प्रदत्त विधायन क्या है ? प्रदत्त विधायन की वृद्धि के कारणों का उल्लेख करते हुए इसके गुण-दोष बताइये। What is delegated legislation? Explain its merit- demerit while explaining the causes of increase of delegated legislation.
प्रदत्त विधायन क्या है?
जब कोई कानून बनाने वाली संस्था, कानून बनाने की अपनी शक्ति अन्य व्यक्तियों अथवा संस्था का प्रत्यायोजित या हस्तांतरित कर देती है, तत्पश्चात् इस संस्था द्वारा बनाये गये नियम, कानूनों को प्रत्यायोजित विधान कहते हैं। इसका वही महत्व होता है जो विधानमंडल द्वारा बने कानून का होता है। इसे कार्यपालिका विधान तथा अधीनस्थ विधान के नाम से भी पुकारा जाता है। इसकी परिभाषा देते हुए मंत्रियों की शक्ति समिति ने कहा, “संसद द्वारा प्रदत्त वैधानिक सत्ता के अनुसार अधीनस्थ पदाधिकारियों तथा निकायों द्वारा छोटी-छोटी विधायी शक्तियों के क्रियान्वयन को ही प्रदत्त विधायन कहा जाता है।” कभी-कभी विधानमंडल कानून की सिर्फ मोटी रूपरेखा निश्चित कर देता है और उसे विस्तृत करने का अधिकार संबद्ध मंत्री के ऊपर छोड़ दिया जाता है। इसे भी प्रदत्त विधायन कहा जा सकता है, क्योंकि ऐसी स्थिति में संसद उन पदाधिकारियों को जो विधानमंडल के अधीनस्थ अथवा उसके प्रति उत्तरदायी होते हैं, कुछ कानून-निर्माण की शक्तियाँ सौंप देती है।
प्रदत्त विधायन की वृद्धि के कारण
प्रदत्त विधायन की वृद्धि का कारण आधुनिक युग की बदली हुई सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक परिस्थिति है। इसके विभिन्न कारणों का उल्लेख इस प्रकार किया जा सकता है-
(1) आधुनिक युग में विज्ञान तथा शिल्पकला की अत्यधिक प्रगति हुई है। इस प्रगति के परिणामस्वरूप राज्य के कार्यों में भी तीव्र गति से वृद्धि हो रही है। समाज के दिन-प्रतिदिन के कार्यों का नियमन करने के लिए विधानमंडल को अनेक कानूनों का निर्माण करना पड़ रहा है। राज्य के कार्यक्षेत्र के अंतर्गत कार्यों की अधिकता के कारण विधानमंडल का कार्यभार भी बहुत अधिक बढ़ गया है। अतः सभी कार्यों को विधानमंडल कुशलतापूर्वक संपन्न नहीं कर सकता है। कुशलता की दृष्टि से विधानमंडल के सामने अपनी कानून निर्माण सत्ता हस्तांतरित कर देने के सिवाय कोई उपाय नहीं रह गया है। इस प्रकार, प्रदत्त विधायन की वृद्धि हो रही है। विधानमंडल का काम अधिकांशतः कानून की मोटी रूपरेखा निश्चित कर देना है और कानून की बारीकियों को पूरा करने का अधिकार संबद्ध विभाग को सौंप दिया जाता है।
(2) तकनीकी विधि की प्रगति के कारण भी प्रदत्त विधायन का विकास हो रहा है। विधानमंडल के साधारण सदस्य आधुनिक कानून की प्राविधिक प्रकृति को नहीं समझ पाते। अत: विधानमंडल के लिए संभव नहीं है कि वह कानून के संबंध में प्राविधिक व्यापकताओं की पूर्ति कर सके। आधुनिक विधानमंडल कानून की एक मोटी रूपरेखा ही निश्चित करता है और उसकी व्यापक बातों की पूर्ति उस अभिकरण द्वारा की जाती है, जो उस कार्य के लिए तकनीकी दृष्टि से पूर्ण सुसज्जित होता है।
