केन्द्र-राज्य में विधायी शक्तियों के विभाजन
केन्द्र-राज्य में विधायी शक्तियों के विभाजन – संघीय व्यवस्था में शक्तियों का विभाजन मण्टस्क्यू के शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धान्त पर आधारित है। किसी भी देश की संघात्मक शासन व्यवस्था में केन्द्र तथा राज्य सरकारों के बीच शक्तियों का स्पष्ट विभाजन रहता है। यह स्पष्ट विभाजन कहीं लिखित रूप में मिलता है (जैसे भारत) तो कहीं मौखिक। सामान्यतः राष्ट्रीय महत्व के विषयों पर केन्द्र को प्रमुखता दी जाती है, उदाहरणार्थ- रेल, डाक, सुरक्षा मुद्रा इत्यादि तथा स्थानीय महत्व के विषय राज्यों को सौंपे जाते हैं। वह विभाजन किसी निश्चित या ठोस आधार पर नहीं किया जा सकता। प्रत्येक देश की स्थानीय और राजनीतिक परिस्थितियों के अनुसार शक्ति-विभाजन भी भित्र-भिन्न होता है। अमेरिका का संविधान केवल केन्द्रीय सरकार की शक्तियों का उल्लेख करता है और अवशिष्ट शक्तियों को राज्य के लिए छोड़ देता है। ऐसा इसलिए है कि अमेरिका में राज्य संघ में शामिल होने के पहले स्वतन्त्र और सम्प्रभु थे और वे अपने को केन्द्र के बिल्कुल अधीन नहीं करना चाहते थे। अतएव उन्होंने केन्द्र को कुछ राष्ट्रीय महत्व के विषयों को सौंपा और शेष शक्तियाँ अपने पास रखीं। आस्ट्रेलियन संविधान में सिद्धान्ततः अमेरिकन संविधान के स्वरूप का अनुसरण किया गया है और केवल केन्द्र की शक्तियों का उल्लेख है, शेष शक्तियाँ राज्य के पास छोड़ दी गयी हैं। इसका मुख्य कारण दोनों देशों में परिस्थितियों की समरूपता है। कनाडा के संविधान में दो प्रकार की शक्तियों का विभाजन किया गया है- परिसंघीय शक्तियाँ और प्रान्तीय शक्तियाँ। अवशिष्ट शक्तियाँ संघ सरकार को प्रदान की गयी है। कनाडा के लोग अमेरिकन प्रणाली से उत्पन्न कठिनाईयों से भली-भाँति परिचित थे। केन्द्रीय सरकार को सफल बनाने के लिए अमेरिकनों को गृह-युद्ध लड़ना पड़ा था। अतः कनाडा के लोगों ने एक सबल केन्द्र की स्थापना को ही बेहतर समझा।
भारत में कनाडा के संविधान में समाविष्ट सबल केन्द्र की प्रणाली का ही अनुसरण किया गया है। भारत में ऐसी परिस्थितियाँ विद्यमान थीं जिनके कारण केन्द्र का सबल होना आवश्यक था। किन्तु भारतीयों ने उसमें समवर्ती सूची को भी जोड़ दिया। भारत सरकार अधिनियम में तीन सूचियों का समावेश किया गया था- संघ सूची, राज्य सूची और समवर्ती सूची। भारतीय संविधान मैं इस अधिनियम का अनुसरण करते हुए सूचियों का प्रावधान किया गया जो इस प्रकार है-
संघ सूची- इसके अन्तर्गत 97 विषय हैं, जिनमें प्रमुख हैं- देश की रक्षा, विदेशी सम्बन्ध, युद्ध और संधि, परमाणु ऊर्जा, रेल, वायुमार्ग, समुद्री जहाज, डाक-तार, टेलीफोन, बेहतर ब्राडकास्टिंग, विदेशी व्यापार, नागरिकता, जनगणना, मुद्रा, विदेशी ऋण, रिजर्व बैंक, बीमा, विनिमयपत्र, चेक, वचनपत्र, बाटों और मापों का माप-स्थापन, प्रदर्शन के लिए चलचित्रों की मंजूरी, कृषि-आय से भिन्न आय पर कर, सीमाशुल्क, जिनके अन्तर्गत निर्यात शुल्क भी आता है, निगम कर आदि। इन विषयों पर संसद ही कानून बना सकती है।
