संवैधानिक विधि/constitutional law

प्रतिषेध लेख का अर्थ तथा यह किन आधारों पर जारी किया जाता है?

प्रतिषेध लेख का अर्थ

प्रतिषेध लेख का अर्थ

प्रतिषेध लेख की व्याख्या कीजिये। यह किन आधारों पर जारी किया जाता है? Explain writ of prohibition. On what grounds this writ is issued ?

प्रतिषेध (Prohibition) का अर्थ –

प्रतिषेध लेख एक न्यायिक लेख है। इसका प्रमुख उद्देश्य न्यायिक त्रुटियों को ठीक करना है। यह लेख मुख्यतया वरिष्ठ न्यायालय द्वारा अधीनस्थ न्यायालयों अथवा न्यायाधिकरणों को अपने क्षेत्राधिकार से बाहर जाने अथवा नैसर्गिक न्याय के सिद्धान्तों के विरुद्ध कार्य करने से रोकने के लिये जारी किया जाता है। वरिष्ठ न्यायालय द्वारा प्रतिषेध लेख जारी करने का कारण अधीनस्थ न्यायालयों को उन क्षेत्राधिकारों को बलात् गृहण करने से रोकना है जो कानून द्वारा विहित नहीं है। दूसरे शब्दों में प्रतिषेध रिट अपनी अधिकारिता की सीमाओं के भीतर कार्य करने के लिये जारी किया जाता है।

इस प्रकार यह लेख दोनों अवस्थाओं में जारी किया जाता है। जहाँ अधिकारिता के बाहर कार्य किया गया है और जहाँ अधिकारिता का अस्तित्व ही नहीं है।

यह लेख बहुत कुछ उत्प्रेषण से मिलता-जुलता है परन्तु उच्चतम न्यायालय ने हरि विष्णु कामथ बनाम अहमद बसहाक (1955 SC) के वाद में इन दोनों लेखों के अन्तर को निम्न शब्दों में व्यक्त किया है “जब कोई अधीनस्थ न्यायालय ऐसे मामले की सुनवाई करता है जिस पर उसे अधिकारिता प्राप्त नहीं तो वरिष्ठ न्यायालय प्रतिषेध लेख जारी करके अधीनस्थ न्यायालय को उन कार्यवाहियों को आगे बढ़ाने से रोक सकता है। दूसरी ओर यदि अधीनस्थ न्यायालय मुकदमे की सुनवाई कर चुका है और निर्णय दे चुका है तो उत्प्रेषण लेख जारी किया जायेगा और उक्त कार्यवाही को रद्द कर दिया जायेगा।” अतः स्पष्ट है कि प्रतिषेध लेख उस समय जारी किया जाता है जबकि कार्यवाही चल रही होती है तथा उत्प्रेषण लेख ऐसे निर्णय को रद्द करने के लिए उस समय जारी किया जाता है जबकि कार्यवाही पूरी हो चुकी होती है तथा निर्णय दे दिया जाता है।”

आवेदन कौन कर सकता है ? –

जहाँ अधिकारिता की त्रुटि कार्यवाही में स्पष्ट है, प्रतिषेध के लिए व्यथित पक्षकार ही नहीं वरन् एक अजनबी भी आवेदन कर सकता है। इस सिद्धान्त का यह आधार है कि अधिकार छीनना क्राउन की अवमानना है और रॉयल परमाधिकार का अतिक्रमण है। इसलिए इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता है कि अधिकार छीनने के बारे में न्यायालय को किसने सूचित किया है।

आधार-प्रतिषेध रिट जारी किये जाने के प्रमुख आधार निम्न हैं-

(1) अधिकारिता का अभाव या आधिक्य-

अधिकारिता की अनुपस्थिति या पूर्ण अभाव में एक न्यायिक या न्यायिककल्प प्राधिकारी को उसमें निहित नहीं की गई अधिकारिता के प्रयोग को रोकने के लिए प्रतिषेध रिट उपलब्ध होगा। इस प्रकार एक मामले में बिना विधि के प्राधिकार के लाइसेंस-शुल्क लगाने पर रोक के लिए निषेध जारी किया गया। पुन: यदि कसधान प्राधिकारी अधिनियम के अधीन विमुक्त वस्तु पर कर लगाना चाहता है तो प्रतिषेध रिट जारी हो सकता है। परन्तु यह याद रखना चाहिए कि अधिकारिता का अभाव या पूर्ण कमी अभिलेख पर प्रकट और प्रत्यक्ष होनी चाहिए और अप्रकट तथा साधारणत: इसको स्थापित करने के लिए तथ्य के प्रश्नों की जाँच वाली नहीं होनी चाहिए। इसी प्रकार अधिकारिता के अभाव तथा न्यायालय या अधिकरण में निहित अधिकारिता के प्रयोग या रीति के तरीके अन्तर अवश्य किया जाना चाहिए। प्रतिषेध कनिष्ठ न्यायालय या अधिकरण की गति, पद्धति या प्रक्रिया अथवा गुणागुणों पर गलत निर्णय को ठीक करने के लिए जारी नहीं किया जा सकता है। इसलिए जहाँ एक अधिकरण को आदेश देने की अधिकारिता है किन्तु उस अधिकारिता के प्रयोग में वह तथ्य या विधि की भूल करता है तो इस गलती को अपील या पुनरीक्षण के द्वारा ही ठीक किया जा सकता है, प्रतिषेध के रिट द्वारा नहीं।

