविधान में अन्तर्विष्ट कर दिया जाये, किन्तु प्रस्ताव जान बूझकर स्वीकृत नहीं हुआ क्योंकि हमने प्रजातन्त्र की संसदीय प्रणाली अपनायी है। संविधान में तीनों अंगों के कार्यों का पूर्ण रूप से विभाजन नहीं किया गया है। प्रायः विधायी तथा न्यायिक कार्य कार्यकारिणी को सौंप दिये जाते हैं, फिर भी विभिन्न अंगों के कार्य सम्बन्धी पृथक्करण की अवहेलना नहीं की गयी है। केन्द्र में कार्यकारिणी शक्तियाँ अनुच्छेद 53 के अधीन राष्ट्रपति को तथा अनुच्छेद 154 के अधीन राज्यों के राज्यपाल में निहित की गयी हैं।
राष्ट्रपति को विधायी शक्तियाँ प्रदान की गयी हैं। यह उन सभी मामलों के सम्बन्ध में अनुच्छेद 123 के अधीन अध्यादेश जारी कर सकता है जो संसद के विधायी क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत आते हैं। अनुच्छेद 355 के अधीन जब किसी राज्य की विधान सभाओं को भंग कर दिया जाता है तो राष्ट्रपति को उस राज्य के लिए कानून बनाने का अधिकार उत्पन्न हो जाता है। अनुच्छेद 392 तथा 392-A के अधीन वह विधायी शक्तियों को ही संचालित करता है।
राष्ट्रपति न्यायिक कार्यों को भी करता है। जब संसद के किसी सदस्य की निर्योग्यता से सम्बन्धित प्रश्न उठता है तो राष्ट्रपति अनुच्छेद 103 के अधीन उसका निर्णय करता है। इसी प्रकार जब न्यायाधीश की आयु से सम्बन्धित विवाद है तो उसका भी निपटारा राष्ट्रपति करता है। अनुच्छेद 72 के अनुसार, राष्ट्रपति और अनुच्छेद 161 के अनुसार, राज्यपाल को क्षमादान का अधिकार प्राप्त है।
इसका तात्पर्य यह नहीं कि शक्ति पृथक्करण के सिद्धान्त को सर्वथा व्यक्त किया गया है। केवल उन स्थितियों को छोड़कर जहाँ संविधान ने किसी संस्था या व्यक्ति में शक्ति निहित की है, उदाहरणस्वरूप अध्यादेश जारी करने की शक्ति राष्ट्रपति अथवा राज्यपाल में निहित की गयी है, इस सिद्धान्त का पालन किया जाता है।
वर्तमान काल में इस शक्ति में पार्थक्य सिद्धान्त का एक नवीन अर्थ किया गया है। आजकल यह सिद्धान्त कृत्तीय पार्थक्य पर अधिक जोर देता है। प्रत्यायुक्त विधायिनी कृत्य यदि महत्वपूर्ण विधायिनी कृत्य न हो तो इस सिद्धान्त के विरुद्ध न होगा। इसके लिए प्रयत्न किया जाता है कि कार्यपालिका का कम से कम नियन्त्रण न्यायपालिका पर हो। इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु हमारे संविधान के अनुच्छेद 50 को अन्तर्विष्ट किया गया है जिसमें न्यायपालिका को कर्यकारिणी से पूरी तरह अलग करने का उपबन्ध किया गया है, हालांकि यह अनुच्छेद 50 शक्ति पृथक्करण के सिद्धान्त की समग्रता सूचित नहीं करता। भारतीय विधि आयोग ने भी अपनी चौदहवीं रिपोर्ट जो कि न्यायिक प्रशासन में सुधारों के सम्बन्ध में थी उसमें यह भी कहा है कि कार्यकारिणी को न्यायपालिका से पूरी तरह अलग होना चाहिये।
राम जवाया बनाम पंजाब राज्य के वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह स्पष्ट किया- यद्यपि भारत के संविधान में शक्ति पृथक्करण के सिद्धान्त को सुदृढ़ रूप से स्वीकार नहीं किया गया है परन्तु सरकार के विभिन्न अंगों एवं कार्यकलापों का यथेष्ट रूप से वर्गीकरण किया गया है, जिसके कारण यह स्पष्ट है कि हमारा संविधान राज्य के एक अंग द्वारा अन्य कार्यों को जो दूसरे के हैं करने का विचार नहीं करता।
केशवानन्द भारती के मामले में उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश बेग का मत था कि शक्ति पृथक्करण भारतीय संविधान के मूलभूत सिद्धान्तों का एक अंग है। भारतीय गणतन्त्र के तीनों अंग-विधायिका, कार्यकारिणी एवं न्यायपालिका एक-दूसरे के कार्यों एवं क्षेत्राधिकारों को हड़प नहीं सकते और संविधान की यह योजना अनुच्छेद 368 के अन्तर्गत संशोधन करके भी नहीं बदली जा सकती।
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