संवैधानिक विधि/constitutional law

केन्द्र एवं राज्य के बीच उत्पन्न विवाद |Conflict between State Law and Union Law

केन्द्र एवं राज्य के बीच उत्पन्न विवाद

केन्द्र एवं राज्य के बीच उत्पन्न विवाद

किस प्रकार समवर्ती अनुसूची में उल्लिखित किसी विषय पर केन्द्र एवं राज्य के बीच उत्पन्न विवाद को सुलझाया जाता है। How the conflict between State Law and Union Law of a subject enumerated in concurrent list is resolved?

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 254 के उपबन्धों के अनुसार संसद द्वारा बनायी गयी विधियों और राज्यों के विधानमंडलों में बनायी गयी विधियों में असंगति की स्थिति में संसद की बनायी गयी विधि प्रभावी होगी।

संसद तथा राज्यों के विधान- मण्डलों द्वारा निर्मित विधियों में असंगति होने पर उत्पन्न भ्रम का निराकरण अनुच्छेद 254 में किया गया है। इसके अनुसार जहाँ किसी विषय पर संसद तथा राज्यों के विधान-मण्डलों, दोनों को विधि निर्मित करने का अधिकार हो और दोनों द्वारा निर्मित विधियों में असंगति हो तो वहाँ-

  1. संसद द्वारा निर्मित विधि राज्य विधान-मण्डल द्वारा निर्मित विधि पर अभिभावी होगी;
  2. लेकिन यदि राज्य विधान-मण्डल द्वारा निर्मित विधि का राष्ट्रपति द्वारा अनुमोदन किया गया है तो उस राज्य के विधान-मण्डल द्वारा निर्मित विधि प्रवृत्त होगी; तथा
  3. संसद ऐसी विधि में परिवर्तन, परिवर्द्धन, संशोधन या उसका निरसन कर सकेगी।

जहाँ संघ सूची एवं राज्य सूची की प्रविष्टि में विरोधाभास हो, वहाँ विधि-निर्माण की दिशा में संसद की शक्ति सर्वोपरि होगी।

मे० आई०टी०आई० जेनेका लि0 बनाम गवर्नमेन्ट ऑफ आन्ध्र प्रदेश AIR 2001, आन्ध्र प्रदेश के मामले में भी यही कहा गया है कि जहाँ किसी विषय पर संघ एवं राज्य की विधियों में अन्तर्विरोध हो, वहाँ राज्य की विधि उस सीमा तक अप्रभावी समझी जायेगी जिस सीमा तक वह संघ की विधि से असंगत है।

इस सम्बन्ध में एक और मामला श्रीमती रतनाम्माँ बनाम के0वी0 हनुमन्त रेड्डी AIR 2009, कर्नाटक का है। इसमें केन्द्रीय तथा राज्य विधि के बीच असंगतता का प्रश्न अन्तर्ग्रस्त था। केन्द्रीय तथा राज्य विधि में असंगतता होने पर केन्द्रीय तथा राज्य विधि के बीच असंगतता का प्रश्न अन्तर्ग्रस्त था। केन्द्रीय तथा राज्य विधि में असंगतता होने पर केन्द्रीय विधि प्रभावी होगी, यदि अन्यथा कोई उपबन्ध न हो।

इस प्रकार स्पष्ट है कि अन्ततः संसद ही विधि-निर्माण के क्षेत्र में सर्वोच्च है। संसद तथा राज्य-विधान-मण्डल द्वारा निर्मित विधियों में टकराव की स्थिति उत्पन्न हो जाने पर विजय संसद की ही होती है। अतः राज्यों के विधान-मण्डल, संसद की नाराजगी मोल लेकर अथवा उससे प्रतिस्पर्धा कर कोई विधि बनाने में सफल नहीं हो सकते हैं। यदि राज्य के विधान-मण्डल द्वारा निर्मित विधि पर राष्ट्रपति का अनुमोदन प्राप्त कर उसे लागू कर भी दिया जाता है तो संसद उसमें परिवर्तन, परिवर्धन या संशोधन आदि कर उस पर अपनी इच्छा को थोप सकती है। अतः अच्छा यही है कि जहाँ तक हो सके, राज्यों के विधान-मण्डल संसद द्वारा निर्मित विधि से असंगत विधि पारित करे ही नहीं।

यह व्यवस्था कुल मिलाकर भारत शासन अधिनियम, 1935 की धारा 107 के उपबन्धों के अनुरूप ही है। यदि थोड़ा-बहुत अन्तर है भी तो वह अनुच्छेद 254 के खण्ड (2) के परन्तुक को लेकर है। इस परन्तुक द्वारा कुछ महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किया गया है।

जवेर भाई बनाम स्टेट ऑफ बम्बई का मामला AIR 1954S.C.-

यह इस बिन्दु पर एक महत्वपूर्ण मामला है। सन् 1946 में केन्द्रीय विधान-मण्डल द्वारा आवश्यक वस्तु (अस्थायी शक्ति) अधिनियम पारित किया गया। इसमें अभियुक्त के लिए अधिकतम तीन वर्ष के कारावास की सजा एवं जुर्माने की व्यवस्था थी। कालान्तर में बम्बई राज्य विधान-मण्डल ने सजा की अवधि बढ़ाकर सात वर्ष कर दी। इसे गवर्नर जनरल का अनुमोदन मिल जाने से केन्द्रीय विधि प्रभावहीन हो गयी। संसद ने 1957 में इस विधि में काफी परिवर्तन एवं संशोधन कर दिया। इस प्रकार संसद द्वारा पारित संशोधित विधि पुनः प्रभावी हो गयी।

दीपचन्द्र बनाम स्टेट आफ उत्तर प्रदेश का मामला AIR 1959 S.C. –

 इसमें उत्तर प्रदेश विधान-मण्डल द्वारा पारित ‘उत्तर प्रदेश ट्रान्सपोर्ट सर्विस (डेवलपमेन्ट) ऐक्ट, 1955’ की वैधता को चुनौती दी गयी थी। यह अधिनियम सरकार को सड़क यातायात का राष्ट्रीयकरण करने के लिए प्राधिकृत करता था। कालान्तर में सन् 1956 में संसद द्वारा मोटरयान (संशोधन) अधिनियम पारित कर दिये जाने से उत्तर प्रदेश ट्रान्सपोर्ट सर्विस (डेवलपमेन्ट) ऐक्ट निष्प्रभावी हो गया; क्योंकि वह सड़क-यातायात के राष्ट्रीयकरण के बारे में एकरूप व्यवस्था करने वाला संशोधित अधिनियम था।

एम० करुणानिधि बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया का मामला (1979) 3 S.C.C. इस मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि यदि किसी विषय पर केन्द्र तथा राज्य द्वारा निर्मित विधियों में असंगति नहीं है और वे एक-दूसरे के पूरक हैं तो किसी के भी निरसित होने का प्रश्न नहीं उठता है।

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