संवैधानिक विधि/constitutional law

क्षेत्रिक सम्बन्ध का सिद्धान्त | तत्व एवं सार का सिद्धान्त | छद्म विधायन का सिद्धान्त

क्षेत्रिक सम्बन्ध का सिद्धान्त

क्षेत्रिक सम्बन्ध का सिद्धान्त

निम्नलिखित के बारे में बताइये- (क) क्षेत्रिक सम्बन्ध का सिद्धान्त। (ख) तत्व एवं सार का सिद्धान्त। (ग) छद्म (आभासी) विधायन का सिद्धान्त। Write short note on the following- (a) Doctrine of territorial nexus. (b) Doctrine of pith and substance. (c) Doctrine of colourable legislation.

(क) क्षेत्रिक सम्बन्ध का सिद्धान्त

उस सम्पूर्ण राज्य के या उसके किसी भाग के लिए विधि बना सकेगा। अर्थात् राज्य की विधायी शक्ति का विस्तार राज्यक्षेत्र तक ही सीमित है। किन्तु इस सामान्य नियम का एक अपवाद भी है, अर्थात् राज्य द्वारा बनायी गयी विधि भी राज्यक्षेत्र के बाहर के क्षेत्र में लागू हो सकेगी यदि राज्य और उस विषय-वस्तु से कोई सम्बन्ध हो जिसके ऊपर वह विधि लागू होती है। इसे क्षेत्रिक सम्बन्ध का सिद्धान्त कहते हैं।

क्लास बनाम इन्कम औक्स कमिश्नर, बम्बई (A.I.R.1948) के मामले में एक ब्रिटिश कम्पनी एक भारतीय फर्म में भागीदार थी। भारतीय आयकर-अधिकारियों ने कम्पनी की समस्त आय पर आयकर लगाया। प्रिवी कौंसिल ने क्षेत्रिक सम्बन्ध के सिद्धान्त के आधार पर कर को विधिमान्य घोषित किया और कहा कि चूंकि कम्पनी की अधिकांशतः आय भारत-क्षेत्र से आती थी, अतएव भारत से उसका यह सम्बन्ध उसे भारत में ही स्थित मानने के लिए पर्याप्त था। इसी कारण स्टेट ऑफ बॉम्बे बनाम आर0एम0डी0सी0 (A.I.R.1957) के मामले में एक अधिनियम के अधीन बम्बई राज्य को लाटरी और इनामी विज्ञापनों पर कर लगाने की शक्ति प्राप्त थी। यह कर उस समाचार-पत्र पर भी लगाया गया जो बंगलौर से प्रकाशित होता था किन्तु बम्बई राज्य में उसका प्रसारण था। प्रत्यर्थी इस समाचार-पत्र के द्वारा इनामी लाटरी चलाता था। न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि समाचार-पत्र पर कर लगाने के लिए उचित क्षेत्रिक सम्बन्ध विद्यमान था। इस मामले में दो बातें आवश्यक हैं-

  1. विषय-वस्तु में और उस राज्य में जो उस पर कर लगाना चाहता है, वास्तविक सम्बन्ध हो, भ्रामक सम्बन्ध नहीं, और
  2. दायित्व जो लगाया जाना है उसे सम्बन्ध के प्रसंगानुकूल होना चाहिए। यह प्रश्न की किसी मामले में पर्याप्त सम्बन्ध है या नहीं, प्रत्येक वाद के तथ्यों के आधार पर निर्धारित किया जायेगा।

श्रीकान्त वी0 कारूल्कर बनाम गुजरात राज्य (A.L.R. 1994) के मामले में अपीलार्थियों ने गुजरात एग्रीकल्चरल लैण्ड सीलिंग एक्ट, 1960 की धारा 6 (3-A) की विधिमान्यता को इस आधार पर चुनौती दिया कि इसका प्रभाव राज्य-क्षेत्रातीत था। अतः अनु0 225 के अधीन राज्य विधान मण्डल की विधायी शक्ति के बाहर है। अपीलार्थीगण गुजरात राज्य में कुछ खेती योग्य भूमि के स्वामी थे। उनकी कुछ भूमियाँ राज्य क्षेत्र के बाहर भारत के अन्य भागों में थी। उक्त धारा यह उपबन्ध कराती थी कि भूमि की अधिकतम सीमा के प्रयोजन के लिए उनकी राज्य के बाहर स्थित भूमि को भी सम्मिलित किया जायेगा। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि राज्य विधान मण्डल क्षेत्रिक सम्बन्ध के सिद्धान्त के आधार पर उक्त विधि बनाने के लिए सक्षम था क्योंकि भूमियों का राज्य को अभिन्न सम्बन्ध था।

इंदिरा नेहरू गाँधी बनाम राजनारायण A.LR.1955 S.C. में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि संसद की विधायी शक्ति भूतलक्षी एवं भविष्यलक्षी दोनों हैं। संसद की विधायी शक्ति एक परिपूर्ण शक्ति है। संविधान में उपबन्धित परिसीमाओं के अधीन विधान मण्डल को भूतलक्षी और भविष्यलक्षी दोनों प्रकार की विधियों को बनाने की शक्ति है।