(2) मूल अधिकारों का अतिलंघन-

यदि आक्षेपित कार्यवाही से याची के मूल अधिकारों का अतिलंघन होता है तो भी प्रतिषेध रिट जारी किया जा सकता है। इस प्रकार एक मामले में आयकर की कार्यवाही को एक आदेश के द्वारा एक अधिकारी से दूसरे अधिकारी को स्थानान्तरित किया गया था और स्थानान्तरण का आदेश मनमाना और अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता था। न्यायालय ने आयकर निर्धारण कार्यवाही के विरुद्ध प्रतिषेध रिट जारी किया।

(3) अभिलेख पर स्पष्ट विधि की त्रुटि-

अभिलेख पर स्पष्ट, प्रत्यक्ष और सुस्पष्ट विधि की त्रुटि होने पर उस आदेश को उत्प्रेषण रिट द्वारा रद्द किया जाता है। इसी प्रकार की त्रुटि वाला मामला यदि अधीनस्थ न्यायालय या अधिकरण में लम्बित होता है तो अपर न्यायालय इस मामले की अग्रिम कार्यवाही को रोक सकता है।

(4) नैसर्गिक न्याय का अतिक्रमण-

नैसर्गिक न्याय के सिद्धान्तों का अतिक्रमण होने पर भी प्रतिषेध रिट जारी किया जा सकता है। वस्तुत: यदि नैसर्गिक न्याय के सिद्धान्तों का अनुपालन नहीं होता है, उदाहरणार्थ, न्यायाधीश की ओर से पक्षपात या प्रतिकूल प्रभाव है, या कोई सूचना नहीं दी गई थी या उस व्यक्ति को जिसके विरुद्ध कार्यवाही की जा रही है कोई सुनवायी नहीं दी गई थी तो न्यायालय या अधिकरण के पास उस मामले में कार्यवाही करने की कोईअधिकारिता नहीं है।

(5) संविधि की असंवैधानिकता-

यदि कोई न्यायालय या अधिकरण अधिकारातीत या असंवैधानिक विधि के अर्न्तगत कार्यवाही की पहल करता है तो उसके विरुद्ध भी प्रतिषेध रिट जारी किया जाएगा। इसलिए यदि किसी न्यायालय या अधिकरण में ऐसे स्टेट्यूट के अधीन कार्यवाही लम्बित है जो संविधान के अनुच्छेद 14 या अनुच्छेद 25 और 26 के अधिकारातीत है अथवा विधानमण्डल की क्षमता के बाहर है तो अगली कार्यवाही के विरुद्ध प्रतिषेध जारी किया जा सकता है।

प्रतिषेध लेख की सीमाएँ –

प्रतिषेध लेख की प्रमुख सीमा निम्न हैं-

(i) प्रतिषेध रिट का उद्देश्य अवैध अधिकारिता ग्रहण करना रोकना है। इसलिए यह तभी जारी किया जा सकता है जब यह साबित हो जाए कि न्यायिक या अर्द्ध-न्यायिक प्राधिकारी के पास अधिकारिता नहीं थी या उसने अपनी अधिकारिता से बाहर कार्य किया है। यदि ऐसा प्राधिकारी अपनी अधिकारिता का प्रयोग अनियमितता, अनुचित रूप में या गलत ढंग से करता है तो प्रतिषेध रिट नहीं मिल सकता है।

(ii) प्रतिषेध रिट तभी ग्राह्य होगा जब कार्यवाही न्यायिक या न्यायिक कल्प प्राधिकार के यहाँ लम्बित है। इस प्रकार जब ऐसा प्राधिकारी उस मामले की सुनवायी करता है, जिस पर उसकी अधिकारिता नहीं है तो व्यथित पक्षकार उच्च न्यायालय में उस प्राधिकारी को मामले में अग्रिम कार्यवाही करने से रोकने के लिए प्रतिषेध रिट के लिए समावेदन कर सकता है। परन्तु यदि कार्यवाही समाप्त हो गई है और ऐसा प्राधिकारी पदकार्य-निवृत्त हो गया है तो प्रतिषेध रिट नहीं मिलेगा। इसमें उत्प्रेषण रिट का उपचार मिल सकता है।

इस प्रकार उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि प्रतिषेध रिट का न्यायिक क्षेत्र में विशेष महत्व है। चूंकि यह रिट अधिकारिता के आधिक्य या अभाव में जारी किया जाता है। अत: यदि अधिकारिता का दोष स्पष्ट है तो वरिष्ठ न्यायालय का यह अधिकार ही नहीं कर्तव्य भी है कि वह अवर न्यायालय या अधिकरण को अधिकारिता का अतिक्रमण करने से रोकने हेतु प्रतिषेध लेख को जारी करे।

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