राज्य सूची- इनके अन्तर्गत स्थानीय महत्व के 61 विषय हैं, जिनमें लोक-व्यवस्था, पुलिस, न्याय-प्रशासन, जेल, स्थानीय शासन, लोक स्वास्थ्य, स्वच्छता और औषधालय, मादक शराब का उत्पादन, निर्माण, कब्जा, परिवहन, क्रय या विक्रय, कृषि, सिंचाई, वन, सार्वजनिक आमोद-प्रमोद आदि मुख्य हैं। इन विषयों पर केवल राज्य के विधानमण्डल को कानून अधिकार प्राप्त है।
समवर्ती सूची- इसके अन्तर्गत 52 विषय हैं, जिनमें दण्ड विधि, दण्ड प्रक्रिया, विवाह तथा विवाह विच्छेद, संविदायें, न्याय-प्रशासन, उच्चतम और उच्च न्यायालयों से भिन्न, सिविल प्रक्रिया, वन, आर्थिक और सामाजिक योजना, जनसंख्या-नियन्त्रण और परिवार नियोजन, व्यापार संघ, सामाजिक सुरक्षा, विधि वृत्ति, राष्ट्रीय जलमार्ग, बाट और माप, कीमत-नियन्त्रण, कारखाने, विद्युत, समाचारपत्र, सम्पत्ति का अर्जन और अधिग्रहण आदि मुख्य हैं।
इन विषयों पर केन्द्र और राज्य दोनों विधि बना सकते है। किन्तु दोनों सरकारों द्वारा बनाई गई विधियों में विरोध होने पर केन्द्रीय विधि राज्य की विधि पर अभिभावी होगी। संविधान- निर्माताओं ने देश की मुख्य विधियों में एकरूपता और शक्ति-विभाजन की कठोरता को कम करने के दृष्टि से समवर्ती सूची को संविधान में जोड़ा है।
42 वें संविधान संशोधन द्वारा संघ सूची में “संघ और सशस्त बल पर संघ का नियन्त्रण” विषय जोड़ा गया है। प्रविष्टि (2क) राज्य सूची से शिक्षा को निकाल कर समवर्ती सूची में समाविष्ट कर दिया गया है ताकि शिक्षा के मामले में एक राष्ट्रीय नीति का निर्धारण कया जा सके। इस संशोधन का हम हार्दिक स्वागत करते हैं।
अवशिष्ट विधायी शक्तियाँ
भारतीय संविधान के नझुच्छेद 248 में यह प्रावधान किया गया है कि जिन शक्तियों का समावेशन किसी सूची में नहीं है, वे केन्द्र सरकार में नीहित होगी। संघ सूची की प्रविष्टि 97 भी यह उपबन्धित करती है कि कोई ऐसे दूसरे विषय, जो राज्य सूची या समवर्ती सूची में उल्लिखित नहीं हैं, जिनमें कर भी सम्मिलित हैं, उन पर केन्द्रीय सरकार को अनन्य रूप से विधि बनाने की बनाने का शक्ति प्राप्त हैं। इस सम्बन्ध में भारतीय पद्धति अमेरिका, स्विटजरलैण्ड और आस्ट्रेलिया के संविधान में अपनायी गयी पद्धति से भिन्न है। इन संविधानों में अवशिष्ट शक्तियाँ राज्य सरकारों को प्राप्त है जबकि भारत में केन्द्र को। इससे यह स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है कि हमारे संविधान निर्मातागण भारत में एक सबल केन्द्र की स्थापना करना चाहते थे।
सूचियों के निर्वचन की सामान्य विधि