(3) संसद के पास समय की कमी के कारण तथा कानूनों में समयानुसार परिवर्तन की आवश्यकता के कारण भी प्रदत्त विधायन की वृद्धि हो रही है। संसद कानूनों में समयानुसार परिवर्तन शीघ्र नहीं कर सकती, क्योंकि उसकी बैठक हमेशा नहीं होती। अत: कानून में समय की आवश्यकता के अनुसार परिवर्तन करने का भी अधिकार संबद्ध विभाग को सौंप दिया जाता है।
(4) विधानमंडल के लिए पहले से ही उन परिवर्तनों को देखना तथा उन्हें में सम्मिलित करना कठिन होता है, जो स्थानीय परिस्थितियों में विभिन्नता से कारण उत्पन्न हो सकते हैं। इस प्रकार स्थानीय प्रकृति की आवश्यकताओं को कानून के अंतर्गत स्थान देने के उद्देश्य से भी प्रत्याधिकरण अथवा प्रदत्त विधायन की आवश्यकता पड़ती है।
(5) प्रदत्त विधायन की आवश्यकता नियोजन-सम्बन्धी परीक्षण के लिए भी होती है क्योंकि नियोजन के अंतर्गत कठोर कानून की जगह पर परिवर्तित नियमों की आवश्यकता पड़ती है। ऐसा प्रदत्त विधायन द्वारा ही संभव है।
(6) कुछ संकटकालीन परिस्थितियाँ-युद्ध, प्राकृतिक विपत्तियों आदि का सामना करने के लिए भी प्रशासकीय विभागों को कुछ कानून निर्माण का अधिकार प्रदान करना आवश्यक माना जाता है।
प्रदत्त विधायन के गुण
प्रत्यायोजित विधान के प्रमुख गुण निम्न हैं-
(1) प्रदत्त विधायन से संसद के समय की बचत होती है और उसके कार्य का भार कम हो जाता है। व्यापक बातों को निश्चित करने में उसे समय नष्ट नहीं करना पड़ता। वह अपनी शक्तियों को सामान्य नीति निर्धारण से ही पूर्णरूपेण लगा सकती है।
(2) संसद के सदस्यों में अधिकतर ऐसे होते हैं, जो वर्तमान कानून की कठिनाईयों को नहीं समझ सकते। अतः प्रदत्त विधायन से विधायकों को विशेषज्ञों के अनुभव तथा ज्ञान का लाभ प्राप्त हो जाता है।
(3) इसके द्वारा संकटकालीन परिस्थितियों का सामना अच्छी तरह किया जा सकता है। विधानमंडल के सदस्य संकटकालीन परिस्थितियों का अनुमान अच्छी तरह से नहीं लगा सकते हैं, अत: संकटकाल का मुकाबला प्रदत्त विधायन का अधिकार प्राप्त कर कार्यपालिका कर लेती है।
(4) प्रदत्त विधायन की व्यवस्था से नियमों में आसानी से परिवर्तन लाया जा सकता है। वास्तव में, स्थानीय परिवर्तनों, समाज की बदलती हुई औद्योगिक परिस्थितियों में तथा प्राविधिक विकास की स्थिति में नियमों की लोचशीलता की आवश्यकता होती है, जिसकी पूर्ति प्रदत्त विधायन द्वारा ही की जाती है।
(5) प्रदत्त विधायन द्वारा सफल परीक्षण भी किए जा सकते हैं।
प्रत्यायोजित विधान केन्द्र उपरोक्त गुणों से स्पष्ट हो जाता है कि विधान का यह रूप काफी लाभदायक है। वास्तव में, इस व्यवस्था के कारण ही संसद अपने विधायी कार्यों को ठीक ढंग से सम्पन्न कर पाती है। कार ने भी इसी तरह का विचार व्यक्त करते हुए लिखा है, “यह (प्रदत्त विधायन) प्रत्यक्ष रूप से संसद के अधिनियमों से उसी प्रकार संबद्ध होता है, जिस प्रकार एक बालक अपने माता पिता से संबद्ध होता है और बालक जब कुछ बड़ा हो जाता है तब उससे यह माँग की जाती है कि वह अपने माता पिता का कुछ कार्यभार अपने ऊपर ले। अतः, छोटे-छोटे मामलों एवं कार्यों को वह निपटा लेता है, जबकि