(ख) तत्व एवं सार का सिद्धान्त

तत्व एवं सार सिद्धान्त की अवधारणा- एक विधान मण्डल द्वारा बनाई गई विधि जब दूसरे विधान मण्डल के क्षेत्र का अतिक्रमण करती है तो उभर कर सामने आती है। दूसरे शब्दों में जब एक विधानमण्डल द्वारा बनाई गई कोई विधि दूसरे विधानमण्डल के भी क्षेत्र में अतिक्रमण करती है तो इस बात के अवधारण करने के लिए कि प्रश्नास्पद विधान उस विधानमण्डल की शक्ति के अधीन आता या नहीं, जिसने उसे बनाया है, न्यायालय सार तत्व का सिद्धान्त लागू करता है। प्रायः अधिनियमों में ऐसे उपबन्ध होते हैं, जो आनुषंगिक रूप से दूसरे विधानमण्डल के विधान विषयों पर अतिक्रमण करते हैं। यदि शाब्दिक निर्वचन किया जाय तो इस प्रकार के विधान अवैध हो जाएंगे। किन्तु यदि विधान सारवान रूप से या विधान का वास्तविक उद्देश्य ऐसे विषय से सम्बन्धित है, जिस पर वह विधानमण्डल विधि बनाने में सक्षम है, तो उसे विधिमान्य घोषित किया जाएगा, भले ही वह वह दूसरे विधानमण्डल के अधिकार क्षेत्र में आने वाले विषय पर आनुषंगिक रूप से अतिक्रमण करता हो। उस विधान की वास्तविक प्रकृति तथा स्वरूप का पता लगाने के लिए पूरे अधिनियम पर विचार किया जायेगा और उसके उद्देश्य और विस्तार तथा उसके उपबन्ध के प्रभाव की जाँच की जायेगी।

उदाहरण- प्रीवी कौंसिल ने इस सिद्धान्त का प्रयोग प्रफुल्ल कुमार मुखर्जी बनाम बैंक ऑफ खुलना (A.L.R. 1947 P.C.60 में किया।

इस वाद में बंगाल मनी लैण्ड्स एक्ट, 1946की वैधता को चुनौती दी गयी जो कि वह राशि और ब्याज की दर पर प्रतिबन्ध लगाती थी। किसी भी ऋण पर जो वह देता था यह अवैध बंगाल विधान मण्डल के परनोटों सम्बन्धी विधि के आधार पर अवैध था क्योंकि परनोटों सम्बन्धी कानून केन्द्रीय विषय के अन्तर्गत आता है। प्रीवी कौंसिल ने निर्धारित किया कि बंगाल साहूकारी अधिनियिम सार और सारांश के अनुकूल रुपया उधार देने और साहूकारों के बारे में था और यह एक राजकीय विषय है। बेशक यह केन्द्रीय अधिकार क्षेत्र में कुछ अकस्मात प्रवेश करता था, कहने का उद्देश्य यह है कि यदि कोई विधि मूलतः अपने अधिकार क्षेत्र में बनायी गयी हो तो उसे स्वीकार किया जा सकता है चाहे वह थोड़ा बहुत दूसरे के अधिकार क्षेत्र में प्रवेश करती हो।

बम्बई राज्य बनाम बालसरा (A.I.R.1951 S.C.) के मामले में बाम्बे मद्यनिषेध अधिनियम, जिसके द्वारा राज्य में मादक द्रव्यों को खरीदने तथा रखने का निषेध कर दिया गया था, की सांविधानिकता को इस आधार पर चुनौती दी गयी थी कि वह संघ-सूची में वर्णित विषय ‘मादक द्रव्यों के आयात-निर्यात पर अतिक्रमण करता है, क्योंकि मादक द्रव्यों के क्रय-विक्रय और उपयोग को रोकने से उसके आयात-निर्यात पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। उच्चतम न्यायालय ने अधिनियम को वैध अभिनिर्धारित किया क्योंकि उसके अनुसार अधिनियम का मुख्य उद्देश्य राज्य- सूची के विषय से सम्बन्धित था, संघ सूची से नहीं।

(ग) छद्म (आभासी) विधायन का सिद्धान्त

उच्चतम न्यायालय ने के0सी0जी0 नारायण देव बनाम उड़ीसा राज्य के वाद में आभासी विधायन का अर्थ और प्रयोग क्षेत्र के सिद्धान्त को निम्नलिखित शब्दों में व्यक्त किया है-