यह सही है कि केन्द्र और राज्य में शक्तियों का विभाजन किया गया है और वे अपनी- अपनी सूचियों में वर्णित विषयों से बाहर कोई कानून नहीं बना सकते हैं, किन्तु यह भी सत्य है कि यह विभाजन वैज्ञानिक या पूर्ण ढंग से करना सम्भव नहीं है और समय-समय पर ऐसे विवाद उत्पन्न हो सकते हैं कि क्या कोई विषय एक सरकार के अधिकार-क्षेत्र में है या दूसरी सरकार के अधिकार क्षेत्र में? संघीय संविधान में यह कार्य न्यायपालिका को सौंपा गया है। भारतीय संविधान ने उक्त सूचियों में वर्णित विभिन्न सरकारों की शक्तियों के निर्धारण के लिए निम्नलिखित नियम स्थापित किए हैं-
संघीय शक्ति को प्रमुखता- अनुच्छेद 246(1) यह उपबन्धित करता है कि “खण्ड (2) (समवर्ती सूची) और खण्ड (3) (राज्य सूची) में किसी बात के होते हुए भी” संसद को संघ सूची के विषयों पर विधि बनाने की अनन्य शक्ति है। इस अनुच्छेद का खण्ड (3) यह कहता है कि “खण्ड (3) (संघ सूची) और खण्ड (2) (समवर्ती सूची) के आधीन रहते हुए” राज्य विधानमण्डल राज्य सूची के विषयों पर विधि बना सकता है। इस प्रकार खण्ड (1) में “खण्ड (2) और (3) में किसी बात के होते हुए भी’ और खण्ड (3) में खण्ड (1) और (2) के अधीन रहते हुए’ पदावलियों के प्रयोग से यह स्पष्ट है कि संविधान में केन्द्रीय शक्ति को प्रधानता दी गयी है। अनुच्छेद 246 में दी हुई व्यवस्था के अनुसार संघ सूची और समवर्ती सूची में विवाद होने पर संघ सूची अभिभावी होगी और समवर्ती सूची तथा राज्य सूची में विवाद होने पर समवर्ती सूची अभिभावी होगी।
उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि सूची की प्रत्येक प्रविष्टि का व्यापक और उदार अर्थान्वयन किया जाना चाहिए और जहाँ तक सम्भव हो प्रत्येक सूची की प्रविष्टि को समान महत्व देने का प्रयास किया जाना चाहिए। ऐसी किसी विवाद के उत्पन्न होने पर अनुच्छेद 246(1) को तुरन्त नहीं लागू किया जाना चाहिए। न्यायालयों की विभिन्न प्रविष्टियों को यथासम्भव प्रभाव देने का प्रयास करना चाहिए और विभिन्न प्रविष्टियों में समन्वय स्थापित करने का प्रयास करना चाहिए। यदि यह सम्भव न हो तभी अनुच्छेद 246(1) में प्रदत्त संघ की अभिभावी शक्ति का प्रयोग करना चाहिए।
आर0एस0 जोशी बनाम अजित मिल्स (1977S.C.) के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि सूची की प्रत्येक प्रविष्टि का व्यापक निर्वचन किया जाना चाहिए और उनमें सभी अनुषंगी और समनुषंगी (anciliary or subsidiary) बातें आती हैं। कर विधानों को लागू करने वाले दण्डात्मक उपाय अनुषंगी शक्तियों के भाग होते हैं, अतः कर विधान के साथ-साथ कर अपवंचन को दण्डित करने वाले विधानों को भी पारित करने की विधानमण्डल की शक्ति होती है।