माता-पिता मुख्य कार्य की देखभाल तथा प्रबंध करते हैं।” प्रदत्त विधायन के कारण ही विधानमंडल को छोटी-छोटी बारीकियों की परवाह किए बिना विधायन के अधिक गंभीर प्रश्नों पर विचार करने के लिए अधिक समय मिल जाता है। मंत्रियों की शक्ति समिति की रिपोर्ट में भी इसके लाभों का उल्लेख करते हुए कहा गया है, “सत्य तो यह है कि यदि संसद विधिनिर्माण की शक्ति के हस्तांतरण के प्रति अनिच्छुक रही, तो वह ऐसी किस्म तथा कोटि का विधान पास करने में असमर्थ रहेगी जैसा कि जनमत चाहता है।”
प्रदत्त विधायन के दोष या हानि
प्रदत्त विधान में उपरोक्त गुणों के साथ-साथ कुछ कमियाँ भी है जो निम्न हैं-
(1) प्रदत्त विधायन से उत्पन्न होने वाला सबसे बड़ा भय यह है कि इसके द्वारा प्रशासकीय शक्तियों की तानाशाही स्थापित हो जाने की संभावना बनी रहती है। दूसरे शब्दों में, नौकरशाही के विकास में इसका बहुत बड़ा हाथ होता है। इससे जनता की आवश्यकताएँ और स्वतंत्रताएँ खतरे में पड़ सकती हैं।
(2) इसका दूसरा महत्वपूर्ण अवगुण यह है कि इसके कारण पदाधिकारीगण केवल संगठित हितों को ही ध्यान में रखते हैं और सार्वजनिक हितों की उपेक्षा करते हैं।
(3) यद्यपि प्रदत्त विधायन के गुणों के अंतर्गत इस गुण को भी रखा जाता है कि इससे नियमों के संबंध में लोचशीलता बनी रहती है, तथापि इस लोचशीलता का भयंकर परिणाम भी होता है। वास्तव में, नियमों की स्वच्छंदता के साथ बार-बार परिवर्तन विवेकपूर्ण नहीं माना जाता है। इससे अराजकता की संभावना बढ़ जाती है।
(4) प्रशासकीय पदाधिकारियों को जनता की इच्छाओं का बहुत कम ज्ञान रहता है। अतः प्रदत्त विधायन का एक बड़ा दोष यह भी देखने को मिलता है कि विशेषज्ञों द्वारा कानून निर्माण के समय राजनीतिक दृष्टि से उचित बातों का ध्यान में नहीं रखा जा सकता।
(5) आलोचकों का कहना है कि इसके कारण जो सबसे बड़ा खतरा नजर आता है वह यह है कि इसके द्वारा ऐसी व्यवस्था की जा सकती है, जिससे नागरिक प्रशासकीय अधिकारियों के आतंक के विरुद्ध अपने अधिकारों के संबंध में न्यायिक संरक्षण नहीं प्राप्त कर सकें।
उपरोक्त के आधार पर यह कहा जा सकता है कि प्रत्यायोजित विधान में जो दोष गिनाये गये हैं, वे उचित नहीं है। प्रदत्त विधायन से नौकरशाही को स्वेच्छाचारी शक्तियाँ प्राप्त नही हो पाती। संसद उस पर उचित नियंत्रण रखती है तथा न्यायपालिका को उसका पुनर्विलोकन कर असांविधानिक घोषित करने का अधिकार प्राप्त होता है। अत: अंत में हम लोग लॉस्की के इस विचार से पूर्ण सहमति प्रदान कर सकते हैं, “प्रदत्त विधायन की प्रक्रिया के समर्थन में कहने को बहुत कुछ है और इसके विरोध में कहने को बहुत कम है। कोई भी व्यक्ति जो कि प्रदत्त विधायन की विषय सामग्री की जाँच करेगा, वह यही पाएगा कि इस प्रक्रिया के द्वारा संसार के बहुमूल्य समय में काफी बचत होती है, जिसका उपयोग अन्य महत्वपूर्ण मामलों में अच्छी तरह किया जा सकता है …….. प्रदत्त विधायन की पद्धति निश्चयात्मक राज्य के लिए सुविधाजनक तथा आवश्यक है।”
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