“यदि संविधान, विधायी शक्तियों का विधायी निकायों में वितरण करता है, जिन्हें कार्मिक क्षेत्रों में कार्य करना है, जिन्हें विशेष विधायी प्रविष्टियों में अंकित किया गया है और यदि ऐसी परिसीमायें विधायी अधिकर्ता पर मूल अधिकारों के रूप में है, सवाल उठता है कि विधान मण्डल किसी विशेष मामले में रखता है या नहीं रखता, उस विषय के सम्बन्ध में कानून के बारे में या उसे अधिनियमित करने के ढंग में, संवैधानिक शक्तियों की सीमाओं का उल्लंघन किया। ऐसा उल्लंघन पेटेन्ट प्रकट या प्रत्यक्ष परन्तु वह भेष में छिपाया भी हो सकता है, गुप्त या प्रच्छन्न, अप्रत्यक्ष या बाद की श्रेणी के मामले में विधायन का प्रयोग किया गया है। न्यायायिक घोषणाओं में इस कथन से यह विचार प्रस्तुत किया गया है कि बेशक देखने में एक विधान मण्डल एक कानून पारित करने में शक्तियों की सीमाओं के अन्तर्गत कार्य करने का प्रयत्न करता था परन्तु सारांश में और यथार्थ में उसने उन शक्तियों का उल्लंघन किया और वह उल्लंघन जो प्रतीत होता है उसके पर्दे में हो, उचित परीक्षण करने पर वह केवल भेष बदलने का बहाना है ……..। दूसरे शब्दों में अधिनियम का सारांश महत्वपूर्ण है केवल उसका रूप और बाह्य दिखावा नहीं। यदि उसके सारांश का विषय विधान मण्डल की शक्तियों से परे है कि वह उस रूप में कानून बना सके जिस भेष में कानून बनाया गया है, निन्दा से बच नहीं सकता है।

विधानमण्डल संवैधानिक निषेधों को भंग नहीं कर सकता प्रत्यक्ष तरीकों का प्रयोग करके। यह याद रखने की बात है कि विधान मण्डल को आभासी विधायन की रचना नहीं करनी चाहिए। ऐसी विधियाँ असंवैधानिक होती है और न्यायालय उन्हें खण्डित कर सकता है। विधान मण्डल को अपनी शक्तियों का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए।

आर0एस0जोशी बनाम अजीत मिल्स लि0 (A.I.R. 1977 S.C.) के मामले में न्यायाधिपति श्रीकृष्ण अय्यर ने छद्-विधायन की परिभाषा इस प्रकार की है- छद्ता से तात्पर्य ‘अक्षमता’ है। कोई वस्तु छद्म तब होती है जब वह जिस रूप में प्रकट की जाती है वास्तव में उस रूप में नहीं होती। भारतीय शब्दावली में इसे ‘माया’ कहते हैं। छद्ता में दुर्भावना का तत्व नहीं होता है।

नागेश्वर बनाम एपी0एस0टी0 कार्पोरेशन (A.I.R. 1958 S.C.) के वाद में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि इस सिद्धान्त का आधार यह है कि जो कार्य विधानमण्डल प्रत्यक्ष रूप से नहीं कर सकता, वह कार्य वह अप्रत्यक्ष रूप से भी नहीं कर सकता है, अर्थात् यदि किसी विषय पर उसे विधि बनाने की शक्ति नहीं है तो वह अप्रत्यक्ष तरीके से उस पर विधि नहीं बना सकता है। ऐसे मामलों में न्यायालय विधान की वास्तविक प्रकृति एवं स्वरूप की जाँच करेंगे न कि उसके प्रयोजन की जो उसमें प्रत्यक्षतः दृश्यमान है। किन्तु यदि विधानमण्डल को किसी विषय पर विधि बनाने की शक्ति प्राप्त है तो इसका कोई महत्व नहीं हैं कि वह किसी प्रयोजन से बनाया गया है।

कामेश्वर सिंह बनाम बिहार राज्य (1952S.C.) इस विषय पर उच्चतम न्यायालय का एकमात्र विनिश्चय है जिसमें छा-विधायन के सिद्धान्त पर किसी अधिनियम को अवैध घोषित किया गया है। इसमें बिहार भूमि सुधार अधिनियम, 1950 की विधिमान्यता को चुनौती दी गयी थी। इस अधिनियम के द्वारा जमींदारों की भूमि अधिगृहीत कर ली गयी थी और उन्हें प्रतिकर देने की व्यवस्था थी। जमींदारों को मालगुजारी के रूप में मिलने वाली आय के आधार पर प्रतिकर दिया जाना था। इसके अनुसार भूमि अधिग्रहण के पूर्व की बकाया धनराशि राज्य में निहित हो जानी थी और उसमें से आधी जमींदारों को प्रतिकर के रूप में दिये जाने की व्यवस्था थी। न्यायालय ने अधिनियम को अविधिमान्य घोषित कर दिया क्योंकि उसमें प्रतिकर को निर्धारित करने के लिए वस्तुतः कोई आधार नहीं विहीत किया गया था। यद्यपि ऊपरी तौर से ऐसा करने का प्रयास किया गया था किन्तु अधिनियम में दी हुई व्यवस्था के परिणामस्वरूप जमींदारों को कोई प्रतिकर नहीं मिलता था।

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