भारत संघ बनाम एस0एस0 ढिल्लन (1972 S.C.) के मामले में मुख्य विचारणीय प्रश्न न्यायालय के सामने यह था कि संसद को धनकर अधिनियम, जिसके अधीन किसी व्यक्ति की कृषि भूमि से प्राप्त आस्ति (assets) पर धनकर लगाने का उपबन्ध किया गया है, पारित करने की विधायी क्षमता प्राप्त है। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि केन्द्रीय विधानमण्डल द्वारा पारित विधानों के मामले में सही कसौटी यह देखना है कि क्या विषय-वस्तु राज्य सूची में है या समवर्ती सूची में है? यदि यह पता लग जाय कि वह राज्य सूची में नहीं है तो संसद इस विषय पर अपनी अपवशिष्ट शक्ति के अधीन विधान बनाने के लिए सक्षम होगी और ऐसे मामलों में यह पता लगाना आवश्यक होगा कि विषय केन्द्रीय सूची की प्रविष्टि 1-97 में है या नहीं। इस निर्णय के फलस्वरूप राज्य सूची का क्षेत्र काफी संकुचित हो गया है, क्योंकि केन्द्र की अवशिष्ट शक्ति के इतने व्यापक निर्वचन से राज्य की विधायन शक्ति पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। अवशिष्ट शक्ति का सहारा सबसे अन्त में लेना चाहिए।
सौभाग्य से उच्चतम न्यायालय ने इन्टरनेशनल टूरिज्म कारपोरेशन बनाम हरियाणा राज्य (1981S.C.) के मामले में उक्त दृष्टिकोण को बदल दिया है और यह अभिनिर्धारित किया है कि केन्द्र की अवशिष्ट शक्ति का इतना व्यापक प्रयोग नहीं करना चाहिए जो राज्य के विधानमण्डल की विधायी शक्ति को बिल्कुल क्षीण कर देती हो और संघात्मक सिद्धान्त को प्रभावित करती हो। अवशिष्ट शक्ति का प्रयोग सबसे अन्त में करना चाहिए जब तीनों सूचियों में यथासम्भव प्रयास के बावजूद भी कोई विषय न पाया जा सकता हो। इस मामले में अपीलार्थियों ने हरियाणा यात्री तथा माल कर अधिनियम, 1952 की विधिमान्यता को इस आधार पर चुनौती दिया था कि उसके अधीन राष्ट्रीय यातायात मार्गों पर चलने वाले वाहनों और यात्रियों पर कर लगाया गया था जो केन्द्रीय सूची की प्रविष्टि 23 और 97 के अधीन केन्द्र को ही प्राप्त है। उनका तर्क यह था कि यद्यपि राष्ट्रीय मार्ग हरियाणा राज्य से गुजरते हैं किन्तु उस पर चलने वाले वाहनों पर यात्री या माल-कर केवल केन्द्र लगा सकता है, राज्य नहीं। न्यायालय ने निर्णय दिया कि यह अधिनियम विधिमान्य था तथा राज्य सरकार राज्य से गुजरने वाले राष्ट्रीय मार्गों पर चलने वाले वाहनों पर यात्री एवं माल-कर लगा सकती है; क्योंकि राज्य उसकी मरम्मत कराता है और यात्रियों, वाहनों को ठहरने, पानी- पीने, प्रकाश आदि जैसी सुविधाओं को उपलब्ध कराने में धन व्यय करता है। न्यायालय ने यह कहा कि जब राज्य सूची की किसी प्रविष्टि और केन्द्र सूची की प्रविष्टि 97 में संघर्ष हो तो राज्य सूची की किसी प्रविष्टि का व्यापक और उदार निर्वचन करना चाहिए। प्रस्तुत मामले में राज्य सूची की प्रविष्टि 56 के अधीन सड़कों या अन्तर्देशीय जलमार्गों से ले जायी जाने वाली वस्तुओं और यात्रियों पर कर लगाने की राज्य को शक्ति प्राप्त है। इसमें राष्ट्रीय राजपथ को अलग नहीं रखा गया है। इससे स्पष्ट है कि राष्ट्रीय राजपथ पर ले जायी जाने वाली वस्तुओं और यात्रियों पर कर लगाने की शक्ति राज्य सूची में शामिल है।
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